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Written By BBC Hindi
Last Updated : बुधवार, 12 फ़रवरी 2020 (10:25 IST)

अरविंद केजरीवालः आईआईटी के ख़ामोश छात्र से दिल्ली के एंग्री यंग मैन तक

अरविंद केजरीवालः आईआईटी के ख़ामोश छात्र से दिल्ली के एंग्री यंग मैन तक - Arvind Kejriwal : from IIT silent student to angry young man
दिलनवाज़ पाशा, बीबीसी संवाददाता
दो अक्तूबर 2012 को हाफ़ बाज़ू की क़मीज़, ढीली पैंट और सर पर 'मैं हूं आम आदमी' की टोपी पहनकर केजरीवाल कांस्टीटयूशन क्लब में मंच पर आए। पीछे मनीष सिसोदिया, प्रशांत भूषण, योगेंद्र यादव, कुमार विश्वास, गोपाल राय और भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ आंदोलन में उनके साथ रहे कई और लोग बैठे थे।
 
राजनीति में आने का ऐलान करते हुए केजरीवाल ने कहा, "आज इस मंच से हम ऐलान करना चाहते हैं कि हां हम अब चुनाव लड़ कर दिखाएंगे। आज से देश की जनता चुनावी राजनीति में कूद रही है और तुम अब अपने दिन गिनना चालू कर दो।"
 
उन्होंने कहा, "हमारी परिस्थिति उस अर्जुन की तरह है जो कुरुक्षेत्र के मैदान में खड़ा है और उसके सामने दो दुविधाएं हैं, एक तो ये कि हार तो नहीं जाउंगा और दूसरा ये कि मेरे अपने लोग सामने खड़े हुए हैं। तब अर्जुन से कृष्ण ने कहा था, हार और जीत की चिंता मत करो, लड़ो।"
 
भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ आंदोलन को राजनीतिक पार्टी में बदलने के बाद केजरीवाल ने न सिर्फ़ चुनाव लड़े और जीते बल्कि तीसरी बार दिल्ली का चुनाव जीतकर उन्होंने जता दिया है कि केजरीवाल के पास ही मोदी मैजिक का तोड़ है।
 
भारतीय राजस्व सेवा के अधिकारी और आईआईटी के छात्र रहे केजरीवाल ने अपनी राजनीतिक ज़मीन 2011 के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में तैयार की थी। लेकिन एक सामाजिक कार्यकर्ता के तौर पर अपनी एक अलग पहचान वो इससे पहले ही बना चुके थे।
 
साल 2002 के शुरुआती महीनों में केजरीवाल भारतीय राजस्व सेवा से छुट्टी लेकर दिल्ली के सुंदरनगरी इलाक़े में एक्टिविज़्म करने लगे।
 
यहीं केजरीवाल ने एक ग़ैर-सरकारी संगठन स्थापित किया जिसे 'परिवर्तन' नाम दिया गया। केजरीवाल अपने कुछ दोस्तों के साथ मिलकर इस इलाक़े में ज़मीनी बदलाव लाना चाहते थे।
 
कुछ महीने बाद दिसंबर 2002 में केजरीवाल के एनजीओ परिवर्तन ने शहरी क्षेत्र में विकास के मुद्दे पर पहली जनसुनवाई रखी। उस वक़्त पैनल में जस्टिस पीबी सावंत, मानवाधिकार कार्यकर्ता हर्ष मंदर, लेखिका अरुंधति राय, सूचना का अधिकार कार्यकर्ता अरुणा राय जैसे लोग शामिल थे।
 
अगले कई साल तक केजरीवाल यूपी की सीमा से लगे पूर्वी दिल्ली के इस इलाक़े में बिजली, पानी और राशन जैसे मुद्दों पर ज़मीनी काम करते रहे।
 
उन्हें पहली बड़ी पहचान साल 2006 में मिली जब 'उभरते नेतृत्व' के लिए उन्हें रेमन मैग्सेसे अवॉर्ड दिया गया।
 
उस वक़्त अरविंद केजरीवाल के साथ जुड़े और अब तक उनके साथ काम कर रहे अमित मिश्र बताते हैं, "अरविंद काफ़ी स्ट्रेट फ़ॉरवर्ड थे। जो काम चाहिए होता था स्पष्ट बोलते थे, किंतु-परंतु की गुंज़ाइश नहीं थी, हाँ, लॉजिकल तर्क वो सुनते थे। उन दिनों हम परिवर्तन के तहत मोहल्ला सभाएँ करते थे। मोहल्ला सभा के दौरान हम लोकल गवर्नेंस पर चर्चा करते थे। हम लोगों की सभा में अधिकारियों को बुलाकर उनसे सवाल करते थे।"
 
अमित याद करते हैं, "अरविंद केजरीवाल उस वक़्त छोटी-छोटी पॉलिसी बनाते थे और अधिकारियों और नेताओं से उनके लिए मिलते थे, भिड़ते भी थे। वो समय लेकर नेताओं से मिलते, उनकी कोशिश रहती थी कि उनके उठाए मुद्दों पर संसद में सवाल पूछा जाए।"
 
केजरीवाल अगले कई साल तक सुंदरनगरी में ज़मीनी मुद्दों पर काम करते रहे। सूचना के अधिकार के लिए चल रहे अभियान में भी उनकी सक्रिय भूमिका रही।
 
अमित कहते हैं, "सुंदरनगरी के लोगों और उनकी समस्याओं को समझने के लिए अरविंद केजरीवाल एक झुग्गी किराए पर लेकर रहे। उन्होंने लोगों की बुनियादी ज़रूरतों को समझा। उनकी पूरी कोशिश यही रहती कि वो लोगों की ज़रूरतों को सरकार की नीतियों में लाएं।"
 
साल 2010 में दिल्ली में हुए कॉमनवेल्थ गेम्स के आयोजन में हुए कथित घोटाले की ख़बरें मीडिया में आने के बाद लोगों में भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ ग़ुस्सा बढ़ रहा था। सोशल मीडिया पर इंडिया अगेंस्ट करप्शन मुहिम शुरू हुई और केजरीवाल इसका चेहरा बन गए। दिल्ली और देश के कई इलाक़ों में भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ जनसभाएँ होने लगी।
 
अप्रैल 2011 में गांधीवादी समाजसेवी अन्ना हज़ारे ने दिल्ली के जंतरमंतर पर भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ जनलोकपाल की माँग को लेकर धरना शुरू किया। मंच पर अन्ना थे तो पीछे केजरीवाल। देश के अलग-अलग हिस्सों से आए नौजवान इस आंदोलन से जुड़ गए थे। हर बीतते दिन के साथ प्रदर्शन में भीड़ और भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ लोगों का ग़ुस्सा बढ़ता जा रहा था।
 
9 अप्रैल को अन्ना ने अचानक अपने अनिश्चितकालीन अनशन को ख़त्म कर दिया। जोशीले युवाओं की एक भीड़ ने हाफ़ शर्ट पहने काली मूँछों वाले एक छोटे-क़द के व्यक्ति को घेर लिया। ये केजरीवाल ही थे। युवा भारत माता की जय और इंक़लाब ज़िंदाबाद के नारे लगा रहे थे। उनसे सवाल कर रहे थे कि अन्ना को अनशन नहीं ख़त्म करना चाहिए और वो ख़ामोश थे।
 
केजरीवाल अब तक भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के आर्किटेक्ट बन चुके थे। अगले कुछ महीनों में उन्होंने 'टीम अन्ना' का विस्तार किया। समाज के हर वर्ग से लोगों को जोड़ा, सुझाव माँगे और एक बड़े जनआंदोलन की परिकल्पना की।
 
फिर अगस्त 2011 में दिल्ली के रामलीला मैदान में अन्ना हज़ारे का जनलोकपाल के लिए बड़ा आंदोलन शुरू हुआ। सर पर मैं अन्ना हूँ कि टोपी लगाए लोगों का हुजूम उमड़ने लगा। मीडिया ने इसे अन्ना क्रांति का नाम दिया। केजरीवाल इस क्रांति का चेहरा बन गए। पत्रकार उन्हें घेरने लगे, टीवी पर उनके इंटरव्यू चलने लगे।
 
लेकिन आंदोलन से वो हासिल नहीं हुआ जो केजरीवाल चाहते थे। अब केजरीवाल ने दिल्ली के अलग-अलग इलाक़ों में बड़ी सभाएँ करनी शुरू की।
 
वो मंच पर आते और नेताओं पर बरसते। उनके कथित भ्रष्टाचार के चिट्ठे खोलते। उनकी छवि एक एंग्री यंग मैन की बन गई, जो व्यवस्था से हताश था और बदलाव चाहता था। देश के हज़ारों युवा उनसे अपने आप को जोड़ रहे थे।
 
और फिर केजरीवाल ने अपना पहला बड़ा धरना जुलाई 2012 में 'अन्ना हज़ारे के मार्गदर्शन में' जंतर-मंतर पर शुरू किया। अब तक उनके और उनके कार्यकर्ताओं के सिर पर 'मैं अन्ना हूं' की ही टोपी थी। और मुद्दा भी भ्रष्टाचार और जनलोकपाल ही था।
 
जनता से सड़कों पर उतरने का आह्वान करते हुए केजरीवाल ने कहा, "जिस दिन इस देश की जनता जाग गई और सड़कों पर उतर कर आ गई तो बड़ी से बड़ी सत्ता को उठाकर फेंक सकती है।"
 
इस धरने में केजरीवाल का हौसला बढ़ाने के लिए अन्ना हज़ारे भी जंतर-मंतर पहुंचे थे।
 
केजरीवाल का वज़न कम होता गया और देश में उनकी पहचान बढ़ती गई। जब केजरीवाल का ये अनशन ख़त्म हुआ तो ये स्पष्ट हो गया कि वो राजनीति में आने जा रहे हैं। ये अलग बात है कि वो बार-बार कहते रहे थे कि वो कभी चुनावी राजनीति में नहीं आएंगे।
 
अब तक सड़क पर संघर्ष को अपनी पहचान बना चुके केजरीवाल ने 10 दिन चला अनशन ख़त्म करते हुए कहा, "छोटी लड़ाई से बड़ी लड़ाई की तरफ़ बढ़ रहे हैं। संसद का शुद्धीकरण करना है। अब आंदोलन सड़क पर भी होगा और संसद के अंदर भी होगा। सत्ता को दिल्ली से ख़त्म करके देश के हर गांव तक पहुंचाना है।"
 
केजरीवाल ने साफ़ कर दिया कि अब वो पार्टी बनाएंगे और चुनावी राजनीति में उतरेंगे। उन्होंने दावा किया था, "ये पार्टी नहीं, ये आंदोलन होगा, यहां कोई हाई कमांड नहीं होगा।"
 
केजरीवाल राजनीति में आने का निर्णय सुना रहे थे, और प्रदर्शन में शामिल भ्रष्टाचार विरोधी कार्यकर्ताओं के चेहरों के भाव बदल रहे थे। कई कार्यकर्ताओं ने जहां इस फ़ैसले को स्वीकार किया और आगे की लड़ाई के लिए अपने आप को तैयार किया तो कई ऐसे भी थे जिन्होंने उनके इस फ़ैसले पर सवाल उठाए।
 
केजरीवाल के राजनीति में आने के फ़ैसले को याद करते हुए अमित कहते हैं, "शुरुआत में अरविंद हमेशा कहते थे कि मेरा राजनीति में आने का कोई इरादा नहीं हैं। वो कहते थे कि अगर अस्पताल में डॉक्टर इलाज नहीं करते तो इसका मतलब ये नहीं है कि हम डॉक्टर बन जाएं। लेकिन जब जनलोकपाल आंदोलन के दौरान हर ओर से निराशा मिली तो अरविंद ने ये निर्णय लिया कि अब राजनीति में आना ही होगा।"
 
लेकिन केजरीवाल कभी राजनीति में नहीं आना चाहते थे। आईआईटी में उनके साथ रहे उनके दोस्त राजीव सराफ़ कहते हैं, "कॉलेज के टाइम में हमने कभी राजनीति पर बात नहीं की। मुझे याद नहीं आता कि चार साल में हमने कभी भी राजनीति पर कोई बात की हो। जब अरविंद को हमने राजनीति में देखा तो ये काफ़ी हैरान करने वाला था।"
 
सराफ़ कहते हैं, "लेकिन उनकी अपनी यात्रा रही है। कॉलेज के बाद वो कोलकाता में नौकरी कर रहे थे। जहां वो मदर टेरेसा के संपर्क में आए। इसके बाद वो आईआरएस में गए और वहाँ उन्होंने देखा कि काफ़ी भ्रष्टाचार है। मुझे लगता है कि राजनीति में उनका एक लॉजीकल कनक्लूज़न था, ऐसा नहीं था कि उन्होंने तय कर रखा था कि राजनीति में आना है।"
 
भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ आंदोलन में केजरीवाल की छवि एंग्री यंग मैन की बनी लेकिन कॉलेज के दिनों में वो शांत स्वभाव के ख़ामोश युवा थे।
 
सराफ़ याद करते हैं, "जब हम कॉलेज में थे तब अरविंद काफ़ी शर्मीला और शांत था। हम साथ ही घूमते थे। हमने कभी उसे बहुत ज़्यादा बोलते नहीं देखा था। अन्ना आंदोलन के बाद से हमने उनकी यंग एंग्री मैन की छवि देखी है। और ये उनके कॉलेज दिनों के बिलकुल विपरीत है। उस समय में वो शांत रहते थे, लोग वक़्त के साथ बदलते हैं, केजरीवाल में भी बदलाव आया है।"
 
26 नवंबर 2012 को केजरीवाल ने अपनी पार्टी के विधिवत गठन की घोषणा की। केजरीवाल ने कहा कि उनकी पार्टी में कोई हाई कमान नहीं होगा और वो जनता के मुद्दों पर जनता के पैसों से चुनाव लड़ेंगे।
 
केजरीवाल ने राजनीति का रास्ता चुना तो उनके गुरू अन्ना हज़ारे ने भी कह दिया कि वो सत्ता के रास्ते पर चल पड़े हैं।
 
शुरुआती दिनों में अरविंद को जो मिल रहा था उसे वो पार्टी से जोड़ रहे थे। उनकी ये संगठनात्मक क्षमता ही आगे चलकर उनकी सबसे बड़ी ताक़त बनी। केजरीवाल ने ऐसे स्वयंसेवक जोड़े जो भूखे रहकर भी उनके लिए काम करने के लिए तैयार थे। लाठी डंडे खाने के लिए तैयार थे।
 
अंकित लाल इंजीनियर की नौकरी छोड़कर जनलोकपाल आंदोलन से जुड़े थे और जब केजरीवाल ने पार्टी बनाई तो इसी में शामिल हो गए। अंकित कहते हैं, "केजरीवाल अपने स्वयंसेवकों पर भरोसा करते हैं और स्वंयसेवक उन पर। यही पार्टी की सबसे बड़ी ताक़त है।"
 
अभी आम आदमी पार्टी में सोशल मीडिया रणनीतिकार अंकित कहते हैं, "मैं एक साधारण इंजीनियर था, अरविंद ने मुझ पर भरोसा किया और सोशल मीडिया टीम बनाने की ज़िम्मेदारी दे दी। अरविंद ने अपने वॉलंटियर्स पर विश्वास किया तो उन्होंने भी पार्टी में अपना जी और जान लगा दी।"
 
इन्हीं स्वयंसेवकों के दम पर केजरीवाल ने 2013 में दिल्ली विधानसभा चुनाव लड़ा। राजनीति में पदार्पण करने वाली उनकी पार्टी ने 28 सीटें जीतीं। स्वयं केजरीवाल ने नई दिल्ली सीट से तत्कालीन सीएम शीला दीक्षित को पच्चीस हज़ार से अधिक वोटों से हराया। लेकिन उन्हें सरकार इन्हीं शीला दीक्षित की कांग्रेस पार्टी के साथ मिलकर बनानी पड़ी।
 
केजरीवाल दिल्ली मेट्रो से बैठकर शपथ लेने के लिए रामलीला मैदान पहुंचे। जिस रामलीला मैदान में वो अन्ना के साथ अनशन पर बैठे थे वही अब उनकी संविधान की शपथ का गवाह बन रहा था।
 
शपथ लेने के बाद केजरीवाल ने भारत माता की जय, इंक़लाब ज़िंदाबाद और वंदे मातरम का नारा लगाया और कहा, "ये अरविंद केजरीवाल ने शपथ नहीं ली है, आज दिल्ली के हर नागरिक ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली है। ये लड़ाई अरविंद केजरीवाल को मुख्यमंत्री बनाने के लिए नहीं थी। ये लड़ाई सत्ता जनता के हाथ में देने के लिए थी।"
 
अपनी जीत को क़ुदरत का करिश्मा बताते हुए केजरीवाल ने ईश्वर, अल्लाह और भगवान का शुक्रिया अदा किया।
 
शपथ लेने के कुछ दिन बाद ही केजरीवाल दिल्ली पुलिस में कथित भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ रेल-भवन के बाहर धरने पर बैठ गए। दिल्ली की ठंड में लिहाफ़ में दुबके केजरीवाल जब भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ बोले तो जनता को लगा कि कोई है जो उनकी बात कर रहा है।
 
केजरीवाल की ये सरकार सिर्फ़ 49 दिन ही चल सकी। लेकिन इन 49 दिनों में दिल्ली ने राजनीति का एक नया युग देख लिया। केजरीवाल अपने सार्वजनिक भाषणों में भ्रष्ट अधिकारियों का वीडियो बनाने का आह्वान करते।
 
केजरीवाल जल्द से जल्द जनलकोपाल बिल पारित कराना चाहते थे। लेकिन गठबंधन सरकार में साझीदार कांग्रेस तैयार नहीं थी। अंततः 14 फ़रवरी 2014 को केजरीवाल ने दिल्ली के सीएम पद से इस्तीफ़ा दे दिया और फिर सड़क पर आ गए।
 
केजरीवाल ने कहा, "मेरे को अगर सत्ता का लोभ होता, तो मुख्यमंत्री पद नहीं छोड़ता। मैंने उसूलों पर मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़ी है।"
 
कुछ महीने बाद ही लोकसभा चुनाव होने थे। केजरीवाल बनारस पहुँच गए, नरेंद्र मोदी को चुनौती देने। अपने नामांकन से पहले दिए भाषण में उन्होंने कहा, "दोस्तों मेरे पास तो कुछ भी नहीं हैं, मैं तो आपमें से ही एक हूं, ये लड़ाई मेरी नहीं है, ये लड़ाई उन सबकी है जो भ्रष्टाचार मुक्त भारत का सपना देखते हैं।"
 
बनारस में केजरीवाल तीन लाख सत्तर हज़ार से अधिक मतों से हारे। उन्हें पता चल गया था कि राजनीति में लंबी रेस के लिए पहले छोटे मैदान में प्रैक्टिस करनी होगी। और उन्होंने फिर दिल्ली में ही अपना दिल लगा दिया।
 
निराश पार्टी कार्यकर्ताओं के लिए एक बयान जारी कर केजरीवाल ने कहा, "हमारी पार्टी अभी नई है, कई स्ट्रक्चर ढीले हैं। हम सबको मिल कर ये संगठन तैयार करना है। आने वाले समय में हम मिलकर संगठन को मज़बूत करेंगे मुझे उम्मीद है ये संगठन इस देश को दोबारा आज़ाद कराने में बड़ी भूमिका निभाएगा।"
 
केजरीवाल ने बिल्कुल आम आदमी का हुलिया अपनाया। वो सादे कपड़े पहन वैगन आर कार में चलते। धरना देते, लोगों के बीच सो जाते।
 
इसी दौरान एक वीडियो जारी कर केजरीवाल ने कहा, "मैं आपमें से एक हूं, मैं और मेरा परिवार आपके ही जैसे हैं, आपकी ही तरह रहते हैं, मैं और मेरा परिवार आपकी ही तरह इस सिस्टम के अंदर जीने की कोशिश कर रहे हैं।"
 
और इसी दौरान खाँसते हुए केजरीवाल का मफ़लरमैन स्वरूप सामने आया। गले में मफ़लर डाले केजरीवाल को दिल्ली में जहां जगह मिलती वहीं जनसभा कर देते।
 
दिल्ली के लिए हुए विधानसभा चुनावों में केजरीवाल ने दिल्ली की जनता से पूर्ण बहुमत माँगा और जनता ने उन्हें ऐतिहासिक जीत दी। 70 में से 67 जीत कर केजरीवाल ने 14 फ़रवरी 2015 को फिर दिल्ली के मुख्यमंत्री की शपथ ली।
 
इस बार उनके पास पूर्ण से भी ज़्यादा बहुमत था। वादे पूरे करने के लिए पूरे पाँच साल थे। लेकिन जिस जनलोकपाल को लाने का उन्होंने वादा किया था वो नहीं आ सका।
 
पाँच साल उन्होंने दिल्ली की स्वास्थ्य, शिक्षा और अन्य सार्वजनिक सेवाओं पर काम करने में लगाए। बीच-बीच में वो केंद्र सरकार पर सहयोग न करने का आरोप लगाते रहे। बिजली-पानी मुफ़्त करने जैसी लोकलुभावन योजनाएँ लागू कीं। बार-बार उन्होंने अपने आप को ईमानदारी का सर्टिफ़िकेट दिया।
 
लेकिन इस सबके बीच भ्रष्टाचार और जनलोकपाल का मुद्दा कहीं खो गया। दिल्ली से कितना भ्रष्टाचार कम हुआ है ये दिल्ली वाले जानते हैं। जनलोकपाल का तो अब बहुत से लोगों को नाम भी याद नहीं।
 
और जिन केजरीवाल ने कहा था कि वो कभी राजनीति में नहीं आएँगे वो अब तीसरी बार मुख्यमंत्री बनने जा रहे हैं। उन्होंने कहा था कि वो आम आदमी की तरह रहेंगे, लाल बत्ती का इस्तेमाल नहीं करेंगे। अब वो दिल्ली में आलीशान मुख्यमंत्री निवास में रहते हैं, वैगन आर की जगह लग्ज़री कार ने ले ली है।
 
जिस पार्टी का गठन करते हुए उन्होंने कहा था कि इसमें कोई हाई कमान नहीं होगा अब वही उसके अकेले हाई कमान हैं। पार्टी में जिन नेताओं का क़द उनके बराबर हो सकता था वो सब एक-एक करके चले गए या निकाल दिए गए।
 
अब केजरीवाल 51 साल के हैं। देश की राजनीति में बड़ा क़दम रखने के लिए उनके पास अनुभव भी है और आगे बहुत वक़्त भी।
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