• Webdunia Deals
  1. सामयिक
  2. विचार-मंथन
  3. द कश्मीर फाइल्स
  4. Decoding Kashmir Files

क्या चाहते हैं कश्मीरी पंडित : अपना घर, अपनी जगह, लेकिन सुरक्षा के साथ, रोजगार भी हो पास

क्या चाहते हैं कश्मीरी पंडित : अपना घर, अपनी जगह, लेकिन सुरक्षा के साथ, रोजगार भी हो पास - Decoding Kashmir Files
मैं कश्मीरी पंडित डीसी कौल हूं। 8 अप्रैल 1990 को मुझे आधी रात को श्रीनगर का अपना घर और अपनी हर चीज छोड़कर आना पड़ा.. वर्तमान में मैं सेवानिवृत्त Automobile engineer हूं। 1999 से मैं मध्यप्रदेश के इंदौर शहर में रह रहा हूं। मेरी कहानी, मेरी जुबानी... 
आतंक की शुरुआत
मैं यूनियन कार्बाइड, श्रीनगर में नौकरी करता था, माता पिता के साथ रहने लगा.... इससे पहले जम्मू में था...1988 के बाद से लग रहा था कि कुछ गड़बड़ चल रही है लेकिन इतना कुछ ध्यान नहीं दिया जा रहा था... हमने भी तवज्जो नहीं दी थी... 89 में लगने लगा कि आतंकी हरकते ज्यादा होने लगी है... आइसोलेशन शुरू हो गया, कर्फ्यू लगने लगा...शाम के 6 बजे सूनसान हो जाता है, रास्ते में चलने में डर लगने लगता था कि मेरे आगे या पीछे जो चल रहा है वह कोई आतंकवादी तो नहीं....शाम होते ही एक अनजाना सा भय छा जाता था.... धीरे धीरे यह फैलने लगा कि कश्मीरी पंडितों को यहां से जाना चाहिए....रूबिया सईद का मामला हुआ, बड़े आतंकी छोड़े गए एवज में और फिर उसके बाद हालात बेकाबू होने लगे.... हमारा घर सड़क पर ही था....चार मंजिला मकान था, हम देखते थे वहां से माहौल, कर्फ्यू ऐसा लगता था कि जो मुस्लिम पड़ोसी थे वहां के वे बाहर निकल आते थे और गाली-गलौज करने लगते थे, अपशब्द बोलते थे..यह आतंक की शुरुआत थी....
पड़ोसी ही मुखबिरी करते थे
जब माहौल बिगड़ा तो दो तरह के कर्फ्यू होते थे एक आतंकियों का जब कोई मक्खी भी नहीं दिखना चाहिए, दूसरा सरकार का सुरक्षा के लिए कर्फ्यू लगता था तब ये लोग क्रिकेट खेलते थे और अपने तयशुदा एजेंडे पर काम करते थे.. जो इनके दिमागों में पहले से पल रहा होता था...आपको बताऊं कि पड़ोसी ही हमारी मुखबिरी करते थे, कश्मीरी पंडितों के घर कौन आया, कौन गया, हर बात पर निगरानी रखी जाती थी....जो साफ समझ में आने लगी थी...हम हैरान हो जाते थे कि करें क्या हम.... 
माहौल ठीक हो जाए तब आ जाना वापिस...
मेरे बड़े भाई डॉक्टर थे, सरकारी मेडिकल कॉलेज में पढ़ाते थे... सारे बीमार घर ही आते थे चाहे मुस्लिम हो या हिंदू वे फीस नहीं लेते थे...फ्री में इलाज करते थे...हमारे पड़ोसियों ने कहा डॉक्टर साब आप रहिए कोई दिक्कत नहीं, हम है यहां लेकिन जैसे ही सूची निकलने लगी, घरों के बाहर बिजली के खंबों पर पोस्टर लगने लगे तब धीरे धीरे पड़ोसी कतराने लगे...कहने लगे कि डॉ. साब आप चले जाओ कुछ दिनों के बाद माहौल ठीक हो जाए तब आ जाना वापिस... फिर हम सब निकल आए एक के बाद एक....8 अप्रैल 1990 को मुझे आधी रात को श्रीनगर का अपना घर और अपनी हर चीज छोड़कर आना पड़ा.. उसके बाद हालातों की खबर मिलने लगी और हम कभी नहीं गए मुड़कर.... 
मकान बेचना पड़ा
एक बार मुझे जाना पड़ा तो आपको बताऊं कि सब बदल चुका था, जो 'ग्रेस' थी श्रीनगर में हमारी, हमारे इलाके में गरिमामयी सुंदर माहौल हुआ करता था वो नहीं था, ऐसा लगा हमारी जगहों पर श्मशान की मनहूसियत छाई हुई है...मकान बहुत बड़ा था हमारा दुकानें भी थी, हम सारे कजिन भाई की पार्टनरशिप थी....लेकिन फिर हमारे कजिन भाइयों की मजबूरी हो गई उसे बेचना, वे परेशान हो गए क्योंकि उनका गुजारा नहीं हो पा रहा था...5000 स्क्वेयर फिट की जमीन पर सड़क के किनारे का 4 मंजिला मकान उस जमाने में बहुत कम कीमत पर बेचना पड़ा....आपको पता है हमारे कितने लोगों को घरों में घुसकर मारा गया...32 साल बाद मुझे पता चला कि मेरे अपने कई लोग मारे गए हैं.... 
कड़वे अनुभव हमने बटोरे हैं
हमें यह समझना होगा कि रक्तबीज सिर्फ कश्मीर में ही नहीं बल्कि जहां हम रह रहे हैं वहां भी फैल रहे हैं...मेरा किसी धर्म विशेष के प्रति दुराग्रह नहीं रहा पर इनके साथ जो कड़वे अनुभव हमने बटोरे हैं वह दहला देने वाले हैं...हमारी बेटियां गायब हुई हैं, हमारी बेटियां काटी गई है, हमारे लोग झेलम नदी में फेंके गए हैं.. जनेऊ का पहाड़ कहां से निकला...क्या हमने बहाया था..सोचिए न आप भी...क्या क्या बीती है हमारे साथ....हमारी बात को ये कहकर कमतर किया जा रहा है कि और भी धर्मों पर अत्याचार हुए तो क्या इस बात से हमारे ऊपर जो त्रासदी हुई है वह जस्टीफाय होनी चाहिए?? 
 
मेरे पिता कहा करते थे कि हम हिन्दुओं में से कई जयचंद हैं जिनमें धर्म के प्रति दिखावा ज्यादा है वे पैसे की तरफ ज्यादा आकर्षित होते हैं, अंग्रेज अपने देश के प्रति समर्पित होते हैं, मुसलमान अपने मजहब के प्रति और हिन्दुओं के जयचंद पैसे के प्रति....उस वक्त इस बात को इतना नहीं समझा था, मुझे यकीन भी नहीं था...पर अब समय ने सीखा दिया है कि वे सच कहा करते थे....सारे ऐसे नहीं है मानता हूं पर हमारे लिए तो कोई आगे नहीं आया, तो मैं कैसे कह दूं.. 
दोस्त आतंकी कैंप में शामिल हो गए
मेरे मुसलमान ही दोस्त थे और जिगरी दोस्त थे उन दोस्तों पर मजहब का बुखार चढ़ा था। कुछ तो आतंकी कैंप में शामिल हो गए जो नहीं हुए वे न्यूट्रल रहे, मुंह नहीं खोला उन्होंने किसी अत्याचार के खिलाफ...मेरे दोस्तों में यह डर था कि अगर वे हमारी तरफ रहे तो उनके धर्म के लोग उन्हें नहीं छोड़ेंगे....
 
बिट्टा कराटे ने जिस सतीश को मारा मैं उसके पिता जी की दुकान से सामान खरीदा करता था...सतीश अपने पिताजी को मदद करता था....
सरकार से अपेक्षा 
विस्थापित कश्मीरी को वापिस बसाया जाए लेकिन उन्हें सुरक्षा की आश्वस्ति मिले, रोजगार का आश्वासन मिले, आप जानते हैं कि जहां भी कश्मीरी पंडित है उनके साथ आपको बंधी मिलेगी विद्या, ज्ञान, शिक्षा... इसीलिए वे जहां भी हैं अपनी रोजी रोटी कमा रहे हैं....अपना जीवन स्तर निरंतर बेहतर कर रहे हैं, क्योंकि हम ईमानदारी के साथ शांत और संतुलित रहकर अपने ज्ञान को ही अपना हथियार मानते हैं....
 
अब जब बसाया जा रहा है तो सवाल यह है कि क्या हम उन लोगों के साथ रह पाएंगे जिन्होंने हमारी मुखबिरी की, हमारे ही साथ रहकर हमें धोखे में रखा... जिन्होंने हमें मरवाया, विश्वासघात किया उनके साथ हम फिर से कैसे रह सकते हैं, कोई अलग से इंतजाम हमारे लिए होना चाहिए....जाना तो जरूरी है हमारा, अगर हम कश्मीर में वापिस नहीं गए तो फिर हम कहां जाएंगे? पर रहने की कोई ऐसी व्यवस्था हो कि दुबारा हमें वहां से पड़ाव न खोजना पड़े। 
 
हमारी बसाहट की प्लानिंग क्या है? कैसे सब होगा यह स्पष्ट होना चाहिए... अब धोखा नहीं खा सकते हैं.... अब पानी सिर के ऊपर से निकल चुका है... हमारी प्राथमिकता में सुरक्षा सबसे पहले है उसके बाद रोजगार और हमें अपनी पूजा पाठ की आजादी मिलनी चाहिए...हमें भी अपना धर्म प्यारा है, अगर हम अपने धर्म की राह पर नहीं चले होते तो सबकुछ छोड़कर क्यों आते? हम भी वही करते जो दूसरों ने किया पर हमारा धर्म दया और क्षमा पर आधारित है लेकिन हम वीर हैं हम निहत्थों पर हाथ नहीं उठाते ना ही बिना किसी मकसद के किसी को सताते हैं... जब चारों तरफ से हम परेशान हुए तो लगा कि अपने ही देश में हम अकेले रह गए हैं... इसलिए हमें वहां से निकलना पड़ा...
बहरहाल कश्मीरी पंडित के मामले में नेताओं को भी चरित्रवान बनना होगा,जुबान का पक्का होना चाहिए..कश्मीरी सिर्फ वोट बैंक नहीं है...हम पर राजनीति बंद हो....तमाम स्टेटमेंट देना एक बात है लेकिन जमीनी हकीकत दूसरी बात है, अब अमन के साथ खिलवाड़ नहीं होना चाहिए....अब कोई खून इस तरह से बहाया नहीं जाना चाहिए, हम सभ्य देश के नागरिक हैं..वैसे ही हमें व्यवहार करना चाहिए....