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Last Modified: मंगलवार, 20 जून 2017 (12:27 IST)

आर्यों के बारे में एक और शोध, आखिर कहां से आए थे आर्य...

आर्यों के बारे में एक और शोध, आखिर कहां से आए थे आर्य... - research on Arya
पिछले कुछेक वर्षों में मानव इतिहास के जीनोम वाइड अध्ययन में जो कुछ परिवर्तन हुआ है, वह बड़ी तेजी से, नाटकीयता से और पूरी ताकत के साथ आधुनिक और प्राचीन डीएनए के मानव इतिहास के तौर पर सामने आया है। इसमें जीनोम‍िक्स की तकनीक में बड़ा अंतर आया है। आनुवांशिकी विज्ञानी और हार्वर्ड मेडिकल स्कूल के प्रोफेसर डेविड राइख का यह कहना बहुत महत्वपूर्ण है।  
 
भारतीय इतिहास के सबसे अधिक विवादित सवाल- क्या आर्य किसी दूसरे स्थान से भारत में आए थे- को सुलझाने में इतिहासविदों ने डीएनए की मदद ली है और इसके निष्कर्षों को विश्वास के साथ मान रहे हैं। यह भारतीय इति‍हास के सबसे विवादास्पद प्रश्न रहा है कि क्या भारतीय- यूरोपीय भाषा भाषी लोग, जिन्होंने स्वयं को आर्य बताया था, भारत में ईसापूर्व 2000 वर्ष से ईसापूर्व 1500 के दौरान भारत में आए थे? उल्लेखनीय है कि इस दौरान सिंधु घाटी की सभ्यता की समाप्ति हो चुकी थी। कहा जाता है कि ये लोग संस्कृत‍ भाषा और विशेष प्रकार की सांस्कृतिक प्रथाओं के साथ भारत आए थे। 
 
हालांकि शोध पर इस आधार पर भी सवाल उठ रहे हैं कि महाभारत काल को ईसा से करीब 5000 साल पहले का माना जाता है। उस समय के लोगों को भी आर्य माना जाता था। ऐसे में इस शोध के निष्कर्ष लोगों के गले नहीं उतर रहे हैं। दूसरी ओर इस शोध में यह जवाब भी नहीं है कि यदि आर्य बाहर से आए थे, तो फिर यहां के निवासी कौन थे। 
 
हिन्दुस्तान में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक नई जेनेटिक शोध के आधार पर इस प्रश्न का उत्तर 'हां' में हो सकता है। नए डीएनए प्रमाणों की खेप की रोशनी में दुनिया भर के आनुवांशिक विज्ञानी भी यह मान रहे हैं कि 'हां' ऐसा हुआ होगा। हाल के वर्षों में आनुवांशिकी आधारित शोध पर इन नई खोज से जानकार विद्वान हतप्रभ और स्तब्ध हैं कि यह सवाल का स्पष्ट जवाब है कि भारत में आर्य बड़ी संख्या में दूसरे स्थानों से आए थे। विदित हो कि इससे पहले के कुछेक वर्षों तक इस धारणा को नकारा जाता रहा है और इसे कल्पना की उड़ान माना जाता था कि ऐसा कुछ हुआ होगा, लेकिन अब इसे नए सबूतों की रोशनी में सच्चाई के करीब माना जा रहा है।
 
वाई क्रोमोजोम्स (या वे क्रोमोजोम्स जो कि पुरुष पालक की ओर से एक पिता से पुत्र में आते हैं) के संबंध में एक अहम बात यह है कि अब तक की शोध के आंकड़े केवल मातृसत्तात्मक आंकड़ों के रूप में मौजूद थे। एमटी डीएनए एक मां से बेटी में स्थानांतरित होता है और इससे यह निष्कर्ष निकाला गया था कि पिछले साढ़े बारह हजार वर्ष या इसके आसपास की अवधि में भारतीय जीन पूल में कोई बाहरी मिलावट नहीं देखी गई है। लेकिन निष्कर्ष में अंतर का कारण यह है कि संबंधित काल खंड में एमटी डीएनए और वाई डीएनए आंकडों के आधार पर पहले निकाला निष्कर्ष अधूरा था और अब वाई डीएनए आंकडों ने इस निष्कर्ष को पूरी तरह से बदल दिया है।
 
पूरे मामले पर फिर से विचार करने पर यह निष्कर्ष सामने आया है कि कांस्य युग के इस विस्थापन को लेकर लिंग आधारित एक खास पूर्वाग्रह था। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि जो लोग बाहर से आने वाले थे उनमें पुरुष सत्ता प्रधान थे और इनका प्रवाह पिता से बेटे की ओर था, जबकि हमारे पास जो आंकड़े थे वे मैट्रीलाइनल डीएनए (जो कि एक मां से बेटी में जाते हैं) के थे। इससे यह बात भी सिद्ध होती थी कि जो लोग आए उनमें ज्यादातर पुरुष थे, इसलिए उनके जीन्स का प्रवाह मैट्रीलाइनल डीएनए में नहीं दिखा। लेकिन दूसरी ओर यह प्रवाह वाई डीएनए में आंकड़ों में नजर आया। इसके साथ ही, यह कहा गया कि विवादित कालखंड में पिछले 12 हजार 500 वर्षों में भारतीयों के जीन पूल (जीन्स के कुंड में) जीन्स की बाहर से कोई मिलावट सामने नहीं आई। इसलिए एमटी-डीएनए आंकड़ों में यह अंतर नहीं दिखा। 
 
इसके अंतर का कारण यह था कि कांस्य युग के इस विस्थापन में लिंग आधारित अंतर पाया गया था। इसके साथ ही वे एमटी डीएनए में दिखाई नहीं पड़ते हैं। लेकिन निष्कर्ष के अनुसार करीब 17.5 फीसदी भारतीय पुरुष (मेल लाइनेज) हैपलोग्रुप आर वन ए की है। हैपलोग्रुप एक क्षेत्र विशेष की अकेली लाइनेज (प्रवाह) होता है जहां से आरवनए का दोनों वर्गों की उप शाखाओं में बंट जाती है। भारत के इस प्रश्न को सुलझाने का समूचा विवरण मात्र तीन महीने पहले एक पत्रिका 'बीएससी इवोल्यूशनरी बायोलॉजी में प्रकाशित हुआ था।
 
ब्रिटेन में यूनिवर्सिटी ऑफ हडर्सफील्ड के प्रो. मार्टिन पी रिचर्ड्स ने निष्कर्ष निकाला था कि कांस्य युग में जेनेटिक अंत:प्रवाह मध्य एशिया से प्रमुख रूप से पुरुषोचित और नियमित तौर पर प्रारंभिक रूप से भारतीय-यूरोपीय समाज का प्रारंभिक दौर था। और यह इंडो- यूरोपियन विस्तार की बहुत विस्तृ्त प्रक्रिया थी जिसका मूल स्रोत पोंटिक-कैस्पियन क्षेत्र में था जिसने वर्ष 5 हजार से लेकर 3500 तक वाई क्रोमोजोम्स लाइनेज (प्रवाह) को यूरेशिया के एक बड़े क्षेत्र में फैलाया।
 
अपने एक ईमेल में प्रो. रिचर्ड्‍स ने लिखा है कि भारत में आर 1 ए की मौजूदगी इस बात का मजबूत प्रमाण था कि बड़े पैमाने पर कांस्य युग का स्थानांतरण मध्य एशिया से था जोकि भारत में इंडो-यूरोपीय भाषाएं बोलने वालों को यहां तक लाई। प्रो. रिचईस और उनकी टीम ने व्यापक शोध के आधार पर इस बात को साबित किया। नए आंकड़ों की मौजूदगी और निष्कर्षों ने दुनिया भर को नई जानकारी दी।
 
मात्र तीन वर्ष पहले 32 वैज्ञानिकों ने एक विस्तृत जानकारी सामने रखी जो कि आर 1 ए से संबंधित थी। इस अध्ययन में बताया गया कि आर 1 ए के दो उप हैपलोग्रुप्स हैं जिनमें से एक प्रमुख रूप से यूरोप में पाया जाता है और दूसरा मध्य और दक्षिण एशिया तक सीमित रहा। यूरोप का सब हैपलोग्रुप का 96 फीसदी हिस्सा सब-हैपलाग्रुप की शाखा जेड 93 की है जबकि मध्य-दक्षिण एशियाई का आर 1 ए हैपलोग्रुप जेड 93 है जो कि करीब 5800 वर्ष पहले एक दूसरे से अलग हुए। इसलिए कहा जा सकता है कि आर 1ए समूचे यूरोप, मध्य एशिया और दक्षिण एशिया में विभाजित है और सब ग्रुप के तीन बड़े सब ग्रुप जेड93 में विभाजित हैं जो कि केवल भारत, पाकिस्तान, अफगानिस्तान और हिमालय के भूभाग में फैले हैं। 
 
यह परिकल्पना एक दोषपूर्ण धारणा पर आधारित थी कि आर 1 ए की हैपलाग्रुप भारत में बहुत अधिक विभिन्नता है और यह इसलिए क्योंकि यह यहीं पैदा हुआ है। पर आज हम यह भी जानते हैं कि कांस्य युग में मध्य एशिया से भारत में जीन्स का प्रवाह महत्वपूर्ण था और इसके चलते जीन्स की शाखाएं भी विभाजित होती रहीं। इसी के साथ अप्रैल 2016 में एक शोध पत्र भी प्रकाशित हुआ जिसमें भारत की पुरुष डेमोग्राफी के विकास की बात कही गई है और वैश्विक तौर पर वाई डीएनए हेपलोग्रुप्स से 1244 सीक्वेंस बन गए और इससे प्रभावित जनसंख्या पांच महाद्वीपों में फैल गई।
 
नए आंकडों का प्रवाह और प्रकार इतनी तेजी से हुआ कि पहले जो वैज्ञानिक भारत में कांस्य युग में विस्थापन को लेकर शंकाग्रस्त थे, वे भी मानने लगे कि ऐसा हुआ होगा। स्वयं डॉ. अंडरहिल ने 2010 में स्वीकार किया कि पिछले पांच या छह हजार वर्षों के दौरान बड़ी मात्रा में पैट्रीलीनियल जीन प्रवाह पूर्वी यूरोप से भारत समेत एशिया में हुआ होगा।
 
इसी तरह हार्वर्ड मेडिकल स्कूल में प्रोफेसर डॉ. डेविड राइख ने 2009 में अपने शोधपत्र-रिकंस्ट्रकटिंग इंडियन पॉपुलेशन हिस्ट्री-में लिखा जिसे बाद में 'नेचर' में भी प्रकाशित किया गया। अपने इस शोध पत्र में उन्होंने 'एंसेस्ट्रल नॉर्थ इंडियन,' 'एंसेस्ट्रल साउथ इंडियन' (एएनआई और एएसआई)  जैसे शब्दों का उल्लेख किया और भारत की जनता के जेनेटिक सबस्ट्रक्चर को आकार देने का प्रयास किया। स्टानफोर्ड यूनिवर्सिटी स्कूल ऑफ मेडिसिन में आनुवांशिकी विभाग के वैज्ञानिक पीटर अंडरहिल ने भी तीन वर्ष पहले 32 वैज्ञानिकों की एक टीम का नेतृत्व किया और उनकी टीम ने आएवनए के जोड़ों, वितरण और बड़े पैमाने पर मैपिंग का अध्ययन किया। इसके तहत समूचे यूरेशिया के 126 देशों की आबादी के 16, 244 पुरुष नमूनों का विस्तृत अध्ययन किया। 
 
अपने अध्ययन में डॉ. अंडरहिल ने बताया कि आरवनए के दो हैप्लोग्रुप्स हैं जिनमें से एक प्रमुख रूप से यूरोप और दूसरा मध्य तथा दक्षिण एशिया में केन्द्रित है। यूरोप में पाए गए आरवनए सैम्पल्स के 96 फीसदी भाग उप हैप्लोग्रुप्स- जेड 282- के थे जबकि मध्य और दक्षिण एशियाई की आरवनए की लाइनेज (प्रवाह) का 98.8 फीसदी भाग उप हैप्लोग्रुप-उप हैप्लोग्रुप जेड93 का था। ये दोनों ही ग्रुप एक दूसरे से करीब 5800 वर्ष पहले अलग हुए थे। डॉ. अंडरहिल की शोध में बताया गया कि प्रमुख रूप से भारत में पाए जाने वाले जेड93 और भी कई शाखाओं में बंट गया। उनका कहना था कि स्टार लाइक ब्रांचिंग (शाखाओं में विभाजन) तेज वृद्धि और फैलाव कर सकते हैं।
 
इसलिए कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि आरवनए समूचे यूरोप, मध्य एशिया और दक्षिण एशिया में बंट गया जबकि इसका सब ग्रुप जेडटूएटटू केवल यूरोप में और इसका दूसरा सबग्रुप जेडनाइनथ्री केवल भारत, पाकिस्तान, अफगानिस्तान और हिमालयी क्षेत्र में पाया गया। इसमें से आरएनए के वितरण ने इस धारणा को मजबूत किया कि संभवत: यह सबग्रुप भारत में ही पैदा हुआ और इसके बाद बाहर की ओर फैला। यह परिकल्पना गलत धारणा पर आधारित थी कि भारत में पाए गए आरवनए में दूसरे क्षेत्रों की तुलना में अधिक विविधता थी जो कि इसके अपने विकास का संकेत था।
 
प्रोफेसर रिचर्ड्स कहते हैं कि कांस्य युग में भारत में मध्य एशिया का महत्वपूर्ण जीन्स प्रवाह हुआ था। नए आंकड़ों के एक अध्ययन में कहा गया कि डॉ. राइख ने 2009 में भारत के जनसंख्या इतिहास के पुन: निर्माण को चिन्हित किया और एंसेस्ट्रल नॉर्थ इंडियन और एंसेस्ट्रल साउथ इंडियन नाम दिए। इस अध्ययन से सिद्ध हुआ कि एएनआई और एएसआई में भारत की जनसंख्या को बांटा गया और यह भारतीय जनसंख्या का जेनेटिक सबस्ट्रक्चर बना।
 
एक अध्ययन में यह भी सिद्ध हुआ कि एएनआई जेनेटिकली मध्य पूर्व, मध्य एशियाई और यूरोपियनों के ज्यादा करीब थे, और एएसआई भारत के लिए अद्वितीय थे। अध्ययन में यह बात भी सामने आई कि आज भारत में जितने भी ग्रुप हैं, वे इन दोनों जनसंख्याओं के मिश्रण हैं। एएनआई पूर्वज परंपरागत रूप से उच्च जाति और इंडो यूरोपीयन भाषी थे। इससे यह निष्कर्ष भी निकाला गया कि एएनआई आनुवांशिक तौर पर मध्य पूर्व एशियाई लोगों के करीब थे। इसे दूसरे शब्दों में समझा जा सकता है कि एएनआई संभवत: कई बार के विस्थापन से बने और इसी तरह भारतीय यूरोपीय भाषा भाषी (स्पीकर्स) यहां आकर विकसित हुए।
 
लेकिन इस शोध को भी मीडिया में एक नए नजरिए से देखा गया और कहा गया कि आर्य द्रविड़ विभाजन एक कल्पना मात्र है। इसमें यह भी बताया गया कि प्रारंभिक सेटलमेंट अंडमान्स में करीब 65 हजार वर्ष पूर्व हुआ और इसी के साथ प्राचीन उत्तर और प्राचीन दक्षिण का मेल हुआ जिसने एक नई जनसंख्या को जन्म दिया जोकि जनसंख्या के तौर पर नई जनसंख्या थी। इस नए परिवर्तन से भारतीय यूरोपीय भाषा ‍भाषियों के कांस्य युग में आने को गलत ठहरा दिया गया था। इस परिवर्तन को गलत ठहराने के तीन तर्क इस प्रकार थे। 1- एमटी डीएनए आंकड़ों में इसका कोई चिन्ह न मिला और भारत में बाहर से बड़ा जीन फ्लो (प्रवाह) पिछले 12,500 वर्षों में नहीं हुआ। लेकिन यह तर्क दोषपूर्ण साबित हुआ कि जबकि पाया यह गया कि वाई डीएनए ने पिछले चार हजार या 4500 वर्षों पहले एक बड़ा जीन प्रवाह भारत में बाहर से आया।
 
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