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Written By WD

सत्य साईंबाबा के अमृत वचन

सत्य साईंबाबा के अमृत वचन
* वही सच्चा भक्त है, जो भगवान की खुशी को अपनी खुशी मानता है। वह हमेशा भगवान को खुशी देना चाहता है, उनके लिए किसी असुविधा का कारण बनना नहीं चाहता! यह मानकर चलना चाहिए कि भगवान की खुशी में ही आपकी खुशी है और आपकी खुशी में भगवान की! एकता की इस भावना को आत्मसात कीजिए।


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* अगर कोई ऐसा व्यक्ति, जिसे आप पसंद नहीं करते, आपके पास आए तो हमें उसमें गलती खोजने की आवश्यकता नहीं है। उन पर हंसने या उनकी अवमानना करने की कोई आवश्यकता नहीं है। यही काफी है कि आप उसके आने से प्रभावित हुए बिना अपना कार्य कर सकें।

उन्हें अपने मार्ग का पालन करने दें, उन्हें अकेला छोड़ दीजिए। यही व्यवहार उदासीन भाव कहलाता है, अर्थात अप्रभावित होना। अगर आप इसका अभ्यास करेंगे, तब आपको भगवान के लिए अपरिवर्तित प्यार प्राप्त होगा। यह व्यवहार आपको चिरस्थायी शांति, आत्म नियंत्रण और मन की शुद्धता भी प्रदान करेगा।


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* पर्वत की चोटियों पर बारिश होती है और पानी सब तरफ से नीचे की ओर बहता है, उससे किसी नदी का निर्माण नहीं होता, लेकिन जब पानी एक दिशा में बहता है तो पहले नाले का निर्माण होता है, फिर धारा बनती है। उसके बाद एक तेज धार के साथ नदी का निर्माण होता है, जो अंत में जाकर समुद्र में मिल जाती है।

इसी प्रकार हमारे मन और विचार हमेशा पवित्र विचारों की ओर बहते रहना चाहिए। आपके हाथ हमेशा अच्छे कर्मों में लगे रहना चाहिए।

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* शिक्षा हमेशा पथ को प्रकाशवान करती है। अज्ञान का अंधकार और संदेह की सांझ इसके दीप्तमान होने के पहले ही गायब हो जाती हैं। शिक्षा का अर्थ सिर्फ ज्ञान के संग्रह में नहीं है, इसके द्वारा मनुष्य के व्यवहार, चरित्र और महत्वाकांक्षा में परिवर्तन ही परिणाम है।

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* ज्ञान का दैनिक जीवन में भी परीक्षण किया जाना चाहिए। मनुष्य को अपने भीतर मौजूद बहुमूल्य विरासत का आभास नहीं है। वह अपने स्वयं के अलावा हर किसी के काम में दिलचस्पी लेता है। अगर वह स्वयं के बारे में पता कर ले, तो वह विशाल शक्ति, चिरस्थायी शांति और असंख्य सुख का धनी हो जाएगा।

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* मनुष्य को सभी क्षेत्रों में कुछ नियम बनाने की जरूरत है, ताकि वह अपने दैनिक कार्यक्रम के संचालन में परिपक्वता लाकर जीवन जीने की प्रक्रिया का वास्तविक निर्देशन कर सके, क्योंकि ये भी आचार संहिता का हिस्सा है, इन्हें भी अनुशासन के रूप में देखना चाहिए।

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* हृदय के दोष को नैतिक जीवन जीकर भी दूर किया जा सकता है, यही मनुष्य का कर्तव्य है। एक समय आता है जब आप थक या कमजोर पड़ जाते हैं, तब आपको प्रार्थना करना चाहिए। शुरुआत में भगवान दूर से आपके प्रयासों को देखते हैं। फिर, जब आप अपने लगाव के बहाने आनंद और अच्छे कामों और सेवा में लग जाते हैं, परमेश्वर पास आकर प्रोत्साहित करता है। उसके लिए भगवान सूर्य की तरह होता है, जो बंद दरवाजे के बाहर इंतजार कर रहा है।

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* भगवान उनकी मौजूदगी की घोषणा नहीं करता है या दरवाजा नहीं पीटता! वह तो बस इंतजार करता है! जैसे ही तुम थोड़ा-सा दरवाजा खोलते हो, सूरज की रोशनी तुरंत भीतर से अंधेरे को बाहर कर देती है। इसलिए जब भी भगवान से मदद मांगी जाती है, वह आपकी ओर सहायता के लिए हाथ बढ़ाए मौजूद होता है।

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* आजकल ज्यादातर भक्त स्वार्थी हैं। उनमें केवल स्वार्थ भक्ति (लाभ के लिए भक्ति करना) होती है। वे सिर्फ अपनी खुशी के लिए ही चिंतित होते हैं, न कि परमेश्वर के लिए! जबकि प्यार हमेशा शुद्ध हो! भगवान प्रेम के प्रतीक हैं, ऐसा दिव्य प्रेम सभी में मौजूद है। सभी के साथ अपना प्रेम बांटें। प्रभु आपसे यही उम्मीद करते हैं।