नवविवाहिताओं का पर्व मधुश्रावणी व्रत।
क्यों की जाती है पूजा बासी फूलों से पूजा।
मधुश्रावणी व्रत किस देवी की आराधना की जाती है।
- राजश्री कासलीवाल
Madhushravani Parv 2024 : हिन्दू धर्मशास्त्रों के अनुसार मिथिलांचल का लोकपर्व मधुश्रावणी व्रत 07 अगस्त, बुधवार को मनाया जा रहा है। इस पर्व की शुरुआत श्रावण कृष्ण पंचमी से हो जाती है और 14 दिनों तक चलने वाले इस व्रत को नवविवाहिताएं अपने मायके में ही करती हैं। और 14 दिनों तक व्रती को अरबा खाना खाना होता हैं।
माना जाता है कि सुहाग का यह अनोखा पर्व है, जिसमें मिथिला की नवविवाहिता महिलाएं अपने सुहाग की लंबी उम्र के लिए बासी फूल से माता गौरी की पूजन करती हैं। बता दें कि जनमानस में यह दिन हरियाली तीज, श्रावणी तीज, कजली तीज या मधुश्रवा तीज के नाम से जाना जाता है।
मैथिल ब्राह्मण समाज में इस पर्व की काफी धूम देखी जा सकती है। इस पर्व पर गांव में पारंपरिक देवी गीतों के स्वर भी गूंजते सुनाई पड़ते हैं। इन दिनों बिना नमक का भोजन ग्रहण करने की मान्यता है। बता दें कि श्रावण कृष्ण पंचमी गुरुवार, 28 जुलाई 2024 से मिथिलांचल का लोकपर्व मधुश्रावणी व्रत शुरू होकर इसका समापन 07 अगस्त 2024, बुधवार को होगा।
कब होती हैं इस त्योहार की शुरुआत : मधुश्रावणी पर्व प्रतिवर्ष श्रावण मास के कृष्ण पक्ष की पंचमी तिथि से शुरू होकर सावन मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया तक चलता है। इस दिन कच्ची मिट्टी के हाथी पर शिव-गौरी तथा नाग-नागिन आदि की प्रतिमा को कोहवर के पास स्थापित कर पूजन करती है। और नैवेद्य में फल, मिठाई आदि का भोग चढ़ाया जाता है। जो नवविवाहिता पहली बार पूजा कर रही हैं, उन्हें इस व्रत की विशेष पूजा करनी पड़ती है। इस दिन नवविवाहिताएं 16 श्रृंगार कर यह व्रत और पूजन करती हैं।
मान्यतानुसार इस पूजा में दूध, धान के लावा का विशेष महत्व है। इस पर्व में हर दिन के पूजन का अलग-अलग विधान तथा अलग-अलग दिन की अलग-अलग कथा भी पढ़ी और सुनीं जाती हैं। पूजन के बाद सुहागिनों द्वारा एक-दूसरे को आपस में सुहाग सामग्री वितरित की जाती है।
बासी फूलों से पूजन : इस व्रत के दौरान मिथिला की नवविवाहिता सुहागिनें पूजन के एक दिन पूर्व ही अपने सखी-सहेलियों के साथ पारंपरिक लोकगीत गाते हुए सज-धज कर बाग-बगीचे से तरह-तरह के पुष्प-पत्र को अपनी डाली में सजाकर लाती हैं और अगली सुबह अपने पति की लंबी आयु के लिए उसी बासी फूलों से माता पार्वती के साथ नागवंश की पूजा करती हैं। मिथिलांचल का यह व्रत बहुत ही कठिन माना जाता है।
व्रत की परंपरा और मान्यता : धार्मिक मान्यता के अनुसार इस व्रत में पूजन के एक दिन पहले ही संध्या काल में पुष्प, पत्र-पत्ते आदि एकत्रित कर लिए जाते हैं, इन्हीं पुष्प-पत्तों से भगवान शिव जी और माता पार्वती तथा नागवंश या विषहरी नागिन की विधिवत पूजा-अर्चना की जाती है। इस पर्व में पहले और अंतिम दिन विधि-विधान से शिव-पार्वती का पूजन किया जाता है।
इस व्रत से संबंधित परंपरा के अनुसार मधुश्रावणी व्रत में पूजा के दौरान नवविवाहित महिलाएं अपने मायके जाकर वहीं इस पर्व को मनाती हैं। और इस व्रत-पूजन के उपयोग आने वाली सभी चीजें कपड़े, श्रृंगार की चीजें, पूजन सामग्री की व्यवस्था और विवाहिता की भोजन की चीजें भी ससुराल से ही आती है। इस व्रत की सबसे खास बात यह है कि इस व्रत में पुरुष पंडित नहीं, बल्कि महिलाएं ही पुरोहित की तरह पूजा कराती हैं।
इन दिनों माता पार्वती की पूजा का विशेष महत्व होता है और ठुमरी, कजरी, गोसांईं गीत, कोहबर गीत, लोकगीत आदि गाकर देवी मां पार्वती को प्रसन्न किया जाता हैं तथा मधुश्रावणी पूजा के बाद कथा पढ़ी और सुनीं जाती हैं। नवविवाहिता इस पूजन के माध्यम से अपने सुहाग की रक्षा के लिए माता गौरी से प्रार्थना करती हैं।
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