रेहान फ़ज़ल, बीबीसी संवाददाता
योगी आदित्यनाथ से एक साल छोटे 48 वर्षीय अखिलेश यादव उन्हें वापस गोरखपुर भेजने का मंसूबा लेकर चुनाव मैदान में उतरे थे। लेकिन ऐसा हो नहीं पाया।
बीजेपी अपना 2017 का प्रदर्शन तो नहीं दोहरा सकी लेकिन बड़ा बहुमत लाकर 1985 के चुनाव के बाद पहली ऐसी पार्टी बनी जिसने उत्तर प्रदेश में दो लगातार चुनाव जीते हों।
अखिलेश यादव के नेतृत्व में समाजवादी पार्टी ने अब तक तीन चुनाव लड़े हैं 2017 का विधानसभा चुनाव, 2019 का लोकसभा चुनाव और 2022 का विधानसभा चुनाव और तीनों में उनको उनको उम्मीद के मुताबिक़ कामयाबी नहीं मिली।
वर्ष 2012 का चुनाव उन्होंने ज़रूर जीता था लेकिन वो चुनाव उनके पिता मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व में लड़ा गया था।
अखिलेश यादव के आलोचकों का कहना है कि इस चुनाव में उन्होंने अपनी ग़ैर राजनीतिक टीम पर ज़रूरत से ज़्यादा भरोसा किया। रणनीति के मामले में वो अपने पिता का मुक़ाबला नहीं कर पाए।
पूरे चुनाव प्रचार के दौरान उन्होंने 'वन मैन आर्मी' की तरह काम किया और अपने पिता की तरह जनेश्वर मिश्र, रेवती रमण सिंह, माता प्रसाद पाँडे, बेनी प्रसाद वर्मा और आज़म ख़ाँ जैसा दूसरी पंक्ति का नेतृत्व देना तो दूर उसके आसपास भी नहीं फटके।
मुलायम सिंह का गज़ब का राजनीतिक प्रबंधन
मशहूर पत्रकार और द प्रिंट के संपादक शेखर गुप्ता ने कई साल पहले मुलायम सिंह यादव के लिए 'घुटा हुआ राजनीतिज्ञ' शब्द का प्रयोग किया था।
ये मुलायम सिंह के राजनीतक प्रबंधन का ही बूता था कि वर्ष 2012 में उन्होंने कन्नौज से अपनी बहू और अखिलेश यादव की पत्नी डिम्पल यादव की जीत सुनिश्चित कराई थी, वह भी निर्विरोध जो कि कम से कम आज की भारतीय राजनीति में कल्पना भी नहीं की जा सकती।
उत्तर प्रदेश की राजनीति पर पैनी नज़र रखने वाली हिंदुस्तान टाइम्स की स्थानीय संपादक सुनीता एरॉन अपनी किताब 'अखिलेश यादव विंड्स ऑफ़ चेंज' में लिखती हैं, "किसी भी राजनीतिक दल ने उनके ख़िलाफ़ अपना उम्मीदवार खड़ा नहीं किया, यहाँ तक कि उनकी धुर विरोधी मायावती ने भी नहीं। ये मात्र संयोग नहीं था कि बीजेपी ने डिंपल के ख़िलाफ़ अपने उम्मीदवार के रूप में जगदेव यादव को चुना था लेकिन वो अपना पर्चा भरने के लिए समय से ही नहीं पहुंच पाए।"
मुलायम सिंह की तुलना में अखिलेश अनुभवहीन
एक ज़माने में मुलायम सिंह यादव के काफ़ी नज़दीक रहे और हाल ही में समाजवादी पार्टी छोड़ कर भारतीय जनता पार्टी में शामिल हुए नरेंद्र भाटी कहते हैं, "मुलायम सिंह और अखिलेश यादव के नेतृत्व की कोई तुलना ही नहीं है। मुलायम खेत खलियान से निकल कर राजनीति में पहुंचे थे। उन्होंने ग़रीबी को बहुत क़रीब से देखा था। उन्हें हर फ़न का ज्ञान था। वे पार्टी का हर बड़ा फ़ैसला वरिष्ठ नेताओं से सलाह मशविरा करके लेते थे। वे जानते थे कि पार्टी के लिए कार्यकर्ताओं की क्या अहमियत है।"
"दूसरी तरफ़ अखिलेश आस्ट्रेलिया से पढ़ कर आने के बाद नेता बने हैं। उन्होंने राजनीति का कोई तजुर्बा नहीं लिया। दो चार सौ किलोमीटर साइकिल चला कर भला कोई नेता बनता है। उन्हें नहीं पता कि वोट कहाँ से निकलता है। 2017 और 2019 का चुनावी अनुभव बताता है कि सपा 'सिंगल हैंड' पार्टी बन चुकी है। संसदीय बोर्ड अब नहीं बचा है।"
"उन्होंने चुनाव में उन लोगों के कहने पर टिकट दिए हैं जिनका राजनीति से दूर दूर का लेनादेना नहीं है। पहले उन्होंने मुख़्तार अंसारी को पार्टी में शामिल करने का विरोध किया था लेकिन बाद में उन्होंने उनके परिवार को पार्टी में शामिल कर लिया।"
अखिलेश की गठबंधन राजनीति पर सवाल
पिछले तीन चुनावों से अखिलेश ने गठबंधन कर सत्ता हासिल करने की कोशिश की है। उन्होंने 2017 में कांग्रेस से और फिर 2019 में पार्टी की मुख्य विरोधी रहीं मायावती से चुनावी गठबंधन किया।
कई राजनीतिक विश्लेषकों ने सत्ता में रहते हुए कांग्रेस से गठबंधन करने के अखिलेश के फ़ैसले पर सवाल उठाए। उनका मानना था कि इससे ये संदेश गया कि अखिलेश में अकेले अपनी उपलब्धियों को लेकर जनता के सामने जाने का आत्मविश्वास नहीं है।
2017 में पहली बार हुआ कि उनकी पार्टी को किसी चुनाव में 50 से भी कम सीटें मिलीं। उनके पिता मुलायम सिंह यादव न तो कांग्रेस के साथ उनके गठबंधन के प्रति बहुत उत्साहित थे और न ही 2019 में बहुजन समाज पार्टी के साथ गठबंधन को लेकर। यहाँ तक कि लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान उन्होंने नरेंद्र मोदी को वापस जीत कर आने की शुभकामनाएं दे दीं।
वे उस चुनाव में मोदी की जीत की कामना कर रहे थे जिसमें राजनीतिक रूप से प्रासंगिक रहने के लिए उनके बेटे अखिलेश ने अपना सब कुछ दाँव पर लगा दिया था।
क्या उस मौके पर मुलायम सिंह यादव की ज़ुबान फिसल गई थी? लेकिन उत्तर प्रदेश की राजनीति पर नज़र रखने वाले कई राजनीतिक विश्लेषक ऐसा नहीं मानते।
उनका मानना है कि वो इस टिप्पणी के ज़रिए अपने बेटे से कहना चाह रहे थे कि बहुजन समाज पार्टी के साथ गठबंधन से वे बहुत खुश नहीं हैं। बहरहाल बहुत आक्रामक चुनाव प्रचार के बावजूद अखिलेश चुनाव हारे और गठबंधन में पराजित हो जाने के बाद मायावती ने गठबंधन को तोड़ने के लिए ख़ुद ही पहल की।
दलबदलुओं को टिकट देना लोगों के गले नहीं उतरा
इस चुनाव में अखिलेश की कोर टीम में शामिल थे उदयवीर सिंह, राजेंद्र चौधरी, अभिषेक मिश्रा और नरेश उत्तम पटेल। उनके फीडबैक के आधार पर समाजवादी पार्टी में टिकट बाँटे गए थे। कुछ सीटों पर समाजवादी पार्टी ने नए उम्मीदवार उतारे।
नतीजा ये रहा कि या तो उन्होंने पार्टी के अधिकृत उम्मीदवार के ख़िलाफ़ काम किया या वो अपनी पार्टी छोड़ कर दूसरी पार्टी के सदस्य बन गए जिससे पार्टी के उम्मीदवार को हार का मुँह देखना पड़ा।
चुनाव प्रचार में भीड़ जमा करने के बावजूद मीडिया उनके समर्थन में उतरने से कतराता नज़र आया। आखिरी समय पर बीजेपी से आए कुछ मंत्रियों को न सिर्फ़ अपनी पार्टी में शामिल करना बल्कि उन्हें टिकट देना भी लोगों के गले नहीं उतरा। स्वामी प्रसाद मौर्य ख़ुद फ़ाज़ीलनगर से चुनाव हार गए। जब उनकी भाभी अपर्णा यादव ने समाजवादी पार्टी छोड़ कर बीजेपी का दामन पकड़ा तो उन्होंने उन्हें रोकने की कोई कोशिश नहीं की।
छोटे दलों से गठबंधन के अपेक्षित परिणाम नहीं
चुनाव प्रचार के दौरान उनके दूसरे रिश्तेदारों ने भी नाममात्र का प्रचार किया। उनके चाचा शिवपाल सिंह ने अपने चुनाव क्षेत्र के अलावा एक दो चुनाव रैलियाँ ही संबोधित कीं।
इस चुनाव में अखिलेश मुलायम सिंह को चुनाव प्रचार के लिए नहीं मना सके। उन्होंने सिर्फ़ दो चुनाव क्षेत्रों में प्रचार किया। हालांकि वो 84 वर्ष के हो गए हैं लेकिन मंच पर उनकी उपस्थित मात्र सामाजवादी पार्टी के कार्यकर्ताओं में नया जोश भर सकती थी।
शायद अपने परिवार वालों को चुनाव प्रचार से अलग रख कर अखिलेश शायद बीजेपी के उन पर लगाए परिवारवाद के आरोपों को कुंद करने की कोशिश कर रहे थे लेकिन इसका उन्हें राजनीतिक नुकसान हुआ।
बीजेपी का अनुसरण करते हुए अखिलेश ने कुछ छोटी पार्टियों जैसे ओम प्रकाश राजभर की पार्टी सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी, केशवदेव मौर्य के महान दल, संजय सिंह चौहान की जनवादी पार्टी और अपना दल (के) और राष्ट्रीय लोक दल के साथ चुनावी समझौता किया, बावजूद इसके उनकी झोली में नॉन यादव पिछड़े वोट नहीं आए जिसकी उन्होंने उम्मीद लगा रखी थी। उनके पिता के नज़दीकी रहे एक शख़्स ने कटाक्ष भी किया कि "बकरी के दूध से कहीं बाल्टी भरती है?"
मुद्दों को सड़क पर नहीं ला सके अखिलेश यादव
अखिलेश यादव ने सोचा कि महज़ पिछड़ी जातियों को अधिक टिकट देने से वो उनका समर्थन लेने में सफल हो जाएंगे। उनके पास जाति जनगणना करने और पिछड़ी हुई ओबीसी जातियों को आरक्षण में कोटा देने के लिए आँदोलन करने का विकल्प था लेकिन उन्होंने इस दिशा में कोई पहल करने की मंशा नहीं दिखाई।
ये देखते हुए कि मायावती के दलित समर्थन में कमी आ रही है, अखिलेश के पास दलित मतदाताओं को भी अपनी तरफ़ करने का विकल्प भी था।
हाथरस में एक दलित महिला के बलात्कार और हत्या के मामले को ज़ोरशोर से उठा कर इस तरह की पहल की जा सकती थी लेकिन अखिलेश यादव ने इस मामले में प्रियंका गाँधी को लीड लेने दी। इसके अलावा उत्तर प्रदेश में अपराध की कई बड़ी घटनाएं हुईं लेकिन महज़ कुछ ट्वीट्स करने, प्रेस रिलीज़ जारी करने और इक्का दुक्का संवाददाता सम्मेलन करने के अलावा उन्होंने इन मामलों में अतिरिक्त रुचि नहीं दिखाई।
समाजवादी पार्टी ने न तो इसे बड़ा मुद्दा बनाया और न ही उसके कार्यकर्ता सड़कों पर उतरे। समाजवादी पार्टी के हल्कों में भी इस बात पर आश्चर्य प्रकट किया जाता रहा कि अखिलेश लखनऊ से बाहर क्यों नहीं निकलते हैं?
अखिलेश की उस सोच पर भी सवाल उठे जिसमें सारा ज़ोर चुनाव से दो तीन महीने पहले के चुनाव प्रचार पर था। मुलायम सिंह यादव की सोच इससे अलग थी।
पश्चिम उत्तर प्रदेश की रणनीति हुई फ़ेल
चुनाव परिणाम का बारीकी से अध्ययन किया जाए तो पता चलेगा कि अखिलेश का गठबंधन पश्चिम उत्तर प्रदेश में उतना अच्छा नहीं कर पाया जितनी की उससे उम्मीद की जा रही थी।
इसमें कोई संदेह नहीं कि जाटों में असंतोष होने को बावजूद वो इसका राजनीतिक फ़ायदा नहीं उठा पाए। जाटों के वोट पर ज़रूरत से ज़्यादा ज़ोर ने सैनी और गुजरों को समाजवादी पार्टी से दूर कर दिया और उन्होने बीजेपी को वोट दिया।
राजनीतिक प्रेक्षकों का मानना है कि जाट बहुल चुनाव क्षेत्रों में मुस्लिम उम्मीदवारों को खड़ा करना जाटों को पसंद नहीं आया और उनके पास बीजेपी के पास जाने के अलावा कोई चारा नहीं रहा।
इन समीकरणों को मुलायम सिंह यादव का परिपक्व दिमाग़ नज़रअंदाज़ नहीं कर सकता था। इसके अलावा चुनाव प्रचार के दौरान अखिलेश का जिन्ना और पाकिस्तान का ज़िक्र करने से भी बीजेपी के पक्ष में वोटों का ध्रुवीकरण हुआ।
तमाम दिक्कतों के बाद वोट प्रतिशत में बढ़ोतरी
चुनाव प्रचार के दौरान न सिर्फ़ राजनीतिक विश्लेषक बल्कि नाम न बताए जाने की शर्त पर कुछ बीजेपी नेता भी मान रहे थे कि उत्तर प्रदेश का चुनाव योगी आदित्यनाथ के लिए एक कड़ा चुनाव होगा।
इस द्विध्रुवी चुनाव प्रचार से ये संदेश गया कि बीजेपी को इस चुनाव में 2017 के चुनाव की तुलना में ख़ासी मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा।
चुनाव परिणाम से साफ़ ज़ाहिर हुआ कि सत्ता में रहने का नुकसान होने के बावजूद बीजेपी के समर्थन बेस में मामूली दरार ही पड़ी जबकि तमाम परेशानियों के बावजूद अखिलेश विपक्ष के वोटों का बड़ा हिस्सा अपने पक्ष में करने में सफल रहे।
2022 के चुनाव में बीजेपी का वोट शेयर 2019 के चुनाव की तुलना में कम हुआ है। दूसरे बहुजन समाज पार्टी के चुनाव प्रचार में ज़ोरशोर से हिस्सा न लेने के कारण आभास मिला कि समाजवादी पार्टी को पूरे राज्य में अच्छा ख़ासा समर्थन मिल रहा है। उन्होंने कड़हल विधानसभा क्षेत्र से बीजेपी के शक्तिशाली उम्मीदवार एसपीएस बघेल को 60 हज़ार वोटों के बड़े अंतर से हराया।
अखिलेश को इस बात से संतोष ज़रूर हो सकता है कि वो देश के सबसे बड़े राज्य में बीजेपी को चुनौती देने वाले अकेले राजनेता के रूप में उभरे। उन्होंने कांग्रेस और बहुजन समाज पार्टी को राज्य में एक तरह से अप्रासंगिक बना दिया। उनके वोटों में इतनी बढ़ोतरी हुई कि वो अपने वोट शेयर को 21 फ़ीसदी से बढ़ा कर क़रीब 34 फ़ीसदी तक ले गए।
उनकी सीटों में तीन गुना इज़ाफ़ा हुआ और वो 47 से बढ़ कर 124 हो गईं, लेकिन इतना भी सरकार बनाने के लिए काफ़ी नहीं था। अखिलेश वो चुनाव हारे जिसे वो बेहतर राजनीतिक समझ से जीत सकते थे।