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Written By BBC Hindi
Last Updated : सोमवार, 31 मई 2021 (10:19 IST)

मायावती और बहुजन समाज पार्टी इन दिनों उत्तरप्रदेश में कितनी सक्रिय हैं?

Mayawati | मायावती और बहुजन समाज पार्टी इन दिनों उत्तरप्रदेश में कितनी सक्रिय हैं?
अनंत झणाणे (बीबीसी हिन्दी डॉट कॉम के लिए)
 
बहुजन समाज पार्टी की प्रमुख मायावती इन दिनों चर्चा में हैं। सोशल मीडिया पर उनको लेकर आपत्तिज़नक टिप्पणी वाला फ़िल्म अभिनेता रणदीप हुड्डा का एक वीडियो वायरल हो रहा है। यह वीडियो नौ साल पुराना है लेकिन संयुक्त राष्ट्र की एक संस्था ने इसके सामने आने के बाद हुड्डा को एंबेसडर की ज़िम्मेदारी से हटा दिया है। हुड्डा पर कई जगहों से कार्रवाई करने की मांग भी सामने आ रही है।
 
वैसे पिछले कुछ महीनों से मायावती चर्चा में बिलकुल नहीं दिखी हैं। बीते 2 महीनों से कोरोना संक्रमण की दूसरी लहर का असर पूरे देश में दिखा लेकिन उत्तरप्रदेश में गंगा किनारे शवों को दफ़नाए जाने और इसके बाद उन शवों के ऊपर चढ़े कपड़े निकालने का मुद्दा गर्माया रहा। लेकिन मायावती का राजनीतिक रवैया सिर्फ़ औपचारिक बयानबाज़ी तक सीमित रहा।
 
समाजवादी पार्टी और कांग्रेस दोनों ने मीडिया में आ रही ख़बरों के सहारे सरकार पर निशाना साधा लेकिन मायावती महज़ महामारी से निपटने और उससे जुड़े मुद्दों पर नसीहतें देती नज़र आईं और दबाव की राजनीति से दूर रहीं।
 
इस बारे में वरिष्ठ राजनीतिक पत्रकार रामदत्त त्रिपाठी कहते हैं, 'मायावती को मालूम है की सरकार प्रतिशोध की भावना से काम करती है तो इसलिए वो सरकार से किसी भी मुद्दे पर सीधे मुक़ाबले से बचती हैं। जनता को मोबिलाइज़ इन्हें सिर्फ़ इलेक्शन के लिए करना आता है। और बसपा की राजनीति सिर्फ़ उनके वोट बैंक तक सीमित है।'
 
रामदत्त त्रिपाठी यूपी के विपक्षी दलों की तुलना करते हुए बताते हैं, 'कांग्रेस मुद्दे उठा रही है लेकिन उसकी ग्राउंड प्रजेंस नहीं हैं। ट्विटर हमलों की बात करें तो अखिलेश और कांग्रेस काफ़ी सक्रिय थे। लेकिन मायावती शायद यह सोचती हैं कि मेरा वोट बैंक मेरे साथ है।'
 
हालांकि इस मुद्दे को लेकर उत्तरप्रदेश सरकार की आलोचना भी काफ़ी हुई हालांकि राज्य के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कई इलाकों का दौरा कर कोविड संक्रमण के दौरान व्यवस्थाओं का जायजा भी लिया।
 
इन सबके बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उत्तरप्रदेश में अगले साल होने वाले चुनाव को लेकर बीजेपी की स्थिति पर एक हाईप्रोफाइल बैठक भी की जिसमें राज्य के मुख्यमंत्री शामिल नहीं थे। ऐसे में आने दिनों में उत्तरप्रदेश राजनीतिक तौर पर बेहद अहम होने वाला है।
 
वैसे कोरोना संक्रमण की दूसरी लहर की स्थिति गंभीर से होने से पहले तक देश की राजनीति में कृषि क़ानूनों का मुद्दा गर्माया हुआ था। कई राज्यों के किसान और विपक्षी राजनीतिक दल कृषि क़ानूनों का विरोध कर रहे हैं।
 
पश्चिमी उत्तरप्रदेश ही नहीं उत्तरप्रदेश के अलग हिस्सों के किसान इस आंदोलन में शामिल हैं और कांग्रेस और कुछ हद तक समाजवादी पार्टी भी इस मौके पर भारतीय जनता पार्टी के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन में दिखाई पड़ रही है लेकिन राज्य की राजनीति में अहम स्थान रखने वाली बहुजन समाज पार्टी कहीं नज़र नहीं आई। यह हाल तब है जब उत्तरप्रदेश के चुनाव में अब 1 साल से भी कम समय बचा है।
 
14 अप्रैल को भीमराव आंबेडकर जयंती तक लखनऊ और राज्य के दूसरे हिस्सों में कोरोना संक्रमण की तेज़ी के चलते मायावती किसी आयोजन में शरीक़ नहीं हुईं और न ही पार्टी ने कोई बड़ा कार्यक्रम ही आयोजित किया गया लेकिन घर से ही मीडिया को दिए बयान में मायावती ने कहा कि कोरोना संक्रमण के चलते पार्टी सादगी से आंबेडकर जयंती मना रही है।
 
दरअसल अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव में मायावती की भूमिका क्या होगी, उनकी पार्टी कितनी सीटें हासिल करेंगी, इन सबको लेकर राजनीतिक गलियारों में कयासों का दौर चलता रहता है लेकिन बहुजन समाज पार्टी की वास्तविक ताक़त का अंदाज़ा लगाने के लिए आगरा से बेहतर कोई दूसरी जगह नहीं हो सकती है।
 
मोहब्बत की निशानी ताजमहल के अलावा आगरा की एक और पहचान है जिसे ज़्यादा लोग नहीं जानते।
 
दलितों के गढ़ में क्या है रुझान?
 
आगरा को देश की दलित राजधानी भी कहते हैं क्योंकि यहां उत्तरप्रदेश में दलितों की जनसंख्या में जाटव यानी चमड़ा व्यवसाय से जुड़े लोगों का बाहुल्य है।
 
आगरा को देश भर में जूतों के मैन्युफैक्चरिंग का गढ़ माना जाता है। 6 लाख से ज़्यादा जाटव वोटर आगरा लोकसभा की 7 विधानसभा सीटों में हार जीत का फ़ैसला करने का माद्दा रखते हैं। 2007 में जब मायावती की पूर्ण बहुमत की सरकार चुनकर आयी तो आगरा की सातों सीटें बसपा ने जीती थीं।
 
बसपा की 2007 की ऐतिहासिक जीत के भीतर यह एक और सक्सेस स्टोरी थी। 2007 से 2017 के राजनीतिक सफ़र में बसपा आगरा की इन 7 सीटों पर 7 से शून्य पर आ गई। 2007 में 206 विधान सभा सीटों की ऊंचाई से बसपा दस साल में 2017 में 19 सीटों तक गिर गई। बसपा के गढ़ आगरा में पार्टी का जनाधार भी खिसकता दिख रहा है।
 
7 महीने पहले ही आगरा के जाटव बाहुल्य जगदीशपुर इलाके में बसपा से इस्तीफ़ा दे चुके रामवीर सिंह कर्दम ने विरोध प्रदर्शन करते हुए मायावती का पुतला फूंका। बहुजन समाज पार्टी से इस्तीफ़ा देकर कर्दम ने जाटव महापंचायत (आगरा) का गठन किया।
 
वे आरोप लगाते हैं, 'बसपा में रहना है तो सबसे पहले पार्टी का टारगेट है पैसा इकट्ठा करना। अगर आप पैसा इकठ्ठा नहीं करवा पाते हैं और पार्टी में पैसा नहीं दिला पाते हैं, तो आप पद पर नहीं रह सकते हैं। आज जिन लोगों ने जिस समाज के लोगों ने पार्टी को खड़ा किया, जाटव समाज का आदमी, वो भी टिकट मांगता है तो उससे पैसा लिया जाता है।'
 
वैसे पैसे देकर टिकट बांटने का आरोप मायावती की पार्टी पर पहले भी लगता रहा है और अब यह चलन दूसरी पार्टियों तक भी पहुंचने लगा है। लेकिन अब तक किसी पार्टी पर लगे ऐसे आरोपों की पुष्टि नहीं हुई है।
 
1 साल पहले ही आगरा में बसपा के ज़िलाध्यक्ष बने 36 साल के विमल वर्मा ने बताया, 'मास लीडर हैं बहनजी। पब्लिक बहनजी के साथ है। बसपा कोई धन्ना सेठों की पार्टी नहीं है। पार्टी कैंडिडेट की योग्यता के आधार पर टिकट देती है। इसमें कोई फाइनेंशियल (आर्थिक) क्राइटेरिया है ही नहीं। यह तो इस पार्टी को कमज़ोर करने के लिए लोग इस तरह की बयानबाजी करते हैं ताकि हमारा वोटर गुमराह हो जाए। लेकिन हमारा वोटर मजबूत है, गुमराह होने वाला नहीं है।'
 
बिखरने के बाद नहीं संभल सकी है पार्टी
 
मायावती पर उनके 2007 से 2012 के शासनकाल में विपक्षी आरोप लगते थे कि वो दलित की बेटी से दौलत की बेटी में तब्दील हो गई हैं। इन आरोपों के बीच मायावती की पार्टी को मैनेज करने वाले तमाम लोग थे लेकिन मुश्किल यह है कि 2017 के विधानसभा चुनाव में ख़राब नतीजों के बाद, जब पार्टी का क़द कम हुआ तो बसपा बिखरने लगी।
 
कई सारे नेता, जैसे- स्वामी प्रसाद मौर्य (पूर्व कैबिनेट मंत्री और मौर्य समाज के बड़े नेता), बृजेश पाठक और नसीमुद्दीन सिद्दीकी, या तो पार्टी से निकाल दिए गए या फिर पार्टी छोड़ कर चले गए। इनमें से कुछ लोग पार्टी के बहुजन मूवमेंट से जुड़े हुए थे और उन्होंने पार्टी को 206 विधान सभा सीटों तक पहुंचाने में काफ़ी मेहनत की थी। नसीमुद्दीन अब कांग्रेसी नेता हैं, तो स्वामी प्रसाद मौर्य योगी सरकार में कैबिनेट मंत्री हैं और बृजेश पाठक भी उत्तरप्रदेश के क़ानून मंत्री हैं।
 
आगरा में भी पार्टी का यह संकट सामने दिखा। गोपालपुरा इलाक़े के सुनील चित्तौड़ 21 साल की उम्र से बहुजन मूवमेंट के लिए काम कर रहे थे, पार्टी को मज़बूत करने की उनकी मेहनत को देखते हुए उन्हें 2 बार एमएलसी भी बनाया गया। वे मायावती के बेहद ख़ास माने जाते थे और आगरा अलीगढ़ सेक्टर की 42 विधानसभा सीटों को अंतिम रूप देने में उनकी बड़ी भूमिका होती थी लेकिन पहले 2017 में उनकी अनुशंसा से अलग उम्मीदवारों को टिकट दिए गए और जब उन्होंने इस पर ऐतराज़ जताया तो वे पार्टी से निष्कासित कर दिए गए।
 
पिछले ही दिनों चंद्रेशखर आज़ाद रावण ने चित्तौड़ को अपनी पार्टी आज़ाद समाज पार्टी (कांशीराम) का प्रदेश अध्यक्ष बनाया है, चित्तौड़ ज़ाहिर तौर पर अब लोगों को मायावती के ख़िलाफ़ एकजुट करेंगे।
 
उन्होंने बताया, 'चंद्रशेखर जी दबे कुचलों का साथ दे रहे हैं। समाज के लोगों का साथ दे रहे हैं। बहनजी खुद फील्ड में नहीं हैं। मिशन और मूवमेंट से हट गई हैं।'
 
चित्तौड़ की तरह ही दूसरे नेता भी चंद्रशेखर आज़ाद की पार्टी का दामन थाम रहे हैं, इसमें ऐसे भी लोग शामिल हैं जिन्हें लग रहा है कि बसपा का ग्राफ़ गिर रहा है तो अपने राजनीतिक करियर और बहुजन मूवमेंट को ज़िंदा रखने के लिए नए विकल्पों को आज़माया जाए।
 
बग़ावती सुर
 
ज़ाहिर है धीरे-धीरे ही सही चंद्रशेखर आज़ाद की सक्रियता उन्हें राजनीति में अपने पैर जमाने में मदद कर रही है जबकि दूसरी ओर मायावती की निष्क्रियता के चलते पार्टी के अंदर वह सब भी हो रहा है जिसकी कल्पना पहले शायद ही किसी ने की हो, पार्टी के अंदर बग़ावती सुर उभरने लगे हैं। 43 साल के हाकिम लाल बिंद प्रयागराज की हांडिया विधानसभा से बसपा विधायक हैं। बिंद और दूसरे 6 अन्य विधायकों को पार्टी विरोधी गतिविधियों में लिप्त होने के चलते मायावती ने पार्टी से निलंबित किया है।
 
हाकिम लाल बिंद ने इन आरोपों के जवाब में बताया, 'हमने पहले भी यह कहा था कि माननीय बहन जी सामंतवादी ताक़तों से मिल कर, कैंडिडेट लड़ा रही थीं। और सामंतवादी ताक़तों से हम लोगों की विचारधारा नहीं मिलती थी, क्योंकि हमको ग़रीबों ने वोट किया था, हमको शोषित और पिछड़ा समाज ने वोट किया था। हमको अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों ने वोट दिया था। इसलिए हम लोगों ने बग़ावत किया था। इन लोगों पर समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव से भी मिलने का आरोप लगा।
 
अक्टूबर 2020 में हुई विधायकों की बग़ावत की इस घटना के तुरंत बाद मायावती ने तीखे तेवर दिखाए और समाजवादी पार्टी को खुले आम कहा कि दिसंबर में होने वाले विधान परिषद के चुनावों में सपा के कैंडिडेट को हराने के लिए उनके विधायक भाजपा या किसी अन्य पार्टी के कैंडिडेट को वोट दे सकते हैं। मायावती ने ये भी साफ़ कर दिया कि निलंबित बसपा विधायकों को 2022 में टिकट नहीं मिलेगा।
 
हाकिम लाल बिंद कहते हैं, 'हमने समाजवादी पार्टी की कोई सदस्यता नहीं ली हैं। हम लोग बहुजन समाज पार्टी के ही विधायक हैं। और 2022 तक बहुजन समाज पार्टी के विधायक बने रहेंगे। और आगे माननीय बहन जी जो निर्णय लेंगी, उनका निर्णय हम लोगों के लिए सर्वमान्य है। माननीय बहन जी ने हम लोगों को पार्टी से निलंबित किया है। और निलंबन अस्थायी रूप से होता है। निष्कासन नहीं होता है। शायद वो हम लोगों को वापस लेंगी।'
 
निलंबन वापस नहीं होने की सूरत में हाकिम लाल बिंद कहते हैं कि राजनीति में कुछ भी असंभव नहीं होता।
 
मायावती के सामने जाटवों के वोटों को एकजुट रखने के साथ साथ मुसलमानों के समर्थन को भी एकसाथ रखने की चुनौती होगी। इस चुनौती में वे अपने ही बयानों से पिछड़ती नज़र आती हैं।
 
मुसलमानों पर कितना असर
 
2014 की लोकसभा में शून्य पर सिमटी बहुजन समाज पार्टी 2019 में समाजवादी पार्टी के साथ मिलकर मैदान में उतरी और 10 लोकसभा सांसदों तक पहुंची लेकिन उसके बाद वोट ट्रांसफ़र नहीं होने की वजह बताकर इस गठबंधन से अलग हो गईं। उनका यह क़दम राज्य के मुसलमानों के लिए पहला सियासी सदमा था। उनके लिए यह मायावती की नीयत पर शक करने की बड़ी और जायज़ वजह बन गई। इसके बाद यह सिलसिला यहीं नहीं थमा बल्कि लगातार बढ़ता ही गया।
 
जम्मू कश्मीर में अनुच्छेद-370 हटाने का मायावती ने खुल कर समर्थन किया और संसद में सरकार के समर्थन में वोट भी दिया। यहां तक कि अनुच्छेद-370 के ख़िलाफ़ बोलने के चलते अमरोहा के सांसद दानिश अली को सज़ा भी मिली और उन्हें लोकसभा में पार्टी के नेता पद से हटा दिया गया।
 
नागरिकता संशोधन एक्ट और एनआरसी को लेकर कांग्रेस ने जब विपक्षी दलों की बैठक बुलाई, बहुजन समाज पार्टी उससे अनुपस्थिति रही। हालांकि बाद में मायावती ने एनआरसी और सीएस पर चुप्पी ज़रूरी तोड़ी लेकिन महज़ क़ानूनी सफ़ाई मांग कर अपना विरोध दर्ज किया, अन्य विपक्षी पार्टियों के विपरीत वह क़ानून की वापसी की मांग करने से बचती नज़र आईं।
 
इतने सियासी उठापटक के बावजूद बसपा सांसद दानिश अली की वफ़ादारी कायम है। बसपा के भविष्य के बारे में सवाल करने पर वो उसका इतिहास दोहराते हैं, 'आप किसी से भी पूछ लीजिए, की राज्य की पिछली तीन सरकारों में क़ानून व्यवस्था सबसे अच्छी किसकी रही है तो आज भी लोग बहन जी के शासनकाल को सबसे बेहतर बताते हैं। पार्टी का मूवमेंट से जुड़ा वोटर अब भी कायम है और वो बहन जी के इशारे पर वोट देते हैं। इसे तोड़ने की कोशिशें जारी हैं लेकिन वो अब तक नाकाम रही हैं और आगे भी नाकाम रहेगी।'
 
53 साल के हाजी चौधरी अली साबिर, आगरा के मुस्लिम मोहल्ले मंटोला के 'घटिया मामू भांजा' इलाक़े में रहते हैं। हाजी साहब स्थानीय शान्ति समिति के भी अध्यक्ष हैं और समाजवादी पार्टी के सदस्य हैं। उनकी माने तो 2019 के चुनावों में जिस भी सीट पर बसपा का उम्मीदवार टक्कर में था, मुसलमानों ने उसे जिताने का काम किया। उन्होंने कहा, 'पिछली बार एक तरफ़ा वोट डाला था, जहां कैंडिडेट बसपा का था, वोट उसको दिया गया।'
 
उनके मुताबिक मई 2019 से आज तक काफ़ी घटनाएं घटित हो गई है और कौम में मायावती के विश्वसनीयता को लेकर सवाल उठ खड़े हुए हैं, उसका ज़िक़्र करते हुए उन्होंने कहा, 'इस बार समाजवादी पार्टी का प्रत्याशी खड़ा होगा, अब उसे वोट दिया जाएगा।'
 
क्या है मुसलमानों की आशंका?
 
विशाल रियाज़ आगरा की एक नाट्य अकादमी से जुड़े हुए हैं। उनका मानना है कि मुसलमान समुदाय का बसपा से भरोसा कम हुआ है। वे कहते हैं, 'ये सच है कि मुसलमान बहन जी से जो उम्मीद रखता था, वो चीज़ बहनजी से मुसलमानों को नहीं मिली। बहनजी के कुछ वक्तव्य ऐसे रहे हैं जो बीजेपी को मज़बूत करने वाले रहे हैं। इससे मुस्लिम समाज में शंका पैदा हुई कि वे भाजपा के साथ हैं और भाजपा की हिमायती हैं। यह बिलकुल सच है, ऐसा बिलकुल महसूस किया है पब्लिक ने। और जब कोई बात ऐसी आती है, जैसे अनुच्छेद-370 हो, या सीएए की हम बात करते हैं, उस पर उन्होंने खुल कर बात नहीं की, दबी ज़ुबान से बात की।'
 
हालांकि ढेरों लोग है जो यह मानते हैं कि मायावती और उनके भाई पर केंद्रीय जांच एजेंसियों का डर है जिसके चलते वे राजनीतिक तौर पर निष्क्रिय बने हुए हैं। इस आशंका की अपनी वजहें भी हैं।
 
मायावती को है कार्रवाई का डर?
 
14 मार्च 2019 में जब बसपा और सपा का गठबंधन चुनावी कैंपेन में व्यस्त था, तब आयकर विभाग ने मायावती के क़रीबी और वरिष्ठ आईएएस अधिकारी नेतराम के घर छापेमारी कर बेनामी लक्ज़री गाड़ियां, 50 लाख के विदेशी पेन (कलम), एक करोड़ से ज़्यादा कैश और और 225 करोड़ की संपत्ति के कागज़ात बरामद किए थे।
 
23 जून 2019 को, ठीक लोक सभा चुनावों से पहले मायावती ने अपने भाई आनंद कुमार और भतीजे आकाश आनंद को बसपा का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और नेशनल कोऑर्डिनेटर बनाकर बड़े पद दिए।
18 जुलाई 2019 को, आयकर विभाग ने नोएडा में एक 400 करोड़ की बेनामी संपत्ति को अटैच कर लिया। विभाग ने मायावती के भाई आनंद कुमार और उनकी पत्नी विचित्र लता पर 7 एकड़ का यह प्लाट बेनामी ख़रीदवाने का आरोप लगाया। शेल कंपनियों के माध्यम से उन पर इस ज़मीन से जुड़े आर्थिक लेन-देन करने का आरोप है।
 
9 मार्च 2021 को, ईडी ने बसपा के पूर्व एमएलसी मोहम्मद इक़बाल की 7 चीनी मिलों को अटैच कर लिया। इक़बाल पर आरोप है कि उन्होंने 2011 में मायावती के शासनकाल में मीलों के निजीकरण के दौर में ये सभी मिलें कौड़ियों के भाव में खरीदी थीं। इन्हें सरकार ने 60 करोड़ में बेचा, जबकि उस समय के हिसाब से इनकी कीमत 1097 करोड़ आंकी गई है।
 
सीबीआई भी मायावती शासनकाल के दौरान हुई चीनी मिलों के सौदों से जुड़े घोटाले के आरोपों की एफ़आईआर दर्ज कर जांच कर रही है।
 
बसपा संस्थापक कांशीराम के जयंती के मौक पर 15 मार्च 2021 को हुई प्रेस कॉन्फ्रेंस में मायावती ने चीनी मिलों के सौदों में हुए घोटालों के आरोपों पर सफ़ाई दी और कहा, 'बीएसपी सरकार में जो चीनी मिलें बिकीं उस समय गन्ना विभाग मेरे पास नहीं था। चीनी मिल बिक्री का फ़ैसला कैबिनेट का था। बीएसपी सरकार में किसी ने अकेले चीनी मिलें बेचने का निर्णय नहीं लिया, नियम क़ानून के तहत ही चीनी मिलों की बिक्री हुई थी।'
 
इन सभी जांच से एक बात उभर कर सामने आ रही है कि मायावती को सीधे निशाना न बना कर उनके क़रीबियों, परिवार वालों, नेताओं और अधिकारियों के ख़िलाफ़ एजेंसियां खुल कर जांच कर रही हैं। ताकि डर का माहौल बना रहे।
 
उत्तरप्रदेश से वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक जानकार शरत प्रधान का कहना है कि जब-जब मायावती पर सीधा हमला हुआ है तब-तब उन्होंने दलित की बेटी होने की ढाल का इस्तेमाल किया हैं, 'सरकार देखती है कि यह न लगे कि वो मायावती को सीधे निशाना बना रही हैं। अगर वो ऐसा करती है तो फिर मायावती को ये कहने का मौका मिल जाएगा कि मैं दलित की बेटी हूं। और किसी न किसी दलित तबके पर ऐसा कहने से उसका असर भी पड़ता है। वो आरोप झूठ हो या सही हो, लेकिन उसका असर ज़रूर पड़ता हैं। तो बीजेपी बड़ी सावधानी से मायावती को घेरती हैं। और ख़ास तौर से बीजेपी सरकार जान बूझ कर जान को नतीजे तक नहीं ले जाती है। वो शिकंजा कसके छोड़ देते हैं। और तलवार ऊपर लटकी रहती हैं।'
 
बसपा के आगरा ज़िला अध्यक्ष विमल वर्मा इसे मायावती की कमज़ोरी नहीं बल्कि ताक़त बताते हैं, 'मोदी, ईडी से, या सीबीआई से बहनजी डरने वाली नहीं हैं। उन्हें आयरन लेडी का ख़िताब जो दिया गया है वो ऐसे ही नहीं दिया गया है। ये एजेंसियां कुछ नहीं कर पाएंगी। मास लीडर हैं बहनजी। पब्लिक बहनजी के साथ है।'
 
विमल वर्मा दावा करते हैं, '2 अप्रैल 2018 को बहनजी के एक इशारे पर सारे दलित सड़कों पर थे और मोदी सरकार को एससी-एसटी एट्रोसिटी एक्ट को कमज़ोर करने के फ़ैसले को पलटने के लिए मजबूर होना पड़ा।'
 
गौरतलब है कि एससी-एसटी एक्ट को कमज़ोर करने वाले सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के ख़िलाफ़ पूरे देश भर में दलितों का विरोध प्रदर्शन देखने को मिला था। यूपी में भी भीम आर्मी के युवा समर्थक ज़्यादा सक्रिय रहे और उन्होंने भीम आर्मी के नेता चंद्रशेखर आज़ाद रावण की अगुवाई में आंदोलन और विरोध प्रदर्शन किए थे।
 
दो अप्रैल 2018 को हुई हिंसा और आगज़नी में 14 लोगों की मौत हुई थी और 100 से ज़्यादा लोग गिरफ़्तार हुए थे। ऐसे में आंदोलन का और अध्यादेश को सुधारने के केंद्र सरकार के फ़ैसले का श्रेय अकेले बसपा और मायावती को देना सही नहीं होगा।
 
पिछले कुछ सालों में मायावती पर परिवारवाद को लेकर भी आरोप लगे हैं। मायावती से जब कभी भी पार्टी के भविष्य के बारे में सवाल हुए तो उन्होंने कहा की एक दलित ही उनके बाद बसपा की बागडोर संभालेगा। उन्होंने कई मौकों पर यह भी कहा था की वो बसपा में अपने परिवार का परिवारवाद नहीं पनपने देंगी। लेकिन 2019 के चुनावों के बाद शायद उनके सिद्धांतों में बदलाव आया और उन्होंने अपने भाई आनंद कुमार को बसपा का उपाध्यक्ष बनाया और अपने भतीजे आकाश आनंद को नेशनल को-ऑर्डिनेटर का पद दिया है।
 
उत्तरप्रदेश की राजनीति पर क़रीबी नज़र रखने वाले वरिष्ठ पत्रकार शरत प्रधान कहते हैं, 'कांशीराम का परिवार राजनीति में कभी था नहीं। मायावती की असुरक्षा आप उस समय से देखिये जब कांशीराम बीमार पड़े तो मायावती ने उनके परिवार को दूर रखा। वो इस डर से कि कहीं कांशीराम के परिवार वाले पार्टी के राजनीतिक उत्तराधिकारी न बन जाएं, क्योंकि ये राजनीतिक विरासत कांशीराम ने मायावती को दे दी थी। राजनीति में आदमी जब-जब बिना मेहनत किए, विरासत में कुछ पाता है, तो वो उसको बढ़ा नहीं सकता है। फिर वो फिर महज़ विरासत ही रहता है।'
 
इन सबके बाद भी मायावती का अपने कोर मतदाताओं पर प्रभाव नज़र आता है। आगरा के जगदीशपुरा इलाके के 48 साल के हरीश बाबू, जाटव समाज से हैं और टेंट हाउस चलते हैं। वह क्रम से दलित आइकॉन गिनना शुरू करते हैं, 'भीमराव आंबेडकर जी हैं, उनके बाद मान्यवर कांशीराम साहब, फिर माननीय बहन जी आती हैं हमारी।'
 
बहुजन मूवमेंट उनकी जवानी का मूवमेंट है। शायद इसलिए मायावती के वो पक्के समर्थक हैं। चंद्रशेखर आज़ाद के तेवरों का ज़िक़्र करते ही बाबू बसपा के शांत और अनुशासित कैडर की तारीफ़ करने लगते हैं, 'देखिये जो हमारा वोटर है, हमारे वोटर में ऐसा कुछ नहीं है। बहनजी को सड़कों पर निकलने के ज़रूरत नहीं है। सिर्फ़ बहन जी के ऊपर से आदेश करने की आवश्यकता है। जहां बहनजी का आदेश होगा, हमारा वोट वहीं पर जाएगा।'
 
लेकिन क्या बसपा को बदलते ज़माने और बदलते राजनीतिक तौर तरीकों से सीख लेकर अपने आपको बदलने की कोशिश नहीं करनी चाहिए?
 
हरीश बाबू कहते हैं, 'बिना तेवर के चार बार इतने बड़े राज्य का कोई मुख्यमंत्री बन सकता है? जब चुनाव का समय आएगा तब वैसे ही तेज़ तेवर होंगे!'
 
पार्टी के पुराने समर्थक सुधींद्र भदौरिया का मानना है तमाम चुनौतियों और आंकड़ों के गिरते ग्राफ़ के बावजूद बसपा अब भी मायावती के नेतृत्व में पांचवी बार सरकार बनाने का दमखम रखती हैं, उसकी ताक़त अब भी उसका स्थायी वोट है, वे कहते हैं, 'बसपा का 20 से 25 प्रतिशत स्थायी वोट है। या तो वो उठता है, या फिर इतना ही रहता हैं। हम लोग बाबा साहेब आंबेडकर और मान्यवर कांशी राम के सिद्धांतों पर काम करते रहते हैं और करते रहेंगे। इस समय उत्तरप्रदेश में परिवर्तन की लहर चल रही हैं। उत्तरप्रदेश में लोग मांग कर रहे हैं कि बदलाव हो। हमारा यही मानना है कि क़ानून व्यवस्था, विकास और शान्ति, इन सब मामलों में बसपा सबसे मुखर और प्रखर रही हैं। हम शून्य से शिखर तक पहुंचे हैं, हम लोग शिखर पर फिर से पहुंचने की कोशिश करेंगे।'
 
संघ की सोशल इंजीनियरिंग
 
लेकिन भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जिस तरह से देश में जातीय राजनीति की परिभाषा बदलने पर काम कर रही है, उसे देखते हुए बहुजन समाज पार्टी की मुश्किल बढ़ रही है। संघ और बीजेपी नॉन जाटव दलितों को अपने इनक्लूसिव हिंदुत्व एजेंडे से जोड़ रहे हैं। इसकी पुष्टि पिछले तीन चुनावों में पार्टी को मिले मतों से भी हो रही है।
 
2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को 42।03% वोट मिले थे जबकि 2017 के विधानसभा चुनावों में पार्टी को 41।35% वोट मिले और ये बढ़कर 2019 के लोकसभा चुनावों में 49।8% तक जा पहुंचे। इसका काफ़ी श्रेय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की व्यक्तिगत लोकप्रियता को जाता है, लेकिन इसके पीछे बीजेपी और संघ की सोशल इंजीनियरिंग की अपनी भूमिका रही है।
 
बद्री नारायण प्रयागराज के गोविन्द बल्लभ पंत सोशल साइंस इंस्टिट्यूट में प्रोफ़ेसर हैं। उनकी हाल ही में छपी किताब 'रिपब्लिक ऑफ़ हिंदुत्व' में उन्होंने 'बदलती हुई दलित अस्मिता' का विश्लेषण करने की कोशिश की है। उनके मुताबिक संघ अपनी सोशल इंजीनियरिंग में मायावती को पछाड़ रहा है।
 
वे कहते हैं, 'जातीय अस्मिता का परिवर्तन हिंदुत्व अस्मिता में हुआ है, और हो रहा है और वो दोनों कभी-कभी एक साथ चलते हैं, अलग-अलग भी होकर कई बार चलते हैं। संघ ने अपने पिछले 70 साल के कामों से धीरे-धीर इनके बीच जगह बनाई है, और जातीय अस्मिता का एक एक्सटेंशन हिन्दू अस्मिता में करने की कोशिश की है। अधिकतर जातीय नायक कांशीराम जी ने खोजे थे। लेकिन उनकी पुनर्व्याख्या और स्थानांतरण, और उन्हें फिर से नया अर्थ देना, अपने सोशल सामाजिक कार्यों की परियोजनाओं से जोड़ने का काम संघ कर रहा है।'
 
बद्री नारायण मायावती पर भी एक पुस्तक लिख चुके हैं, उनका मानना है कि 2022 के चुनावों में भी मायावती के पास हिंदुत्व मोबिलाइजेशन का जवाब नहीं होगा और इसका घाटा बहुजन मूवमेंट को होगा और बीएसपी की मुश्किलें बढ़ेंगी।
 
यूपी में आम आदमी पार्टी की दावेदारी?
 
मायावती क्यों नहीं इसे भांप पा रही हैं, इसके जवाब में वे कहते हैं, 'मायावती दलितों और बहुजन राजनीति की एक बड़ी नेता हैं, वह काफ़ी प्रभावी भी रही हैं लेकिन दलित समाज के परिवर्तनों और आकांक्षाओं को वह ठीक से भांप नहीं पा रही हैं। जो मोस्ट मार्जिनल, इनविज़िबल दलित हैं, जो उत्तरप्रदेश में 50 से ज़्यादा छोटी छोटी जातियां हैं, उन कम्युनिटीज़ के बीच, संघ पिछले 20 से 30 सालों से काम कर रहा हैं। और मायावती के पूरे एजेंडे में वो लोग कहीं नहीं हैं।'
 
ऐसे में बड़ा सवाल यही है कि क्या मायावती को इन सबकी भनक नहीं है, क्या वह बहुजन मूवमेंट के बिखरने को लेकर सजग नहीं हैं, क्या उन्हें यह नहीं दिख रहा है कि दलितों को बड़े पैमाने पर हिंदुत्व से जोड़ा जा रहा है, उसी हिंदुत्व से जिसने उन्हें सदियों से शोषित रखा है। इसका जवाब मायावती ही दे सकती हैं।
 
15 मार्च, 2021 को कांशीराम की जयंती पर प्रेस कांफ्रेंस में मायावती ने साफ़ साफ़ कहा, 'मीडिया में अपनी राजनीति का खुलासा हम नहीं करते हैं। हम लोग अंदर अंदर लगे हैं। और हम अच्छा रिजल्ट दिखाने का पूरा प्रयास करेंगे।'
 
उत्तरप्रदेश के अमरोहा से बसपा के लोकसभा सांसद दानिश अली का मानना है कि लोग आज भी मायावती शासनकाल क़ानून व्यवस्था की तारीफ़ करते हैं। तो शायद पुरानी उपलब्धियां फिर से जनता को याद दिलाने की ज़रूरत है, इसके साथ साथ पार्टी को अपने संगठन को भी नए सिरे से मज़बूत करने की ज़रूरत है क्योंकि इस बार यूपी की राजनीति में एक नया प्लेयर भी शामिल होने वाला है जिसका अंदाज़ा आम लोगों को होने लगा है।
 
आगरा के जगदीशपुर इलाके में 30 साल के जाटव विजय सोनी लॉकडाउन से पहले दिल्ली के मंदिपुर इलाके में जूते के कारखाने में काम कर रहे थे, उन्होंने कहा, 'केजरीवाल ने लॉकडाउन में हर परिवार को पांच-पांच हज़ार रुपये दिए हैं। स्कूल सुधार दिए हैं। केजरीवाल नंबर-1 सीएम हैं।'
 
जब हमने केजरीवाल को वोट देने के बारे में 35 साल के कमलकांत से पूछा तो उनका कहना था, 'देखो उम्मीद तो रखनी चाहिए। केजरीवाल तो यहां आ चुके हैं।'
 
तो क्या यह आप की हवा है? शायद नहीं। लेकिन चुनाव अब कुछ ही महीने दूर हैं। मायावती की बहुजन समाज पार्टी को जाटव समाज से उठ रही इन आवाज़ों का संज्ञान लेना चाहिए। ये बयान आने वाले समय की कठिन चुनौतियों की ओर इशारा कर रहे हैं।
 
(आगरा से नसीम अहमद और लखनऊ से रमेश वर्मा इनपुट के साथ)
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