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Last Modified: नई दिल्ली , शुक्रवार, 6 दिसंबर 2024 (17:35 IST)

हाशिमपुरा नरसंहार मामला : सुप्रीम कोर्ट ने 8 दोषियों को दी जमानत, घटना में 38 लोगों की हुई थी मौत

 Supreme Court
Hashimpura Massacre Case : उच्चतम न्यायालय ने 1987 में ‘प्रादेशिक आर्म्ड कान्स्टेबुलरी’ के कर्मियों द्वारा 38 लोगों की हत्या से जुड़े हाशिमपुरा नरसंहार मामले में 8 दोषियों को जमानत दे दी। अपीलकर्ता उच्च न्यायालय के फैसले के बाद से 6 साल से अधिक समय से जेल में हैं। यह घटना तब हुई थी, जब पीएसी की 41वीं बटालियन की ‘सी-कंपनी’ के जवानों ने सांप्रदायिक तनाव के दौरान उत्तर प्रदेश के मेरठ में 50 मुस्लिम पुरुषों को घेर लिया था। सांप्रदायिक दंगों के कारण पीड़ितों को सुरक्षित स्थान पर ले जाने के बहाने उन्हें गोली मार दी गई और उनके शवों को एक नहर में फेंक दिया गया था।
 
न्यायमूर्ति अभय एस ओका और न्यायमूर्ति ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की पीठ ने चार दोषियों की ओर से पेश हुए वरिष्ठ अधिवक्ता अमित आनंद तिवारी की इन दलीलों पर गौर किया कि उन्हें बरी करने के अधीनस्थ अदालत के फैसले को दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा पलटे जाने के बाद से वे लंबे समय से जेल में हैं।
तिवारी ने शुक्रवार को समी उल्ला, निरंजन लाल, महेश प्रसाद और जयपाल सिंह का प्रतिनिधित्व करते हुए दलील दी कि अपीलकर्ता उच्च न्यायालय के फैसले के बाद से छह साल से अधिक समय से जेल में हैं। उन्होंने कहा कि अपीलकर्ताओं को पहले अधीनस्थ अदालत द्वारा बरी किया जा चुका है तथा अधीनस्थ अदालत में सुनवाई और अपील प्रक्रिया के दौरान उनका आचरण अच्छा रहा है।
 
उन्होंने यह भी दलील दी कि अधीनस्थ अदालत द्वारा सोच-विचारकर पारित किए गए बरी करने के फैसले को उच्च न्यायालय ने पलटने का गलत आधार पर निर्णय लिया। शीर्ष अदालत ने दलीलों पर गौर किया और आठ दोषियों की आठ लंबित जमानत याचिकाओं को स्वीकार कर लिया।
हाशिमपुरा नरसंहार 22 मई 1987 को हुआ था, जब पीएसी की 41वीं बटालियन की ‘सी-कंपनी’ के जवानों ने सांप्रदायिक तनाव के दौरान उत्तर प्रदेश में मेरठ के हाशिमपुरा इलाके से लगभग 50 मुस्लिम पुरुषों को घेर लिया था। सांप्रदायिक दंगों के कारण पीड़ितों को सुरक्षित स्थान पर ले जाने के बहाने शहर के बाहरी इलाके में ले जाया गया था, जहां उन्हें गोली मार दी गई और उनके शवों को एक नहर में फेंक दिया गया था।
 
इस घटना में 38 लोगों की मौत हो गई थी तथा केवल पांच लोग ही इस भयावह घटना को बयां करने के लिए बचे। अधीनस्थ अदालत ने 2015 में 16 पीएसी कर्मियों को उनकी पहचान और संलिप्तता को साबित करने वाले साक्ष्यों के अभाव का हवाला देते हुए बरी कर दिया था।
दिल्ली उच्च न्यायालय ने 2018 में अधीनस्थ अदालत के फैसले को पलट दिया और 16 आरोपियों को भारतीय दंड संहिता की धाराओं 302 (हत्या), 364 (हत्या के लिए अपहरण) और 201 (साक्ष्य मिटाना) के साथ धारा 120 बी (आपराधिक साजिश) के तहत दोषी ठहराया और उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई। दोषियों ने उच्च न्यायालय के फैसले को चुनौती दी और उनकी अपील शीर्ष अदालत में लंबित हैं। (भाषा)
Edited By : Chetan Gour