आनंद दत्त, बीबीसी हिंदी के लिए
दोपहर के एक बजे हैं। पाँच साल के ईशांत मुंडा पाँच लीटर का एक प्लास्टिक का डिब्बा लिए स्कूल से जंगल की ओर जा रहे हैं। उनके साथ 40 से ज़्यादा बच्चे हैं। सबके हाथ में यही डिब्बा है। पूछने पर बताया कि वह पीने का पानी लाने जा रहे हैं। क्या स्कूल में कोई हैंडपंप या पानी पीने के लिए व्यवस्था नहीं है।
वे कहते हैं, ''नहीं है। हमलोग हर दिन जंगल से होकर लगभग डेढ़ किलोमीटर नीचे उतरते हैं। वहाँ पहाड़ से पानी आता है और वहीं हम पानी लेने जाते हैं। ऐसा हमलोग हर दिन सुबह और शाम में करते हैं। चाहे सर्दी हो या बरसात, हर मौसम में हर दिन दो बार पानी लाने जाना पड़ता है।''
ईशांत के सीनियर और दसवीं के छात्र राहुल उरांव पिछले आठ साल से ऐसा कर रहे हैं। ये सभी छात्र राजकीय अनुसूचित जनजातीय उच्च विद्यालय के छात्र हैं। यह रांची से 122 किलोमीटर दूर गुमला ज़िले के नेतरहाट जंगल स्थित जोभीपाट गाँव में है।
स्कूल की ज़मीन के नीचे बॉक्साइट का खदान है। जिस वजह से यहां पानी नहीं मिल पा रहा है। शौच के लिए छात्र खेत में जाते हैं। कुल 248 आदिवासी छात्रों वाले इस आवासीय स्कूल में मात्र चार स्थायी शिक्षक हैं और 12 पारा टीचर।
सातवीं क्लास के छात्र विक्रम उरांव कहते हैं कि हफ़्ते में तीन दिन ही सही से पढ़ाई हो पा रही है। बाक़ी कभी दो तो कभी तीन घंटे मात्र पढ़ाई होती है।
1955 में आदिवासी छात्रों के लिए बने इस विद्यालय में शिक्षक और पानी की समस्या स्थापना के समय से ही बरक़रार है।
बिरसा मुंडा के गाँव में भी स्कूल का ये हाल
रांची से 64 किलोमीटर दूर खूंटी ज़िले के उलिहातू गाँव के बिरसा आवासीय उच्च विद्यालय में 300 छात्र पढ़ते हैं। यहाँ भी बच्चों को स्कूल कैंपस से बाहर जाकर पानी लाना पड़ता है। पानी नहीं होने के कारण बच्चे शौचालय का इस्तेमाल नहीं करते। उन्हें खुले में शौच के लिए जाना पड़ता है।
नहाने के लिए बच्चे तालाब जाते हैं। पिछले साल एक बच्चे को नहाने के क्रम में सांप ने डँस लिया था। मेस में मात्र दो बेंच हैं। इस वजह से बच्चे सड़क पर बैठकर खाते हैं। यहां भी मात्र तीन स्थायी शिक्षक हैं। बाक़ी 13 शिक्षक दिहाड़ी पर हैं।
उलिहातू, बिरसा मुंडा का भी गाँव है। बीते 15 नवंबर को उनकी जन्मतिथि पर राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने इस गाँव का दौरा किया था। यह आदिवासी मामलों के केंद्रीय मंत्री अर्जुन मुंडा का संसदीय क्षेत्र भी है।
हाल ही में जारी एक सर्वे के मुताबिक़ पूरे राज्य के 20 प्रतिशत स्कूलों में मात्र एक शिक्षक हैं। इकलौते शिक्षक वाले स्कूलों में लगभग 90 प्रतिशत छात्र दलित या आदिवासी हैं।
प्राथमिक स्तर (कक्षा 1-5) पर ज़्यादातर शिक्षक (55 प्रतिशत) पारा शिक्षक और अपर-प्राइमरी (कक्षा 1-8) स्तर पर 37 प्रतिशत पारा शिक्षक हैं। सैंपल में लगभग 40 प्रतिशत प्राइमरी स्कूल पूरी तरह से पारा शिक्षक ही चला रहे हैं।
इस सर्वे को 'ज्ञान विज्ञान समिति' ने जारी किया है। इसमें झारखंड के 16 ज़िलों के कुल 138 स्कूलों को शामिल किया गया है। इन स्कूलों में कम से कम 50 प्रतिशत विद्यार्थी अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के हैं।
मशहूर अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज़ की रिपोर्ट में क्या है?
प्रसिद्ध अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज की देखरेख में तैयार हुए इस सर्वे में और भी कई चौंकाने और चिंताजनक स्थिति वाले आँकड़े जारी किए गए हैं।
सैंपल में शामिल 40 प्रतिशत प्राइमरी स्कूलों को पूरी तरह पारा टीचर ही चला रहे हैं। इन स्कूलों में एक भी स्थायी शिक्षक नहीं हैं। वहीं प्राइमरी स्तर पर ज़्यादातर शिक्षक (55 फीसद) पारा शिक्षक और अपर-प्राइमरी स्तर पर 37 प्रतिशत पैरा शिक्षक हैं।
सैंपल में शामिल 138 स्कूलों में से केवल 53 प्रतिशत प्राइमरी स्कूलों और 19 प्रतिशत अपर-प्राइमरी स्कूलों में शिक्षा का अधिकार अधिनियम (आरटीई) के तहत निर्धारित छात्र-शिक्षक अनुपात 30 से कम था।
सर्वेक्षण के दिन छात्रों की उपस्थिति (नामांकित बच्चों के मुक़ाबले उपस्थित बच्चे) प्राइमरी स्कूलों में केवल 68 प्रतिशत और अपर-प्राइमरी स्कूलों में 58 प्रतिशत थी। इनमें से ज़्यादातर स्कूलों के शिक्षकों का मानना है कि फ़रवरी 2022 में स्कूलों के फिर से खुलने तक अधिकांश छात्र पढ़ना-लिखना भूल गए हैं।
सबसे चौंकाने वाली बात ये रही कि इन सभी 138 स्कूलों में से एक भी स्कूल में शौचालय, बिजली और पानी की उचित सुविधा नहीं थी।
यही नहीं, 64 प्रतिशत प्राइमरी स्कूलों और 39 प्रतिशत अपर-प्राइमरी स्कूलों में कोई बाउंड्री वॉल नहीं थे। इसके अलावा 64 प्रतिशत में खेल का मैदान नहीं था और 37 प्रतिशत में लाइब्रेरी में किताबें नहीं थीं।
सर्वे के दौरान बातचीत करने वाले दो तिहाई शिक्षकों ने कहा कि सर्वेक्षण के समय स्कूल के पास मिड डे मील के लिए पर्याप्त पैसा नहीं है। क़रीब दस फ़ीसदी स्कूल अब भी हफ़्ते में दो बार अंडे नहीं दे रहे हैं।
ज़्यादातर सैंपल स्कूलों में, 'फाउंडेशनल लिटरेसी ऐंड न्यूमरेसी' (एफएलएन) सामग्री बांटने को छोड़कर, उन बच्चों की मदद के लिए ख़ास कुछ नहीं किया गया जो कोविड-19 संकट के दौरान पढ़ना-लिखना भूल गए थे।
दलित-आदिवासी बच्चे ही क्यों भुगत रहे हैं खमियाजा?
ज्यां द्रेज़ बीबीसी से कहते हैं, ''झारखंड में स्कूली शिक्षा व्यवस्था की दयनीय स्थिति का मुख्य कारण यह है कि पीड़ित बच्चे ज़्यादातर वंचित परिवारों के बच्चे हैं। इन परिवारों के पास न तो आवाज़ है और न ही ताक़त। साधन-संपन्न परिवारों के बच्चे महंगे निजी स्कूलों में पढ़ रहे हैं। सिस्टम उनके लिए अच्छा काम कर रहा है, इसलिए इसे बदलने का कोई दबाव नहीं है।'
द्रेज़ यह भी कहते हैं, ''झारखंड में भारत के अन्य राज्यों के तुलना में शिक्षकों की सबसे ज़्यादा कमी है। लगभग एक तिहाई प्राथमिक विद्यालयों में एक ही शिक्षक होता है, आमतौर पर एक पैरा-शिक्षक। औसतन, उनके पास 51 छात्र हैं। इनमें से अधिकतर छात्र दलित या आदिवासी परिवारों के बच्चे हैं। शिक्षा के अधिकार अधिनियम के तहत एकल शिक्षक स्कूलों की अनुमति नहीं है, उन सभी को बिना देरी किए अतिरिक्त शिक्षकों की आवश्यकता है।''
ज्यां द्रेज़ कहते हैं, 'झारखंड में स्कूली शिक्षा प्रणाली की निराशाजनक स्थिति बुनियादी शिक्षा के प्रति इस राज्य की दशकों की उदासीनता को दर्शाती है। यह उदासीनता भूल के साथ नाइंसाफ़ी भी है। यह भूल इसलिए है क्योंकि सभी के लिए गुणवत्तापूर्ण शिक्षा झारखंड की अर्थव्यवस्था और समाज को बदल सकती है। यह नाइंसाफ़ी इसलिए है क्योंकि यह उत्पीड़ित वर्गों और समुदायों के हालात को बदलने नहीं देती।''
शिक्षकों के कितने पद हैं ख़ाली?
बीते 18 दिसंबर को केंद्रीय मानव संसाधन राज्यमंत्री अन्नपूर्णा देवी ने झारखंड के शिक्षा विभाग के साथ बैठक की थी। बैठक के बाद पत्रकारों से बात करते हुए उन्होंने कहा था कि राज्य में शिक्षकों के 90 हज़ार पद खाली हैं।
हाल ही में 50 हज़ार शिक्षकों की बहाली के लिए प्रक्रिया तय की गई थी। इसके तहत अनारक्षित वर्ग के अभ्यर्थियों के लिए भी झारखंड से मैट्रिक और इंटर पास होना अनिवार्य किया गया था।
कोर्ट में इस नियम को चैलेंज किया गया। बीते 18 दिसंबर को झारखंड हाईकोर्ट ने बहाली प्रक्रिया को स्थगित करने का आदेश दिया। यही नहीं राज्य में बीते पांच सालों से शिक्षक पात्रता परीक्षा भी आयोजित नहीं की गई है।
पत्रकार सुनील झा बीते 12 सालों की शिक्षा की ख़बर कर रहे हैं। बीबीसी से वो कहते हैं, ''राइट टु एजुकेशन राज्य में 2011 में लागू हुआ। लेकिन उसका जो पैमाना है, अब तक स्कूली शिक्षा पूरी तरह उस पर खरी नहीं उतर पाई है।'
सुनील कहते हैं, ''सर्व शिक्षा अभियान के तहत स्कूलों को अपग्रेड किया जाना था। मिडिल स्कूल को हाई स्कूल और हाई स्कूल को प्लस टू स्कूल में बदल तो दिया गया। लेकिन सुविधाओं के मामले में इसे अपग्रेड नहीं किया गया। मतलब कागज पर अपग्रेड तो कर दिया, लेकिन उसके लायक नहीं बनाया।'
राज्य के 510 हाई स्कूल (10वीं तक) को प्लस टू स्कूल में अपग्रेड तो कर दिया गया, लेकिन यहां न तो शिक्षक बहाल किए गए न ही लैब आदि की व्यवस्था की गई। यही वजह है कि प्लस टू स्कूलों के मुक़ाबले अपग्रेड हुए प्लस टू स्कूलों का रिजल्ट भी ख़राब हो रहे हैं।
राज्य में साल 2016 में आख़िरी बार शिक्षकों की भर्ती हुई थी। वह भी क्लास एक से पाँच और छह से आठ तक के लिए। इसके बाद से शिक्षकों की कोई भर्ती नहीं हुई है। वहीं हाई स्कूलों के लिए साल 2018 में आख़िरी बार शिक्षक भर्ती किए गए थे।
राज्य सरकार का पक्ष
राज्य के शिक्षामंत्री जगरनाथ महतो बीबीसी से कहते हैं, ''हमारी सरकार ने 50 हज़ार शिक्षकों के पद सृजित किए। लेकिन हमने जो प्रक्रिया तय की, उस पर हाई कोर्ट की रोक लग गई है। इसलिए भर्तियां रुक गई हैं। हम सरकारी स्कूलों को बेहतर करने जा रहे हैं, इसके लिए 50 स्कूलों में सीबीएसई पैटर्न की पढ़ाई शुरू कराने जा रहे हैं।'
राज्य के अपने बोर्ड को मज़बूत क्यों नहीं किया जा रहा है? इस सवाल के जवाब में वो कहते हैं, 'लोगों का मन सीबीएसई का था, इसलिए हमने ये व्यवस्था बनाई है।'
सर्वे में शामिल परम अमिताव बताती हैं, ''जब हम लातेहार जिले के एजामर गाँव पहुँचे तो वहाँ के प्राइमरी स्कूल में 86 बच्चे और मात्र एक शिक्षक थे। पांचवीं क्लास के एक छात्र ने बताया कि अंतिम बार उन्हें मिड डे मील में अंडा कब मिला था, याद नहीं है।
''स्कूल में उन्हें क्या पढ़ाया जा रहा है, कुछ समझ नहीं आता है। खाना बनानेवाली महिला को बीते सात महीने से सैलरी नहीं मिली है। वो स्कूल के बगल में रह रहे एक व्यक्ति के घर में लकड़ी के चूल्हे पर खाना पकाती हैं।''
परम के मुताबिक़, झारखंड के दलित और आदिवासी बच्चों के शिक्षा की बुनियाद यानी प्राइमरी स्कूल को ही इतना कमज़ोर बना दिया गया है कि ये बच्चे जीवन में आगे बढ़ ही नहीं सकते।
टीम के एक और साथी अमन मरांडी ने बताया कि दुमका जिले के धनबाशा इलाके में जंगल में स्कूल है। कोई रास्ता न होने की वजह से ग्रामीणों ने पगडंडी बना दिया है। स्कूल में बच्चों के बैठने के लिए एक दरी तक नहीं है। सभी बच्चे फर्श पर बैठकर ही पढ़ते हैं। यहां भी एकमात्र पैरा टीचर हैं, जो इन्हें पढ़ाते हैं।
यूडीआइएसई के आंकड़ों के मुताबिक, झारखंड के 98 प्रतिशत प्राइमरी और अपर-प्राइमरी स्कूलों में इस्तेमाल के लायक शौचालय हैं, और 97 प्रतिशत में लड़कियों के लिए एक अलग शौचालय हैं। ये सरकारी आंकड़े बेहद भ्रामक हैं।
सर्वे में 15 प्रतिशत प्राइमरी स्कूलों और 5 प्रतिशत अपर-प्राइमरी स्कूलों में इस्तेमाल के लायक कोई शौचालय नहीं था। कुछ स्कूलों में शौचालयों की स्थिति अच्छी है लेकिन वे ज्यादातर बंद ही रहते हैं और खासकर शिक्षकों के लिए आरक्षित हैं।