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Written By Author विकास सिंह
Last Modified: शनिवार, 13 अगस्त 2022 (09:31 IST)

चर्चित मुद्दा: रेवड़ी कल्चर जरूरी या सियासी मजबूरी?

चर्चित मुद्दा: रेवड़ी कल्चर जरूरी या सियासी मजबूरी? - Rewari culture necessary or political compulsion?
रेवड़ी कल्चर इस समय देश में सबसे चर्चित मुद्दा बन गया है। राजनीति के अखाड़े से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक रेवड़ी कल्चर पर बहस तेज हो गई है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लगातार अपने भाषणों में रेवड़ी कल्चर को लेकर नाराजगी जाहिर कर रहे है तो वहीं दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने रेवड़ी कल्चर पर जनमत संग्रह का शिगूफा छेड़ नहीं बहस को जन्म दे दिया है। ऐसे में आज चर्चित मुद्दें में बात करेंगे कि रेवड़ी कल्चर क्या आज देश में जरूरी है या वेलफेयर स्टेट के लिए अवधारणा वाले राज्य के लिए यह मजबूरी बन गया है?
 
‘रेवड़ी कल्चर’ गंभीर मुद्दा-खबर की शुरुआत रेवड़ी कल्चर पर सुप्रीम कोर्ट की उस टिप्पणी से जिसमें शीर्ष अदालत ने 'रेवड़ी कल्चर'  को गंभीर माना है। गुरुवार को सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने सरकार के पैसे का उपयोग इंफ्रास्ट्रक्चर के लिए करने की बात कही। सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि अर्थव्यवस्था को धनराशि और लोगों के कल्याण के बीच संतुलन रखना होगा। वहीं सुनवाई के दौरान आम आदमी पार्टी ने सुप्रीम कोर्ट में दलील दी कि कल्याणकारी योजनाओं और मुफ्त के 'रेवड़ी कल्चर' में अंतर है। 
 
रेवड़ी कल्चर पर जनमत संग्रह की मांग-देश में बढ़ते रेवड़ी कल्चर पर प्रधानमंत्री लगातार अक्रामक है। पीएम मोदी ने बुधवार को एक कार्यक्रम में जनता को लुभावने वादों से वोटबैंक बनाने के लिए 'रेवड़ी कल्चर' को लेकर फिर विपक्षी पार्टियों पर तंज कसा। पीएम मोदी ने कहा कि फ्री की सुविधाएं देंगे और राजनीति में स्वार्थ होंगे तो कोई भी आकर कल पेट्रोल-डीजल भी फ्री में देने की घोषणा कर सकता है। 

वहीं दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने पलटवार करते हुए पीएम को मुफ्त सुविधाओं को लेकर जनमत संग्रह कराने को लेकर चैलेंज दिया। केजरीवाल ने मोदी सरकार को घेरते हुए कहा कि इस बात पर जनमत संग्रह होना चाहिए कि सरकार का धन पार्टी की इच्छा अनुसार किसी एक परिवार या किसी के मित्रों पर खर्च होना चाहिए या इसे देश में बेहतर स्कूल एवं अस्पताल बनाने के लिए खर्च किया जाना चाहिए। 
 
रेवड़ी कल्चर और गरीब कल्याण-सोशल वेलफेयर स्टेट की अवधारणा के साथ कार्य करने वाली सरकार (कल्याणकारी सरकार) जनता के कल्याण करने के लिए प्रतिबद्ध है। आज ऐसे समय जब सरकार गरीब कल्याण के नाम पर देश के 80 करोड़ लोगों को मुफ्त में अनाज दे सकती है तब ‘रेवड़ी कल्चर’ पर बहस के पक्ष और विपक्ष में भी अपने-अपने तर्क है। 

चुनाव के समय और सरकार में आने के बाद गरीब कल्याण के नाम पर रेवड़ी बांटने का काम सरकार और राजनीतिक दल अपनी सुविधा के अनुसार करते है। प्रधानमंत्री से लेकर मुख्यमंत्री गरीब कल्याण के नाम पर सरकारें अपनी योजनाओं को ढिंढोरा पीटती है। मुफ्त अनाज, मुफ्त मकान, मुफ्त बिजली जैसी रेवड़ी कल्चर की योजना इसी का एक अनिवार्य हिस्सा है। 

सब्सिडी और मुफ्त में अंतर जरूरी-गरीब-कल्याण की भावना के साथ काम करने वाली सरकार गरीब और जरूरतमदों को सब्सिडी के साथ अनेक सुविधाएं उपलब्ध कराती है इसमें सरकारी अस्पताल में सस्ता इलाज, स्कूलों में मुफ्त शिक्षा और मिडडे मील के साथ अन्य कई सुविधाएं शामिल है। 

आर्थिक अर्थों में मुफ्त के प्रभावों को समझने और इसे करदाताओं के पैसे से जोड़ने की ज़रूरत है। सब्सिडी और मुफ्त में अंतर करना भी आवश्यक है क्योंकि सब्सिडी जरूरतमदों मिलने वाले उचित और एक वर्ग विशेष को दिए जाने वाला लाभ हैं,जबकि मुफ्तखोरी काफी अलग है।

तर्कों के साथ मुफ्त सुविधाएं जरूरी?-विकासशील देशों की श्रेणी में शामिल भारत में अभी भी ऐसे लोगों का एक बड़ा समूह है जो गरीबी रेखा से नीचे रहता है। हर देशवासी के समग्र विकास के साथ विकास योजना में समाज के सभी वर्ग और लोगों को शामिल करना भी ज़रूरी है। बुनियादी ज़रूरतों में सब्सिडी जैसे-छोटे बच्चों को मुफ्त शिक्षा देना या स्कूलों में मुफ्त भोजन देना,अस्पतालों में मुफ्त इलाज देना सकारात्मक दृष्टिकोण है।

विवेकपूर्ण और नीति बनाकर मुफ्त या सब्सिडी के जरिए जरूरतमदों को दी जाने वाली ऐसी मदद जिसे राज्यों के बजट में आसानी से समायोजित किया जा सकता हो, वो अधिक नुकसान नहीं करती है एवं इसका लाभ उठाया जा सकता है।

सिस्टम और नीति पर फोकस की जरूरत-चुनाव में जीतने के बाद पांच साल के कार्यकाल के लिए राजनीतिक दल की सरकार जब सत्ता में होती है तो गरीब कल्याण के साथ कार्य करने के साथ इस महत्त्वपूर्ण अवधि में मुफ्त के वादे के बजाय उचित प्रावधान करना चाहिए। समाज की बेहतरी और सुशासन सुनिश्चित करना सरकार एवं अन्य सभी राजनीतिक दलों की ज़िम्मेदारी है, इसलिये लोगों को इस तरह के मुफ्त उपहार देने की एक सीमा होनी ज़रूरी है।
 
सियासी रोटियां सेंकने वाले राजनीतिक दल अगर बेहतर और प्रभावी आर्थिक नीतियां बनाए और उसे लाभार्थियों तक सही तरीके से पहुंचाए तो तो इस प्रकार की मुफ्त घोषणाओं की ज़रूरत नहीं रहेगी। चुनाव के समय सियासी पार्टियों को अपने घोषणा पत्र में उन आर्थिक नीतियों या विकास मॉडलों को विस्तार से बताना चाहिए जिसको वह अपनाने की योजना बना रही हैं। उन्हें जनता के सामने उन नीतियों को स्पष्ट रूप से बताया जाना चाहिए और प्रभावी ढंग से लागू किया जाना चाहिए।
 
सत्ता में समय का उपयोग करना सही धारणा है। यानी पाँच साल का कार्यकाल जब एक राजनीतिक दल की सरकार सत्ता में होती है तो इस महत्त्वपूर्ण अवधि में मुफ्त के वादे के बजाय उचित प्रावधान करना चाहिये। समाज की बेहतरी और सुशासन सुनिश्चित करना सरकार एवं अन्य सभी राजनीतिक दलों की ज़िम्मेदारी है, इसलिये लोगों को इस तरह के मुफ्त उपहार देने की एक सीमा होनी ज़रूरी है।
 
गरीबों में मुफ्तखोरी की आदत डालना सही नहीं-अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के समय बनाए गए राष्ट्रीय आयोग ने भी देश में बढ़ते मुफ्त के कल्चर पर एतराज जताया था। आयोग के सदस्य और संविधान विशेषज्ञ सुभाष कश्यप कहते हैं कि आज जिस तरह से सरकारें गरीबों के हित के नाम पर मुफ्त की स्कीम लॉन्च कर रही है वास्तव में वह इससे अपने राजनीतिक हितों की पूर्ति कर रही है। वह देश के गरीबों में मुफ्तखोरी की आदत डालना सही नहीं है। वह कहते हैं कि मुफ्तखोरी की सियासत से लोकतंत्र को खतरा हो सकता है। मुफ्तखोरी की सियासत से देश की इकोनॉमी के बैठने का खतरा हो जाएगा। ऐसे में इकोनॉमी बैठने से देश को खतरा हो गया और इसके साथ निष्क्रियता को बल मिलेगा अगर मुफ्त का राशन मिलेगा तो लोग काम करना बंद कर देंगे। हिंदुस्तान में लोगों को बहुत कम में जीवन निर्वाहन करने की आदत है ऐसे में जब मुफ्त राशन मिलेगा तो काम क्यों करेंगे। 

‘वेबदुनिया’ से बातचीत में सुभाष कश्यप ने कहा कि संविधान के कामकाज की समीक्षा करने के लिए राष्ट्रीय आयोग National Commission to review the Working of the Constitution जिसके अध्यक्ष जस्टिस एमएन राव वेंकटचलैया थे और मैं डॉफ्टिंग कमेटी का चैयरमैन था उसने अपनी सिफारिश में कहा था कि सबको काम मिलना चाहिए और काम के पैसे मिलना चाहिए, काम कराके पैसा देना उचित है। 

जन-जागरूकता सबसे प्रभावी कदम-यह जनता ही है जो सही चुनाव करके राजनीतिक दलों को इस तरह के मुफ्तखोरी से अधिक प्रभावी ढंग से हतोत्साहित कर सकती है। लोगों को यह महसूस होना चाहिए कि वे अपने वोट मुफ्त में बेचकर क्या गलती करते हैं। यदि वे इन चीज़ों का विरोध नहीं करते हैं तो वे अच्छे नेताओं और सरकार की अपेक्षा नहीं कर सकते।

अगर रेवड़ी बांटने के लिए इस्तेमाल की जानी वाली राशि को रोज़गार के अवसर पैदा करने और इंफ्रास्ट्रक्चर के विकास जैस बांध और झीलों जैसे बुनियादी ढाँचे के निर्माण तथा कृषि को प्रोत्साहन प्रदान करने के लिये उपयोग किया जाता है तो निश्चित रूप से लोगों का सामाजिक उत्थान और प्रगति होगी।

ऐसे में जब रेवड़ी कल्चर ने राज्यों लाखों के कर्ज के बोझ के तले दब दिया है। जैसे पंजाब पर तीन लाख करोड़ रुपये, यूपी पर छह लाख करोड़ और पूरे देश पर 70 लाख करोड़ रुपये का कर्ज है। ऐसे में अगर सरकार मुफ्त सुविधा देती है तो ये कर्ज और बढ़ जाएगा। आज जरूरत इस बात की है कि केंद्र और राज्यों में सत्तारूढ़ दल इस तरह की पहल कर ऐसे उदाहरण स्थापित करने वाली पहली पार्टी होनी चाहिये।

भारत की राजनीति में ‘रेवड़ी कल्चर’ का लंबा इतिहास-भारतीय राजनीति में ‘मुफ्त’ का कार्ड अब चुनाव जीतने की गारंटी सा बन गया है। दक्षिण के राज्यों की सियासत में मुफ्त बांटने की प्रवृत्ति सबसे पहले पनपी। साड़ी, प्रेशर कुकर से लेकर टीवी, वॉशिंग मशीन तक मुफ्त बांटी जाने लगी। तमिलनाडु में मुख्यमंत्री जयललिता के शासनकाल में अम्मा कैंटीन खूब फली-फूली लेकिन मुफ्त बांटने की सियासत परिणाम यह हुआ कि राज्यों की अर्थव्यवस्था  कर्ज के बोझ तले दबने लगी। 
 
देश में दक्षिण भारत की सियासत से अपनी एंट्री करने वाला ‘मुफ्त बांटने’ का कार्ड अब उत्तर भारत के साथ-साथ पूरे देश में अपने पैर जमा चुका है। अगर कहा जाए कि आज भारत में मुफ्त बांटकर वोट पाना एक शॉर्टकट बन गया है, तो यह गलत नहीं होगा।

राजनीतिक दल अपने वोट बैंक को साधने के लिए ‘मुफ्त’ को चुनावी टूल के रूप में इस्तेमाल कर रहे है। वोटरों को रिझाने के लिए मुफ्त अनाज,मुफ्त बिजली, मुफ्त पानी, मुफ्त शिक्षा, मुफ्त लैपटॉप, मुफ्त स्कूटी, मुफ्त स्मार्टफोन के साथ-साथ बेरोज़गारी भत्ता भी केंद्र और राज्य की सरकारें खुलकर दे रही है।
 
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