ग़ज़ल- दाग़ दहलवी का कलाम
आज राही जहाँ से 'दा़ग़' हुआखाना-ए-इश्क' बे चिराग़ हुआऐसी क्या बू समा गई तुम को हम से जो इस क़दर दिमाग़ हुआबाद उस्ताद-ए-जौक़ के क्या-क्या शोहरत अफ़जा कलाम-ए-दाग़ हुआ **** **** **** **** **** आखिर को इश्क़ क़ुफ्र से ईमान हो गया मैं बुत परस्तीयों से मुसलमान हो गया रिन्दान-ए-बेरिया को है सोहबत किसे नसीब ज़ाहिद भी हम में बैठ के इंसान हो गया लो ऐ बुतो सुनों ! कि 'दाग़'-ए-सनम परस्त मस्जिद में जा के आज मुसलमान हो गया **** **** **** **** **** चुप रहेंगे वह हया से कब तक गुस्सा इलजाम से तो आएगा।