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Written By ND

मन को एकाग्र करें मानस पूजा...

मन को एकाग्र करें मानस पूजा...
- पं. रविशंकर शर्मा

'कृत्वादौ मानसीं पूजां ततः पूजां समाचरेत।'

ND
शास्त्रों में पूजा को हजार गुना अधिक महत्वपूर्ण बनाने के लिए एक उपाय बतलाया गया है। वह उपाय है, मानस पूजा। जिसे पूजा से पहले करके फिर बाह्य वस्तुओं से पूजन करें।

शास्त्र का एक वचन उद्धृत किया गया है, जिसमें बताया गया है कि मनःकल्पित यदि एक फूल भी चढ़ा दिया जाए तो करोड़ों बाहरी फूल चढ़ाने के बराबर होता है। इसी प्रकार मानस चंदन, धूप, दीप, नैवेद्य भी भगवान को करोड़ गुना अधिक संतोष दे सकेंगे। अतः मानस पूजा बहुत अपेक्षित है।

वस्तुतः भगवान को किसी वस्तु की आवश्यकता नहीं, वे तो भाव के भूखे हैं। संसार में ऐसे दिव्य पदार्थ उपलब्ध नहीं हैं, जिनसे परमेश्वर की पूजा की जा सके। इसलिए पुराणों में मानस पूजा का विशेष महत्व माना गया है।

मानस पूजा में भक्त अपने इष्टदेव को मुक्तामणियों से मंडित कर स्वर्ण सिंहासन पर विराजमान करता है। स्वर्गलोक की मंदाकिनी गंगा के जल से अपने आराध्य को स्नान कराता है, कामधेनु गौ के दुग्ध से पंचामृत का निर्माण करता है। वस्त्राभूषण भी दिव्य अलौकिक होते हैं। पृथ्वी रूप गंध का अनुलेपन करता है। अपने आराध्य केलिए कुबेर की पुष्पवाटिका से स्वर्ण कमल पुष्पों का चयन करता है।

भावना से वायुरूपी धूप, अग्निरूपी दीपक तथा अमृतरूपी नैवेद्य भगवान को अर्पण करने की विधि है। इसके साथ ही त्रिलोक की संपूर्ण वस्तु सभी उपचार सच्चिदानंद घन परमात्म प्रभु के चरणों में भावना से भक्त अर्पण करता है। यह है मानस पूजा का स्वरूप। इसकी एक संक्षिप्त विधि भी पुराणों में वर्णित है।

मानस पूजा में आराधक का जितना समय लगता है, उतना भगवान के संपर्क में बीतता है और तब तक संसार से दूर हटा रहता है। अपने आराध्यदेव के लिए बढ़िया से बढ़िया रत्नजड़ित आसन, सुगंध के बौछार करते दिव्य फूल की वह कल्पना करता है और उसका मन वहाँ से दौड़कर उन्हें जुटाता है। इस तरह मन को दौड़ाने की और कल्पनाओं की उड़ान भरने की इस पद्धति में पूरी छूट मिल जाती है। इसके दौड़ने के लिए क्षेत्र भी बहुत विस्तृत है।

इस दायरे में अनंत ब्रह्मांड ही नहीं, अपितु इसकी पहुँच के परे गोलोक, साकेतलोक, सदाशिवलोक भी आ जाते हैं। अपने आराध्यदेव को आसन देना है, वस्त्र और आभूषण पहनाना है, चंदन लगाना है, मालाएँ पहनानी है, धूप-दीप दिखलाना है और नैवेद्य निवेदित करना है। इन्हें जुटाने के लिए उसे इंद्रलोक से ब्रह्मलोक तक दौड़ लगाना है। वहाँ पहुँचे या नहीं पहुँचे, किंतु अप्राकृतिक लोकों के चक्कर लगाने से भी वह नहीं चूकता, ताकि उत्तम साधन जुट जाएँ और भगवान की अद्भुत सेवा हो जाए।

इतनी दौड़-धूप से लाई गई वस्तुओं को आराधक जब अपने भगवान के सामने रखता है, तब उसे कितना संतोष मिलता होगा? उसका मन तो निहाल ही हो जाता होगा।

इस तरह पूजा सामग्रियों के जुटाने में और भगवान के लिए उनका उपयोग करने में साधक जितना भी समय लगा पाता है, उतना समय वह अंतर्जगत में बिताता है। इस तरह मानस पूजा साधक को समाधि की ओर अग्रसर करती है। और उसके रसास्वादन का आभास भी कराती रहती है। जैसे कोई प्रेमी साधक कांताभाव से अपने इष्टदेव की मानसी सेवा कर रहा है। चाह रहा है कि अपने पूज्य प्रियतम को जूही, चमेली, चंपा-गुलाब और बेला की तुरंत गुँथी, गमगमाती हुई बढ़िया से बढ़िया माला पहनाएँ।

बाहरी पूजा में इसके लिए बहुत ही भाग-दौड़ करनी पड़ेगी। आर्थिक कठिनाई मुँहबाए कर अलग खड़ी हो जाती है। तब तक भगवान से बना यह मधुर संबंध भी टूट जाता है, पर मानस पूजा में यह अड़चन नहीं आती। इसलिए बना हुआ एक वह संपर्क गाढ़ से गाढ़तर होता जाता है। मन की कोमल भावनाओं से उत्पन्ना की गई वे वनमालाएँ तुरंत तैयार मिलती है।

पहनाते समय पूज्य प्रियतम की सुरभित साँसों से जब इसकी सुगंध टकराती है, तब नस-नस में मादकता व्याप्त हो जाती है। पूज्य प्रियतम का स्पर्श पाकर वह उद्वेलित हो उठती है। और साधक को समरस कर देती है। अब न आराधक है, न आराध्य है और न आराधना ही है। आगे की पूजा कौन करे? धन्य है वे, जिनकी पूजा इस तरह अधूरी रह जाती है। मानस पूजा से यह स्थिति शीघ्र आ सकती है।