देश में जिस तरह से राष्ट्रीय प्रतीकों, धरोहरों को सहेजने और इतिहास को बदलने का काम चल रहा है, ठीक उसी समय में दुनिया के सबसे बेशकीमती और ल्यूक्रेटिव कोहिनूर हीरे का भी जिक्र हो रहा है। कोहिनूर का जिक्र ब्रिटेन की महारानी एलिजाबेथ की मृत्यु के बाद सुर्खियों में आया है, हालांकि कोहिनूर के साथ ही जेहन में भारत की गुलामी का प्रतीक और इससे जुड़ी श्राप की कहानियां भी जेहन में तैर जाती हैं।
दरअसल, श्रीजगन्नाथ सेना ने दावा किया है कि कोहिनूर हीरा भगवान जगन्नाथ का है। संगठन ने इसे ब्रिटेन से ऐतिहासिक पुरी मंदिर वापस लाने के लिए राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू से गुजारिश की है। महारानी एलिजाबेथ की मृत्यु के बाद उनके बेटे प्रिंस चार्ल्स महाराजा बन गए हैं, ऐसे में 105 कैरेट का हीरा उनकी पत्नी डचेस ऑफ कॉर्नवाल कैमिला के पास चला जाएगा।
जानना दिलचस्प होगा कि कैसे अलग-अलग कालखंड में दुनियाभर का सफर करते हुए कोहिनूर ब्रिटेन चला गया। आखिर क्या है कोहिनूर का इतिहास और इससे जुड़ी श्राप की कहानियां। क्या है कोहिनूर का इतिहास?
कोहिनूर कहां से आया, इसका कोई साफ जिक्र कहीं नहीं है। दक्षिण भारत में, हीरों से जुड़ी कई कहानियां रहीं हैं, लेकिन कौन सी कहानी सही है, ये कहना मुश्किल है। वहीं बहुत मोटे तौर पर हीरे का इतिहास बहुत पुराना माना गया है। करीब 5000 वर्ष पहले संस्कृत भाषा में सबसे पहले हीरे का उल्लेख किया गया था। इसे स्यामंतक मणि के नाम से जाना गया। हालांकि स्यामंतक को कोहिनूर से अलग माना जाता था। सबसे पहले 13वीं शताब्दी में सन 1304 में यह मालवा के राजा की निगरानी में सबसे प्राचीनतम हीरा था।
हिन्दू कथाओं में जिक्र मिलता है कि भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं यह मणि, जाम्वंत से ली थी, जिसकी पुत्री जामवंती ने बाद में श्री कृष्ण से विवाह भी किया था। एक दूसरी कथा के मुताबिक यह हीरा नदी की तली में करीब 3200 ई.पू. मिला था।
ऐतिहासिक प्रमाणों में यह भी कहा गया है कि यह गोलकुंडा की खान से निकला था, जो आंध्रप्रदेश में है और दुनिया की सबसे पुरानी खानों में से एक हैं। सन 1730 तक यह दुनिया का एकमात्र हीरा उत्पादक क्षेत्र माना जाता रहा है। इसके बाद ब्राजील में भी हीरों की खोज हुई। लेकिन दक्षिण भारतीय कथा कुछ ज्यादा पुख्ता लगती है। सम्भव है कि हीरा आंध्रप्रदेश की कोल्लर खान, जो इस वक्त गुंटूर जिले में है, वहां से निकला था।
दुनिया में कोहिनूर का सफर : कहा जाता है कि 1339 में कोहिनूर हीरे को समरकन्द के नगर में लगभग 300 सालों तक रखा गया। इसके बाद कोहिनूर कई मुग़ल शासक के अधीन रहा। 14वीं शताब्दी में दिल्ली के शासक अलाउद्दीन खिलजी के पास कोहिनूर रहा। इसके बाद 1526 में मुगल शासक बाबर ने अपने लेख बाबरनामा में हीरे का जिक्र करते हुए कहा था कि उन्हें यह हीरा सुल्तान इब्राहीम लोधी ने भेंट किया। इसे उन्होंने बाबर का हीराबताया था।
बाबर के वंशज औरंगजेब और हुमायूं ने कोहिनूर हीरे को अपने वंशज महमद (औरंगजेब का पोता) को सौंप दिया। औरंगजेब इसे लाहोर की बादशाही मस्जिद में ले आया।
इसके बाद 1739 में परसिया के राजा नादिर शाह भारत आए। वे सुल्तान महमद के राज्य पर शासन करना चाहते थे। उन्होंने सुल्तान महमद को हराया और उनके राज्य और धरोहरों पर कब्जा कर लिया। कहा जाता है कि इसी दौरान नादिर शाह ने ही इस हीरे को कोहिनूर नाम दिया था। जिसे कई सालों तक उन्होंने परसिया में अपनी कैद में रखा।
1747 में नादिर शाह की हत्या कर दी गई और जनरल अहमद शाह दुर्रानी ने कोहिनूर को अपने कब्जे में ले लिया। अहमद शाह दुर्रानी के वंशज शाह शुजा दुर्रानी कोहिनूर को 1813 में वापस भारत ले आए। लंबे समय तक उन्होंने इसे अपने हाथ के कड़े में जड़वा कर पहना। इसके बाद शुजा दुर्रानी ने यह कोहिनूर सिक्ख समुदाय के संस्थापक राजा रंजीत सिंह को सौंप दिया। जिसके बदले में राजा रंजीत सिंह ने शाह शुजा दुर्रानी को अफ़ग़ानिस्तान से लड़ने एवं राजगद्दी वापस दिलाने में मदद की थी।
बता दें कि महाराज रंजीत सिंह के एक घोड़े का नाम भी कोहिनूर था। राजा रंजीत सिंह ने एक वसीयत में कोहिनूर हीरे को उनकी मृत्यु के बाद जगन्नाथपूरी (उड़ीसा) के मंदिर में देने की बात कही थी, लेकिन ईस्ट इंडिया कंपनी (East India Company) ने उनकी यह वसीयत नहीं मानी। 29 मार्च 1849 को द्वितीय एंग्लो– सिक्ख युद्ध में ब्रिटिश फोर्स ने राजा रंजीत सिंह को हरा दिया था और उनकी सारी धनसंपदा और राज्य पर कब्जा कर लिया। जिसके बाद ब्रिटिश सरकार ने लाहोर की संधि लागू करते हुए कोहिनूर को ब्रिटिश (इंग्लैंड) की महारानी विक्टोरिया को सौंपने की बात कही। हर कालखंड में कई देशों का सफर करते हुए कोहिनूर वर्तमान में लंदन के टॉवर में ज्वेल हाउस में रखा गया है।
कोहिनूर के बारे में अंधविश्वास : दुनिया में कोहिनूर के प्रति जितना ज्यादा है, उतना ही उसे लेकर अंधविश्वास भी है। कोहिनूर के बारे में कहा जाता है कि कुछ लोगों के लिए यह एक श्राप की तरह है। हिन्दी भाषा का साहित्य भी इस हीरे को लेकर रोचक कहानियों और अंधविश्वास से भरा पडा है। कई किस्सों और कहानियों में कहा गया है कि अगर कोई पुरुष इस हीरे को पहनता है तो उसे श्राप लग सकता है और वो कई तरह के दोषों से घिर जाएगा। कोहिनूर के बारे में कहा गया है कि इसे सिर्फ कोई औरत या भगवानस्वरूप कोई संत ही पहन सकते हैं।
ऐसे में अब ब्रिटेन की महारानी एलिजाबेथ की मृत्यु के बाद ब्रिटेन के राजघराने की गद्दी एक किंग यानी पुरुष को मिलेगी, ऐसे में क्या कोहिनूर किसी तरह से राजपरिवार या उनके जीवन को प्रभावित करेगा, यह देखना भी दिलचस्प होगा। इससे भी ज्यादा दिलचस्प होगा अगर इसे फिर से भारत में लाने की कवायद की जाती है
एक नजर में कोहिनूर की यात्रा
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कोहिनूर सबसे मशहूर हीरा है। पहले ये लगभग 793 कैरेट का था, अब लगभग 105.6 कैरेट का रह गया।
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एक गोलकुंडा वर्गीकृत कोहिनूर हीरा आज ब्रिटेन में लंदन के टॉवर में है। यह ब्रिटेन के राजपरिवार के पास है।
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कोहिनूर का इतिहास 5000 साल पुराना है। फारसी में इसके नाम का अर्थ रोशनी का पहाड़ है (Mountain of Light)
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1339 में कोहिनूर हीरे को समरकन्द के नगर में लगभग 300 सालों तक रखा गया।
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14वीं शताब्दी में अलाउद्दीन खिलजी के पास कोहिनूर रहा।
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1526 में मुगल शासक बाबर ने बाबरनामा में हीरे का जिक्र करते हुए इसे बाबर का हीरा बताया था।
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1739 में परसिया के राजा नादिर शाह भारत आए। उन्होंने सुल्तान महमद को हराया और उनकी धरोहरों पर कब्जा कर लिया।
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नादिर शाह ने ही इस हीरे को कोहिनूर नाम दिया था। जिसे कई सालों तक उन्होंने परसिया में अपनी कैद में रखा।
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1747 में नादिर शाह की हत्या कर दी गई और जनरल अहमद शाह दुर्रानी ने कोहिनूर को अपने कब्जे में ले लिया।
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अहमद शाह दुर्रानी के वंशज शाह शुजा दुर्रानी कोहिनूर को 1813 में वापस भारत ले आए।
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राजा रंजीत सिंह ने एक वसीयत में कोहिनूर हीरे को उनकी मृत्यु के बाद जगन्नाथपूरी (उड़ीसा) के मंदिर में देने की बात कही थी। लेकिन ईस्ट इंडिया कंपनी (East India Company) ने उनकी यह वसीयत नहीं मानी।
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29 मार्च 1849 को द्वितीय एंग्लो– सिक्ख युद्ध में ब्रिटिश फोर्स ने राजा रंजीत सिंह को हरा दिया था और उनकी सारी धनसंपदा और राज्य पर कब्जा कर लिया।