'जांबूर' : भारत में बसा दक्षिण अफ्रीका
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सिर्फ इंडिया में एक लीटर पेट्रोल में आप विदेश जा सकते हैं..!' टीवी पर दिखाए जाने वाले मोटर साइकल के एक विज्ञापन में साउथ अफ्रीकी लोगों को गुजराती में बातें करते देख आश्चर्य होना स्वाभाविक है। मगर यह हकीकत है।गुजरात के जूनागढ़ से लगभग 100 किलोमीटर दूर जांबूर नामक स्थान पर बसा है भारत का यह दक्षिण अफ्रीका। वहाँ जाकर ऐसा लगता है मानो आप भारत में नहीं बल्कि अफ्रीका के किसी गाँव में हैं।दरअसल ये लोग अफ्रीकी मूल के गुजराती हैं, जो जांबूर गाँव में रहते हैं। वे पूरी तरह गुजरात के खानपान, रहन-सहन और रीति-रिवाजों में रंग चुके हैं। गुजरात में उन्हें सिद्दी बादशाह या फिर हब्शी के नाम से जाना जाता है, जो कि मुस्लिम धर्मावलंबी हैं।पिछले दो सौ साल में यह अफ्रो-इंडियन पूरे भारत देश में फैल गए हैं। वर्तमान में भारत में इनकी संख्या ढाई लाख से भी ज्यादा हो चुकी है। गुजरात, आंध्रप्रदेश, दमन, दीव, गोवा, केरल, कर्नाटक और महाराष्ट्र जैसे राज्यों के आदिवासी बहुल कस्बों में यह प्रजाति आपको मिल जाएगी।गुजरात की बात करें तो यहाँ के अहमदाबाद, अमरेली, जामनगर, जूनागढ़, राजकोट, भावनगर, भरूच और कच्छ जिले में यह अफ्रीकी प्रजाति बसी हुई है, जिनकी संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। स्वीडन की उपसला युनिवर्सिटी के प्रोफेसर अब्दुल अजीज लोधी ने 'अफ्रीकन सेटलमेंट ऑफ इंडिया' नामक अपने शोध में इन भारतीय अफ्रीकियों के बारे विस्तार से उल्लेख किया है। उनके अनुसार यह प्रजाति भारत के मुस्लिम शासक सैयद के लिए काम करती थी, जो इथोपिया से हिन्दुस्तान में आई थी। यह सभी लोग सुन्नी मुसलमान हैं। इनमें से कुछ लोगों ने हिन्दू और ईसाई धर्म भी अंगीकार कर लिया है, जो क्रमश: कर्नाटक और गोवा में जाकर बस गए हैं। गुजरात में इनके आगमन के बारे में कहा जाता है कि आज से तकरीबन दो सौ साल पहले जूनागढ़ के नवाब इन लोगों को यहाँ पर लेकर आए थे। उस वक्त गीर के जंगलों में शेरों ने बहुत ही आंतक मचा रखा था। आए दिन वे गाँव में घुसकर लोंगो को अपना शिकार बनाते थे। तब किसी ने नवाब को बताया कि साउथ अफ्रीकी लोग शेरों को काबू में करना अच्छी तरह जानते हैं। नवाब उस समय दस-बारह लोगों को वे साउथ अफ्रीका से यहाँ लाए थे।कुछ लोगों का मानना है कि सिद्दियों को भारत इसलिए लाया गया ताकि वे नवाबों और सुल्तानों की मुस्लिम सेना में शामिल हो सकें और हिन्दू राजाओं से अपने राज्य की हिफाजत कर सकें। कुछ को हकीम और दाइयों के रूप में काम करने के लिए यहाँ लाया गया, जबकि कुछ सिद्दियों को भारतीय व्यापारी अफ्रीका से घर लौटते वक्त दास के रूप में अपने साथ लेकर लाए। इस तरह इन लोगों की आबादी का विस्तार हुआ।जांबूर में बसने वाली यह सिद्दी प्रजाति मूलत: नाईजीरिया के कानो प्रांत से वाया सूडान और मक्का की हज यात्रा के दौरान यहाँ पर आकर बस गई। उनके नेता का नाम बाबा गौर था जो बहुत ही रईस आदमी था। उसने गुजरात के भरूच और खंभात में अकीक (हकीक) का कारोबार शरू किया। धीरे-धीरे यह हब्शी लोग बढ़ने लगे। आज अकेले जांबूर में इस प्रजाति के दो से ढाई हजार लोग रहते हैं, जो मुख्यत: कृषि के व्यवसाय से जुड़े हैं।वर्तमान में कुछ सिद्दी बादशाह गीर के जंगलों में स्थित अभयारण्यों में सुरक्षा गार्ड्स की नौकरी करते हैं तो कुछ ऑटो चलाकर अपना और अपने परिवार का पेट पालते हैं। दरअसल यह प्रजाति आदिवासियों की प्रजाति नहीं है फिर भी इस प्रजाति को अब भारत में आदिवासी का दर्जा मिल चुका है। सरकार की तरफ आदिवासियों के लिए मिलने वाली सभी सुविधाएँ इन्हें मिली हुई हैं। इन लोगों स्थानीय कला-संगीत को भी अपना लिया है। आज इस प्रजाति के कई लोग या तो अच्छे गायक हैं या फिर अच्छे ढोली बन गए हैं, जो लोगों का मनोरंजन कर धन कमाते हैं। गुजरात में इन ढोलियों को 'नागरची' और उनके मुखिया को 'नागरशा' (ढोल का बादशाह) के नाम से जाना जाता है। कच्छ में इन सिद्दी गायक और ढोलियों को 'लंगा' (पुरुष को लंगो और महिला को 'लंगी') के नाम से जाना जाता है। इनका 'धमाल' नृत्य पूरी दुनिया में विख्यात है। जो भी हो भारत में बसे यह दक्षिण अफ्रीकी लोग भारत की विविधता में एकता की संस्कृति का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण हैं।