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Written By ओशो

ओशो के विचार, सुखी रहने का सफल मंत्र

ओशो के विचार, सुखी रहने का सफल मंत्र -
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दुख पर ध्यान दोगे तो हमेशा दुखी रहोगे, सुख पर ध्यान देना शुरू करो। दअसल, तुम जिस पर ध्यान देते हो वह चीज सक्रिय हो जाती है। ध्यान सबसे बड़ी कुंजी है।

दुख को त्यागो। लगता है कि तुम दुख में मजा लेने वाले हो, तुम्हें कष्ट से प्रेम है। दुख से लगाव होना एक रोग है, यह विकृत प्रवृत्ति है, यह विक्षिप्तता है। यह प्राकृतिक नहीं है, यह बदसूरत है।

पर मुश्किल यह है कि सिखाया यही गया है। एक बात याद रखो कि मानवता पर रोग हावी रहा है, निरोग्य नहीं और इसका भी एक कारण है। असल में स्वस्थ व्यक्ति जिंदगी का मजा लेने में इतना व्यस्त रहता है कि वह दूसरों पर हावी होने की फिक्र ही नहीं करता।

अस्वस्थ व्यक्ति मजा ले ही नहीं सकता, इसलिए वह अपनी सारी ऊर्जा वर्चस्व कायम करने में लगा देता है। जो गीत गा सकता है, जो नाच सकता है, वह नाचेगा और गाएगा, वह सितारों भरे असामान के नीचे उत्सव मनाएगा। लेकिन जो नाच नहीं सकता, जो विकलांग है, जिसे लकवा मार गया है, वह कोने में पड़ा रहेगा और योजनाएँ बनाएगा कि दूसरों पर कैसे हावी हुआ जाए। वह कुटिल बन जाएगा। जो रचनाशील है, वह रचेगा। जो नहीं रच सकता, वह नष्ट करेगा, क्योंकि उसे भी तो दुनिया को दिखाना है कि वह भी है।

जो रोगी है, अस्वस्थ है, बदसूरत है, प्रतिभाहीन है, जिसमें रचनाशीलता नहीं है, जो घटिया है, जो मूर्ख है, ऐसे सभी लोग वर्चस्व स्थापित करने के मामले में काफी चालाक होते हैं। वे हावी रहने के तरीके और जरिए खोज ही निकालते हैं। वे राजनेता बन जाते हैं। वे पुरोहित बन जाते हैं। और चूँकि जो काम वे खुद नहीं कर सकते, उसे वे दूसरो को भी नहीं करने दे सकते। इसलिए वे हर तरह की खुशी के खिलाफ होते हैं।

जरा इसके पीछे का कारण देखो। अगर वह खुद जिंदगी का मजा नहीं ले सकता तो वह कम से कम तुम्हारे मजे में जहर तो घोल ही सकता है। इसीलिए सभी तरह के विकलांग एक जगह जमा होकर अपनी बुद्धि लगाते हैं ताकि जोरदार नैतिकता का ढाँचा खड़ा कर सकें और फिर उसके आधार पर हर चीज की भर्त्सना कर सकें। बस कुछ न कुछ नकारात्मक खोज निकालना है, वह तुम्हें मिल ही जाएगा, क्योंकि वह तो समस्त सकारात्मकता के अंग के रूप में होता ही है।

जब तुम प्रेम करते हो, तो नफरत भी कर सकते हो। जो व्यक्ति नपुंसक है और प्रेम नहीं कर सकता, वह हमेशा नकारात्मक पर ही जोर देगा। वह हमेशा नकारात्मक को ही बढ़ा-चढ़ाकर पेश करेगा। वह हमेशा तुमसे कहेगा- अगर तुम प्रेम में पड़े तो दुख उठाओगे। तुम जाल में फँस जाओगे, तुम्हें तकलीफें भोगनी होंगी। और, स्वाभाविक रूप से जब भी घृणा के क्षण आएँगे और तुम दुख का सामना करोगे तो तुम्हें वह व्यक्ति याद आएगा कि वह सही कहता था।

फिर, घृणा के क्षण तो आने ही हैं। फिर एक स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है कि मनुष्य रोगों के प्रति ज्यादा सचेत होता है न कि स्वास्थ्य के प्रति। जब स्वस्थ होते हो तो तुम अपने शरीर के बारे में भूल जाते हो। लेकिन, जैसे ही सिर दर्द होता है या और कोई दर्द, या फिर पेट का दर्द तो देह को नहीं भूल पाते। देह होती है तब, प्रमुखता से होती है, बड़े जोर से होती है, वह तुम्हारा दरवाजा खटखटाती है। वह तुम्हारा ध्यान खींचती है।

जब तुम प्रेम में होते हो और खुश होते हो तो भूल जाते हो। लेकिन, जब संघर्ष, नफरत और गुस्सा होता है तो तुम उसे बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने लगते हो। ऊपर से वे विकलांग लोग, वे नैतिकतावादी, वे पुरोहित, वे राजनेता, वे मिल कर चिल्लाते हैं एक स्वर से कि देखो, हमने तुमसे पहले ही कहा था, और तुमने हमारी नहीं सुनी। प्रेम को त्यागो। प्रेम दुख बनाता है। इसे त्यागो, उसे त्यागो, जीवन को त्यागो। इन बातों को अगर बार-बार दोहराया जाता रहता है तो उनका असर होने लगता है। लोग उनके सम्मोहन में फँस जाते हैं।

तुम कहते हो कि तुम उपवास करते रहे हो, तुमने ब्रह्मचर्य व्रत का पालन किया है। उपवास का भला बुद्धत्व से क्या ताल्लुक हो सकता है? ब्रह्मचर्य का बुद्धत्व से कोई संबंध नहीं हो सकता? बेतुकी बात है। जो भी तुम करते हो जैसे कि तुम कहते हो कि मैं बुद्धत्व प्राप्त करने के लिए रात-रात भर जागता रहता हूँ। दिन में बुद्धत्व प्राप्त करने की कोशिश क्यों नहीं करते? रात भर जागने की क्या जरूरत है? ये कुदरत के विरोध में तुम कयों खड़े हुए हो?

बुद्धत्व प्रकृति के खिलाफ नहीं होता। वह प्रकृति की परितृप्ति है। वह तो प्रकृति की चरम अभिव्यक्ति है। वह तो जितना संभव हो सकता है, उतनी प्रकृति है। प्रकृति के खिलाफ होने पर नहीं, बल्कि साथ होने पर ही तुम बुद्धत्व तक पहुँचते हो। वह बहाव के खिलाफ तैरने से नहीं, बल्कि उसके साथ बहने से मिलता है। नदी की यात्रा तो पहले से ही समुद्र की तरफ है। तुम्हें उसके खिलाफ तैरना शुरू करने की कोई जरूरत नहीं, जबकि तुम करते यही रहे हो।

अब तुम पूछोगे कि तो मुझे क्या करना चाहिए? मैं कहूँगा कि दुख के प्रति अपनी आसक्ति त्याग दो। तुम बुद्धत्व की खोज नहीं कर रहे हो, बल्कि तुम तो दुख की खोज में लगे हुए हो। बुद्धत्व तो सिर्फ एक बहाना है।

जीवन से प्रेम करो, और अधिक खुश रहो। जब तुम एकदम प्रसन्न होते हो, संभावना तभी होती है, वरना नहीं। कारण यह है कि दुख तुम्हें बंद कर देता है, सुख तुम्हें खोलता है। क्या तुमने यही बात अपने जीवन में नहीं देखी? जब भी तुम दुखी होते हो, बंद हो जाते हो, एक कठोर आवरण तुम्हें घेर लेता है। तुम खुद की सुरक्षा करने लगते हो, तुम एक कवच-सा ओढ़ लेते हो। वजह यह है कि तुम जानते हो कि तुम्हें पहले से काफी तकलीफ है और अब तुम और चोट बर्दाश्त नहीं कर सकते। दुखी लोग हमेशा कठोर हो जाते हैं। उनकी नरमी खत्म हो जाती है, वे चट्टानों जैसे हो जाते हैं।

एक प्रसन्न व्यक्ति तो एक फूल की तरह है। उसे ऐसा वरदान मिला हुआ है कि वह सारी दुनिया को आशीर्वाद दे सकता है। वह ऐसे वरदान से संपन्न है कि खुलने की जुर्रत कर सकता है। उसके लिए खुलने की कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि सभी कुछ कितना अच्छा है, कितना मित्रतापूर्ण है। पूरी प्रकृति उसकी मित्र है। वह क्यों डरने लगा? वह खुल सकता है। वह इस अस्तित्व का आतिथेय बन सकता है। वही होता है वह क्षण जब दिव्यता तुममें प्रवेश करती है। केवल उसी क्षण में प्रकाश तुममें प्रवेश करता है, और तुम बुद्धत्व प्राप्त करते हो।

साभार: दि रिवोल्यूशन पुस्तक से
सौजन्य: ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन