'सम्यक वाक क्षमता' का परिचय तो कुछ देश ही दे पाते हैं हम चीन, जापान या अमेरिका की बात कर सकते हैं। हमारे यहाँ सरकार जिस तरह की बयानबाजी करती है उससे देशहित कम सत्ताहित ही ज्यादा नजर आते हैं या फिर कहें की यह मूढ़ता की हद या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दुरुपयोग है।
मुंबई ही नहीं अब तक देश के भीतर कहीं भी हुए हमले में सत्तापक्ष और सत्ताहीन पक्ष ने जो बयान जारी किए उनका विश्लेषण किया जाए तो यह समझने में देर नहीं लगेंगी कि देश की जनता इन बयानों से कितनी खफा और जुदा हो चली है। इन बयानों में देश के लिए पीड़ा कम राजनीति की बू ही अधिक थी।
हम कहते रहे हैं कि पाकिस्तान को आतंकवादी राष्ट्र घोषित करो। पाक आतंक को पोषित करने वाला राष्ट्र है, लेकिन हाल ही में मनमोहन सिंह ने कहा कि भारत-पाक दोनों ही आतंक के सताए हुए है। दूसरी ओर एक तरफ हम कहते हैं कि आतंकवादियों से किसी भी प्रकार की कोई वार्ता नहीं की जा सकती जब तक की वे हिंसा का मार्ग नहीं छोड़ते, तब विदेश मंत्री कृष्णा ने तालिबान के साथ राजनीतिक स्तर पर बात करने का प्रस्ताव देकर यह जता दिया की भारत की कोई विदेश नीति नहीं है।
ऐसे कई बयान है जो उस भयभीत गीदड़ या कुत्ते की तरह है जो पूँछ भी हिलाते रहते हैं और भोंकते भी रहते हैं। वे तय नहीं कर पाते हैं कि हमें करना क्या है। सिर्फ बयान ही देना है या कुछ करना भी है।
बयान ही देना है तो कम से कम सोचो तो सही। बयानों में एकरूपता तो लाओ, अरे शहीदों के शवों पर तो राजनीति मत करो, जरा उन निर्दोष लोगों का भी सोचो जो मुम्बई हमलों में मारे गए। अनाथ बच्चे और विधवाओं को कुछ लाख देकर आपने अपने फर्ज की इतिश्री कर ली, इस तरह की कई शिक्षाएँ अखबारों के संपादकीय पेज पर मिलेगी, लेकिन ये सिर्फ शिक्षाएँ हैं, जो पेज को किसी भी तरह काला-पीला करने के लिए है, क्योंकि आज 26 नवंबर का दिन है।
अखबारों के पेज भी कई तरह के विरोधाभासी बयानों से भरे रहते हैं। हमारे देश का कोई अधिकृत बयान नहीं होता। वित्तमंत्री कुछ कहता हैं, गृहमंत्री कुछ और प्रधानमंत्री प्रसंगवश कभी भी मीडिया के सामने आकर कुछ भी कहने के लिए स्वतंत्र हैं। मीडिया उस पर बहस का आयोजन कराती रहेगी और गोल टेबल की कुर्सी पर बैठे बुद्धिजीवी(?) उसकी समीक्षा करके स्वयं को देश के सामने प्रस्तुत कर खुश हो लेंगे। आखिर मीडिया में सभी छाए रहना चाहते हैं।
9/11 की घटना के बाद ही अमेरिका के राष्ट्रपति बुश ने जो बयान जारी किया था उससे देश की जनता का मनोबल निश्चित ही बढ़ा होगा, क्योंकि यह आम धारणा है कि अमेरिकी राष्ट्रपति के कहने को करना ही समझा जाए।
26/11 के बाद और इसके पहले हुए आतंकवादी हमलों ने भारतीय जनता के मनोबल को उतना नहीं तोड़ा जितना सत्तापक्ष और विपक्ष की तूतू-मैंमै ने तोड़कर रख दिया। हर कोई सोचने पर मजूबर था कि देश का नेतृत्व ऐसे लोगों के हाथों में हैं जो आतंकवादियों से कहीं ज्यादा खतरा बने हुए हैं।
बयानबाज लोग देश की सीमाओं के प्रति कभी गंभीर नहीं रहते। क्या हमारा नेतृत्व जानता हैं कि इन विरोधाभासी और उटपटाँग बयानों के कारण ही हमारे देश का माहौल और भूगोल बदलता जा रहा है।