देहरादून। विश्वप्रसिद्ध जिम कार्बेट पार्क का नाम बदलने का मामला तूल पकड़ता दिख रहा है। हालांकि प्रदेश के वनमंत्री डॉ. हरक सिंह रावत ने साफ किया है कि नाम बदलने का कोई प्रस्ताव नहीं है। वैसे में ऐसा किया जाना न तो उचित है और न ही संभव। लेकिन 3 अक्टूबर को केंद्रीय मंत्री चौबे ने इस पार्क का दौरा किया था। उन्होंने वन अफसरों से इसके बारे में विस्तार से जानकारी लेते हुए अफसरों के साथ बातचीत में इस पार्क का नाम 'रामगंगा नेशनल पार्क' रखे जाने पर भी चर्चा की। बाद में जाते वक्त उन्होंने पार्क की विजिटर बुक पर अपने अनुभव लिखे तो उन्होंने इस 'रामगंगा नेशनल पार्क' ही लिखा।
इसके बाद माना जा रहा है कि अब केंद्र सरकार जल्द ही जिम कार्बेट नेशनल पार्क का नाम 'रामगंगा नेशनल पार्क' रखने की अधिसूचना जारी कर सकती है जबकि उत्तराखंड के वनमंत्री डॉ. हरक सिंह रावत नाम बदलने के विरोध में हैं। उन्होंने कहा कि जिम कार्बेट को कुमाऊं या गढ़वाल ने नहीं जोड़ा जा सकता। वे दुनियाभर में अपनी एक अलग पहचान रखते हैं। इस जिम कार्बेट नेशनल पार्क का नाम बदला जाना संभव नहीं है। वैसे भी इस बारे में राज्य सरकार के पास कोई भी प्रस्ताव न तो आया है और न ही विचाराधीन है। जाहिर है कि राज्य सरकार जिम कार्बेट नेशनल पार्क का नाम बदलने की केंद्रीय वन एवं पर्यावरण राज्यमंत्री अश्विनी चौबे की मंशा से सहमत नहीं है। सूत्रों का कहना है कि अगर केंद्र सरकार अपने स्तर से नाम बदलती है तो भी प्रस्ताव पर राज्य सरकार की मंजूरी जरूरी होगी। ऐसे में यह मामला विवादों में आता दिख रहा है।
इस पार्क से रोजी-रोटी कमाने वाले टूरिज्म से जुड़े लोग हों या फिर जीप सफारी चलाकर रोजी-रोटी कमाने वाले लोग, इनमें से अधिकांश नाम बदले जाने को लेकर इसके विरोध में उतर आए हैं। सुप्रसिद्ध पर्यावरणविद व इतिहासकार डॉ. अजय रावत कॉर्बेट नेशनल पार्क के नाम को फिर से रामगंगा पार्क करने के खिलाफ खुलकर सामने आए हैं।
उन्होंने कहा कि यह जिम कॉर्बेट जैसी शख्सियत के साथ अन्याय होगा और साथ ही पहाड़ के लोगों के साथ भी अन्याय होगा जिनमें पहाड़ की आत्मा बसती है। दुनिया में कुमाऊं और पहाड़ को लोगों ने जिम कॉर्बेट की कहानियों से ही जाना है। उन्होंने लोगों के अनुरोध पर आदमखोर बाघों को मारा और ग्रामवासियों की मदद को वे हमेशा तैयार रहते थे। उनका यह भी कहना है कि अकारण उन्होंने कभी किसी बाघ को नहीं मारा। छोटी हल्द्वानी गांव जिसके वे प्रधान भी रहे थे, में उनकी काफी जमीन थी, के लोगों को वे भारत छोड़ते वक्त अपनी जमीन देकर गए। उनकी सेवा टहल के लिए जो एक व्यक्ति उनके भारत में रहने तक उनके साथ था, उसको तो वे केन्या पहुंचकर भी अपनी जिंदगी के रहने तक प्रतिमाह पैसे भेजते रहे, जो उनकी सहृदयता और करुनाशीलता का प्रमाण है। आज कॉर्बेट पार्क का नाम जिम कॉर्बेट की वजह से मशहूर है और इसके साथ छेड़छाड़ नहीं होनी चाहिए। वे बोले कि अगर कॉर्बेट पार्क के नाम में बदलाव होता है तो वे हर मंच से उसका विरोध करेंगे।
इस पार्क की ख्याति ही कार्बेट के नाम से रही है। कॉर्बेट पार्क में पर्यटन कारोबार से जुड़े ट्रेवल एजेंट दिनेश जोशी का कहना है कि कॉर्बेट का नाम एक ब्रांड बन चुका है। पार्क से लेकर सैकड़ों होटल और अन्य कारोबार कॉर्बेट के नाम से चल रहे हैं। अचानक नाम बदलने से पार्क के सामने नई पहचान बनाने का संकट आ जाएगा। अगर पर्यटकों यानी वन्यजीव प्रेमियों के इस पार्क को लेकर आकर्षण की बात करें तो कोरोना महामारी के बीच कॉर्बेट पार्क में 6 महीने में राजस्व व पर्यटकों का पुराना रिकॉर्ड तक टूट गया। कोरोना की दूसरी लहर के बीच 6 महीने के भीतर ही सबसे अधिक 2 लाख पर्यटक कॉर्बेट पार्क घूमने के लिए पहुंचे। पर्यटकों से इस बार मिला राजस्व भी अन्य साल की तुलना में अधिक मिला। कुल मिलाकर पिछले 4 साल में इतने पर्यटकों की आमद और कमाई नहीं हुई जितनी इस साल हुई। यह भी इस पार्क की इस विशेषता को ही दर्शाता है कि इसका आकर्षण कैसे जिम कार्बेट के नाम से जुड़ता है।
बीजेपी से जुड़े और रामनगर बीजेपी के सक्रिय नेता गणेश रावत भी पार्क का नाम जिम कार्बेट से बदलने का कड़ा विरोध करते दिख रहे हैं। उनका कहना है कि जिम कॉर्बेट से प्रदेश ही नहीं, देश की भी एक पहचान है। उनके वन्यजीव संरक्षण में किए प्रयास लोगों को प्रेरणा देते हैं इसलिए वे इस पक्ष में कभी नहीं हो सकते कि इस पार्क का नाम बदल दिया जाए।
पिछले साल वर्ष 2020-21 में कॉर्बेट पार्क में कोरोना संक्रमण का खतरा फरवरी से शुरू हो गया था। वर्ष 2020 में ही 18 मार्च को कॉर्बेट पार्क बंद हो गया था। जून में 15 दिन खुलने के बाद फिर सितंबर तक के लिए बरसाती सीजन की वजह से कार्बेट बंद हो गया था। इसके बाद अक्टूबर से कॉर्बेट पार्क फिर पर्यटकों के लिए खुल गया। अक्टूबर से मार्च तक यानी 5 महीनों में कोरोना महामारी के बीच पर्यटक काफी संख्या में कार्बेट पार्क पहुंचे। कार्बेट टाइगर रिजर्व के निदेशक राहुल के अनुसार 5 महीनों में ही कॉर्बेट पार्क में पर्यटकों का पिछले 5 साल का रिकॉर्ड टूट गया। इसके अलावा पर्यटकों से सबसे अधिक राजस्व भी प्राप्त हुआ।
कार्बेट अधिकारियों से मिली जानकारी के मुताबिक 6 महीने के भीतर ही 2,01,221 भारतीय व विदेशी पर्यटक कॉर्बेट आए। इसमें से 366 विदेशी पर्यटक थे। पर्यटकों से 8.23 करोड़ रुपए का राजस्व कॉर्बेट प्रशासन को प्राप्त हुआ जबकि साल 2016-17 में कार्बेट में 1.66 लाख पर्यटक आए जिसे पार्क को 6.93 करोड़ रुपए की राजस्व प्राप्ति हुई। साल 2017-18 कॉर्बेट में 1.70 लाख पर्यटक आए जिनसे पार्क को 6.47 करोड़ की राजस्व प्राप्ति हुई। साल 2018-19 में कार्बेट में 1.73 लाख पर्यटक आए जिनसे पार्क को 6.02 करोड़ की राजस्व प्राप्ति हुई। साल 2019-20 में कार्बेट में 1.65 लाख पर्यटक आए जिनसे कार्बेट को 7.37 करोड़ रुपए की राजस्व प्राप्ति हुई जबकि साल 2020-21 में कोविड के बावजूद 2.01 लाख पर्यटक कार्बेट में आए जिनसे 8.23 करोड़ की राजस्व प्राप्ति हुई।
1956 में इसका नाम कॉर्बेट नेशनल पार्क किया गया था। इससे पूर्व 1954 से साल 1956 के बीच की अवधि में यह पार्क वर्ष 1936 में अपने स्थापना के समय से ही हैली नेशनल पार्क से बदलकर 'रामगंगा नेशनल पार्क' के नाम से जाना गया था। वर्ष 1936 में इस पार्क की स्थापना के वक्त तत्कालीन गवर्नर मैल्कम हेली के नाम पर हेली नेशनल पार्क रखा गया था जिसे आजादी मिलने के बाद 'रामगंगा पार्क' का नाम मिला। बाद में प्रसिद्ध शिकारी और नेचर लवर प्रख्यात लेखक और फोटोग्राफर जिम कॉर्बेट की मौत के 2 साल बाद 1956 में इसका नाम जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क कर दिया गया। कॉर्बेट टाइगर रिजर्व का क्षेत्रफल 1318.54 वर्ग किलोमीटर तक विस्तार पाया हुआ है। कॉर्बेट टाइगर रिजर्व बाघों के शानदार घनत्व के लिए देश-विदेश में जाना जाता है। जिम कॉर्बेट ने कई आदमखोर बाघ और तेंदुओं का शिकार कर इस क्षेत्र के लोगों को भय से मुक्त कराया था। उन्होंने अपने जीवित रहते 50 बाघों और 250 तेंदुओं का शिकार किया था।
कौन थे जिम कॉर्बेट? : जिम कार्बेट का पूरा नाम जेम्स एडवर्ड कार्बेट था और उनका जन्म नैनीताल में 25 जुलाई 1875 में हुआ था। जिम कार्बेट उस समय चर्चा में आए, जब 1906 में उन्हें भारत और नेपाल में 425 से ज्यादा लोगों को निवाला बना चुके नरभक्षी बाघ को मारने की चुनौती मिली। इस नरभक्षी को मारने से पहले जिम कार्बेट ने सरकार के सामने अपनी शर्तें रखीं जिन्हें सरकार ने मान लिया। जंगलों में काफी समय नरभक्षी का पता लगाने के बाद आखिर एक दिन उन्होंने बाघिन को गोली का शिकार बनाया और लोगों को आतंक से मुक्ति दिला दी। इस शिकार के बाद उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैल गई और उन्हें नरभक्षी बाघों से मुक्ति दिलाने के लिए बुलावे आने लगे। लोगों की मदद के लिए वे कभी पीछे नहीं रहे और अपनी जान की परवाह किए बिना नरभक्षी बाघों का पीछा करते रहते थे। आदमखोर बाघों की तलाश में कई-कई रातें जंगलों में गुजारते हुए वे ऐसे पेड़ों पर सोते थे, जहां बंदर हों ताकि बाघ के आने पर बंदरों के शोर से उन्हें पता चल सके की बाघ आसपास आ चुका है।
बचपन से ही बहुत मेहनती और निडर रहे जिम कार्बेट ने स्टेशन मास्टरी की, सेना में अधिकारी रहे और अंत में ट्रांसपोर्ट अधिकारी भी बने। ब्रितानी हुकूमत में मानवाधिकारों के लिए आवाज उठाने में भी वे सदैव आगे रहे। उन्होंने उत्तराखंड के नैनीताल जिले में स्थित कालाढूंगी में घर बनाया था जिसे देखने आज भी पर्यटक आते हैं। तब इस क्षेत्र को छोटा हल्द्वानी कहा जाता था, जो एक गांव सभा थी जिसके वे प्रधान भी रहे। वन्यजीवों को वे बहुत प्रेम करते थे। उन्होंने जीवनपर्यंत शादी नहीं की। उन्हीं की तरह उनकी बहन मैगी ने भी आजीवन विवाह नहीं किया। दोनों भाई-बहन हमेशा साथ रहे। लोगों का जीवन खतरे में न पड़े इसलिए वे नरभक्षी हो चुके बाघों या अन्य वन्यजीवों का ही शिकार करते थे। वन्यजीवों के संरक्षण की उनकी चिंता और जीवों से प्यार के कारण ही 1956 में 'रामगंगा राष्ट्रीय उद्यान' का नाम उनके नाम पर यानी 'जिम कार्बेट नेशनल पार्क' रखा गया।
कार्बेट देश का पहला राष्ट्रीय उद्यान बना। कार्बेट को जब राष्ट्रीय उद्यान का दर्जा मिला तो जंगल में शिकार पर पूरी तरह पाबंदी लगा दी गई। वन्यजीवों के शिकार पर पूरी तरह पाबंदी के लिए जिम कार्बेट के प्रयासों को ही इसका श्रेय दिया जाता है। 1949 में जिम कार्बेट अपनी बहन के साथ केन्या चले गए और उन्होंने वहीं बसने का फैसला लिया। लेकिन उनकी आत्मा हमेशा भारत के इस जंगल के इर्द-गिर्द ही रही। 1954 में अपने निधन से पूर्व जिम कार्बेट ने भारत के वनों पर कई पुस्तकें लिखी। कॉर्बेट एक असाधारण लेखक थे। उनकी लिखी गईं कई कहानियां पाठकों के बीच आज भी रोमांच उत्पन्न करती हैं। कॉर्बेट की पहली पुस्तक 'जंगल स्टोरी' के नाम से 1935 में प्रकाशित हुई जिसकी केवल 100 प्रतियां ही छापी गई थीं।
कॉर्बेट अपनी कमाई का अधिकांश भाग गरीबों में बांट दिया करते थे। वन्यजीवों के व्यवहार को लेकर उनका अध्ययन बेजोड़ था। इससे न सिर्फ लोगों को वन्यजीवों के विषय में जानने का अवसर मिला, बल्कि भारत के वनों की ख्याति देश-दुनिया तक पहुंची। श्रमिकों और कुलियों के बच्चों के लिए उन्होंने कोलकाता के मोकमेह घाट में स्कूल की स्थापना की थी। मजदूरों पर साहूकारों के जुल्म के खिलाफ भी उन्होंने आवाज उठाई थी। कॉर्बेट को 1942 में ऑनरेरी मजिस्ट्रेट का पद से सुशोभित किया गया और उसके बाद उन्हें 'ऑर्डर ऑफ द ब्रिटिश एंपायर अवॉर्ड' भी मिला।
कॉर्बेट को अंतिम समय में सबसे महत्वपूर्ण पुरस्कार 'कंपेनियन आपदा इंडियन अंपायर' से नवाजा गया, जो उस दौरान अति विशिष्ट व्यक्तियों को ही दिया जाता था। नैनीताल झील से 50 पौंड की महाशीर मछली को पकड़कर भी रिकॉर्ड बनाया। 1974 में 'जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क' प्रतिष्ठित वन्यजीव संरक्षण अभियान द्वारा प्रोजेक्ट टाइगर को लांच करने के लिए चुना गया। आज यह पार्क बाघों का प्राकृतिक आवास माना जाता है। कॉर्बेट टाइगर रिजर्व में करीब 250 टाइगर और 1,200 हाथी मौजूद हैं। बड़ी संख्या में और दूसरे वाइल्ड एनिमल कॉर्बेट में पाए जाते हैं। पक्षियों और रेप्टाइल की भी असंख्य प्रजातियां यहां संरक्षण पाती हैं।
प्रथम विश्वयुद्ध में जिम कार्बेट ने कैप्टन के पद पर सेना में प्रवेश किया। साल 1917 में 500 कुमाऊंनी जवानों को लेकर एक श्रमिक दल का गठन किया जिसने फ्रांस की लड़ाई में हिस्सा लिया। इस लड़ाई के बाद उन्हें मेजर का पद मिला। नैनीताल जिले का वह छोटा हल्द्वानी गांव, जिसे आज कालाढूंगी के नाम से जाना जाता है, में उनका संग्रहालय उनकी धरोहर के रूप में आज भी स्थापित है, जहां उनके पत्र, फोटोग्राफ सहित कई पुरानी वस्तुएं संजोकर रखी गई हैं।
सभी फोटो : एन पांडेय