भारत-चीन युद्ध के बाद सोवियत संघ के तत्कालीन मुखिया निकिता ख्रुश्चेव अपने विदेशमंत्री आंद्रेई ग्रोमिको और पोलित ब्यूरो-सदस्य मिख़ाइल सुस्लोव को साथ लेकर चीन पहुंचे थे। वहां उन्होंने चीनी नेताओं की जमकर खिंचाई की थी। हालांकि उस समय अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों के चलते चीन पीछे हट गया था, लेकिन धोखेबाज चीन आज भी भरोसे के लायक नहीं है। पढ़िए- 'जब भारत के लिए चीनी नेताओं से भिड़ गए थे सोवियत नेता ख्रुश्चेव' का अगला भाग...
हम 'हिंदुओं' को करारा जवाब देंगे : अब तक चुप रहे सोवियत विदेशमंत्री आंद्रेई ग्रोमिको को लगा कि अब उन्हें भी कुछ कहना चाहिए। उनका कहना था कि मॉस्को में भारत के राजदूत ने उन्हें यही बताया कि चीनी पत्र, मामले को सुलझाने के बदले और अधिक उलझाने वाला है। इसे सुनकर माओ त्से तुंग के डिप्टी ल्यू शाओची ताव में आ गए। बोले, मैंने जो पत्र (पेकिंग में) सोवियत दूतावास को दिया था, उसमें लिखा था कि 'हफ्ते भर के अंदर हम 'हिंदुओं' को करारा जवाब देंगे।' इस पर ख्रुश्चेव ने उनकी चुटकी लेते हुए कहा, 'हां-हां, उन्होंने फ़यरिंग भी शुरू की और ख़ुद ही मर भी गए!'
कुछ समय के लिए बहस का विषय बदला। उत्तरी कोरिया और वहां के शासक किम इल सुंग की तथा दलाई लामा की बात होने लगी। ख्रुश्चेव का कहना था कि चीनियों की जगह यदि वे होते, तो दलाई लामा को तिब्बत से भागने नहीं देते। माओ त्से तुंग का तर्क था कि यह संभव ही नहीं था। भारत के साथ सीमा इतनी लंबी है कि दलाई लामा उसे कहीं भी लांघ सकते थे।
सीमा का अतिक्रमण पहले 'हिंदुओं' ने किया : इसी के साथ चीनी नेता एक बार फिर आरोप लगाने लगे कि सीमा का अतिक्रमण पहले 'हिंदुओं' ने किया। फ़ायरिंग उन्होंने ही शुरू की। 12 घंटे तक लगातार फ़ायरिंग करते रहे। माओ और उनके रक्षामंत्री ने एक स्वर में कहा कि फ़ायरिंग का जवाब स्थानीय सैनिकों ने दिया, उन्हें ऊपर से कोई आदेश नहीं दिया गया था।
जब लगा कि कहा-सुनी में तल्खी कुछ घटी है, तो माओ त्से तुंग ने सोवियत नेताओं पर एक नया हमला बोल दिया। बोले, 'आप लोग हमारे ऊपर दो लेबल चिपका रहे हैं –– भारत के साथ झगड़े के लिए हम दोषी हैं और दलाई लामा का पलायन भी हमारी ही ग़लती है। हम, बदले में आपके ऊपर एक ही लेबल चिपकाते हैं –– अवसरवादी होने का। कृपया, इसे स्वीकार करें।'
आपके घमंडीपन का पता चल जाता है : 'नहीं, हम इसे स्वीकार नहीं करते। हम कम्युनिज़्म के सिद्धांतों पर चलते हैं,' ख्रुश्चेव का दो टूक उत्तर था। यह कहा-सुनी कुछ समय तक चलती रही। एक ऐसा भी क्षण आया, जब ख्रुश्चेव ने कहा कि 'मैं तो असल में अपना सूटकेस बांध कर अभी ही यहां से जा सकता हूं, पर नहीं जाऊंगा। ...आप लोग दूसरों की आपत्तियां सह तो पाते नहीं और समझते हैं कि आप बड़े पाक़-साफ़, बड़े शास्त्रसम्मत हैं। इसी से आपके घमंडीपन का पता चल जाता है।'
इस कहा-सुनी के बाद बहस एक बार फिर भारत और नेहरू पर आ गई। चीनी विदेशमंत्री चेन यी ने ख्रुश्चेव पर निशाना साधते हुए कहा, 'मैं आपके इस कथन से घोर अपमानित हूं कि भारत के साथ संबंधों का बिगाड़ हमारी करनी है।' ख्रुश्चेव बोले, 'मैं भी आपके इस कथन से घोर अपमानित हूं कि हम अवसरवादी हैं। हमें नेहरू का साथ देना चाहिए ताकि वे सत्ता में बने रह सकें। ...यदि आप हमें अवसरवादी समझते हैं, कॉमरेड चेन यी, तो अपना हाथ मेरी तरफ़ न बढ़ाएं, मैं उसे स्वीकार नहीं करूंगा।'
मुझे आपके गुस्से से कोई डर नहीं लगता : 'मैं भी नहीं,' चेन यी ने कहा। 'मैं यह भी कह देता हूं कि मुझे आपके गुस्से से कोई डर नहीं लगता।' ख्रुश्चेव ने चेन यी के मुंह लगने के बदले विषय बदल दिया और बहस को सोवियत तथा चीनी कम्युनिस्ट पार्टियों के आपसी संबंधों की तरफ़ मोड़ दिया।
तत्कालीन सोवियत संघ और चीन के प्रमुख नेताओं के बीच 2 अक्टूबर, 1959 को हुई इस बातचीत के संलेख से इस बात में कोई संदेह नहीं रह जाता कि कौन हम 'हिंदीयों' का भाई कहलाने लायक था और कौन नहीं। यह स्थिति आज भी ज्यों की त्यों है। आज भी रूस भारत के बहुत निकट है और चीन बहुत दूर। आज भी चीनी नेताओं की बातों पर कोई भरोसा नहीं किया जा सकता।
नेहरू का चीनियों पर घातक भरोसा : पंडित नेहरू को तो एक समय चीनियों पर इतना भरोसा था कि वे संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की ताइवान वाली पांचवीं स्थायी सीट, भारत के बदले, चीन को दिलवाने पर तुले हुए थे। चीन ने उनके इस भरोसे का सबसे निर्मम उत्तर 20 अक्टूबर 1962 को सवा तीन हज़ार किलोमीटर लंबी भारत की पूरी उत्तरपूर्वी सीमा का अतिक्रमण करने वाले अपने आक्रमण के साथ दिया। यह लड़ाई पूरे एक महीने तक चली और चीन की ओर से एकतरफ़ा युद्धविराम के साथ 21 नवंबर 1962 को थमी।
प्रश्न उठता है कि चीन ने 1962 के 20 अक्टूबर वाले दिन ही भारत पर आक्रमण क्यों किया और भारत की कमज़ोरियों को जानते हुए भी, 21 नवंबर को खुद ही पीछे क्यों हट गया? उत्तर है, 1962 का वह क्यूबा-संकट, जो क्यूबा में सोवियत मिसाइलों की तैनाती के विरुद्ध अमेरिका की ज़ोरदार धमकियों के कारण पैदा हो गया था। कम्युनिस्ट देश क्यूबा और उसके सबसे नज़दीकी अमेरिकी राज्य फ्लोरिडा के बीच केवल 500 किलोमीटर की समुद्री दूरी है।
भारत पर आक्रमण का क्यूबा-संकट से संबंध : ख्रुश्चेव ने मई 1960 में क्यूबा को वचन दिया था कि अमेरिका से उसकी रक्षा के लिए उसके यहां सोवियत मिसाइलें तैनात की जाएंगी। अमेरिका ने सोवियत संघ के पड़ोसी देश तुर्की में, 100 से अधिक मिसाइलें तैनात कर रखी थीं। जुलाई 1962 में, सोवियत मिसाइलें समुद्री रास्ते से क्यूबा पहुंचनी शुरू हुईं। अक्टूबर के मध्य में अमेरिका को लगा कि शायद बैलिस्टिक मिसाइलें भी क्यूबा पहुंच रही हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति केनेडी ने तब क्यूबा को घेरकर उसकी नाकेबंदी करने और सोवियत जहाज़ों पर लदे हथियार छीन लेने का आदेश दिया।
दुनिया की सांस अटक गई। दोनों महाशक्तियों के बीच भिड़ंत होने और परमाणु युद्ध का डर फैलने लगा। चीनी नेताओं ने सोचा कि क्यूबा को लेकर जब तक रूस-अमेरिका आपस में उलझे हुए हैं, तब तक सारी दुनिया का ध्यान क्यूबा पर केंद्रित रहेगा। सोवियत संघ और अमेरिका में से कोई भी भारत की सहायता के लिए नहीं आएगा। भारत की सीमा में घुसकर सेंध लगाने का यही मनचाहा सुनहरा सुअवसर है। अतः 20 अक्टूबर से चीनी सैनिक भारतीय सीमा में घुसने शुरू हो गए।
भयाक्रान्त मानवजाति का सर्वनाशी पहला द्विपक्षीय परमाणु युद्ध जब आसन्न दिख रहा था, तभी सोवियत नेता निकिता ख्रुश्चेव ने, 28 अक्टूबर 1962 को, इस गोपनीय शर्त पर पीछे हटने और क्यूबा से अपनी मिसाइलें हटाने का साहसिक निर्णय लिया कि अमेरिका भी तुर्की से अपनी सारी मिसाइलें हटाएगा। अमेरिकी राष्ट्रपति जॉन एफ़. केनेडी ने दबी ज़बान इसे मान लिया और इस तरह क्यूबा-संकट दो सप्ताह बाद ही अकस्मात सुलझ गया। अमेरिका ने तुर्की से अपनी 100 से अधिक मिसाइलें हटाने की बात सदा गोपनीय रखी। इसीलिए पश्चिमी देश दुनिया को आज तक यही पट्टी पढ़ाते हैं कि क्यूबा-संकट के समय हार ख्रुश्चेव ने मानी, पीछे वही हटे, अमेरिका नहीं। राजनीति में सच नहीं बोला जाता।
क्यूबा-संकट के अंत से चीन घबराया : क्यूबा-संकट के बहुत शीघ्र ही अनपेक्षित अंत ने चीनी नेताओं का सारा खेल बिगाड़ दिया। अपनी दुष्टता छिपाने के लिए उनके पास वह आड़ नहीं रही, जिसका लाभ उठाकर चीनी सेना भारतीय सीमा में घुस गई थी। चीन यदि पीछे नहीं हटाता, तो दुनिया का ध्यान भारत के विरुद्ध उसके आक्रमण पर केंद्रित हो जाता। हो सकता था कि रूस या अमेरिका में से कोई एक भारत की सहायता के लिए भी खुलकर सामने आ जाता।
यही सोचकर चीन ने 21 नवंबर को अपनी तरफ़ से युद्धविराम घोषित कर दिया और उत्तरपूर्वी मोर्चे पर तो अपने सैनिकों को कई किलोमीटर तक पीछे भी हटा लिए। चीन का कहना था कि भारत को सबक़ सिखाने के इस युद्ध में 5000 भारतीय सैनिक हताहत हुए और 4000 बंदी बनाए गए। उसके अपने 722 सैनिक मारे गए और 1700 घायल हुए। भारतीय आंकड़ों के अनुसार, भारत के 1383 सैनिक वीरगति को प्राप्त हुए। 1047 घायल हुए। 3968 चीनियों द्वारा बंदी बनाए गए और 1700 का कोई पता नहीं चला।
1962 के युद्ध से भारत को यही सबक़ मिलता है कि वह अपने इस विस्तारवादी पड़ोसी पर कभी भी विश्वास नहीं कर सकता। यही सबक आज उन पश्चिमी देशों को भी मिल रहा है, जिन्होंने वहां अपने अदूरदर्शी धुआंधर निवेशों द्वारा उसे कुछ ही दशकों में एक आर्थिक व सैनिक महाशक्ति बना दिया है। आज वे भी अपनी भूल पर पछता रहे हैं। Edited By: Vrijendra Singh Jhala
भाग-1 : जब भारत के लिए चीनी नेताओं से भिड़ गए थे सोवियत नेता ख्रुश्चेव