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बेकल उत्साही की ग़ज़ल
पेशकश : अज़ीज़ अंसारी भीतर बसने वाला ख़ुद बाहर की सैर करे, मौला ख़ैर करे इक सूरत की चाह में फिर काबे को दैर करे, मौला ख़ैर करेइश्क़विश्क़ ये चाहतवाहत मनका बहलावा फिर मनभी अपना क्या यार ये कैसा रिश्ता जो अपनों को ग़ैर करे, मौला ख़ैर करेरेत का तोदा आंधी की फ़ौजों पर तीर चलाए, टहनी पेड़ चबाएछोटी मछली दरिया में घड़ियाल से बैर करे, मौला ख़ैर करेसूरज काफ़िर हर मूरत पर जान छिड़कता है, बिन पांव थकता है मन का मुसलमाँ अब काबे की जानिब पैर करे, मौला खैर करेफ़िक्र की चाक पे माटी की तू शक्ल बदलता है, या ख़ुद ही ढलता है '
बेकल' बे पर लफ़्ज़ों को तख़यील का तैर करे, मौला ख़ैर करे