Hyderabad encounter case : क्या कहते हैं कानून के जानकार...
हैदराबाद की दुष्कर्म पीड़िता दिशा (बदला हुआ नाम) के साथ हुई बर्बरता के चारों आरोपियों को पुलिस ने मार गिराया है। एक तरफ जहां पुलिस को जनता की तालियां मिल रही हैं, फूलों से स्वागत किया जा रहा है, वहीं एक तबका ऐसा भी है जो पुलिस की भूमिका पर सवाल भी उठा रहा है। आइए जानते हैं कि इस पूरे मामले पर क्या कहते हैं कानून के जानकार...
इंदौर के वरिष्ठ अभिभाषक और समाजसेवी अनिल त्रिवेदी यह कहकर इस मामले पर खुलकर राय जाहिर नहीं करते कि अभी इस मामले में उन्हें सोशल मीडिया से ही थोड़ी जानकारी प्राप्त हुई। हालांकि वे कहते हैं कि प्रथम दृष्टया यह पूरा मामला विश्वास के योग्य नहीं है।
कानून की शिक्षक डॉ. नमिता व्यास जोशी कहती हैं कि कानून को अपने हाथ में नहीं ले सकते। जया बच्चनजी ने भी कहा था कि आरोपियों को भीड़ के हवाले कर देना चाहिए, यह उचित नहीं है। इसमें कोई संदेह नहीं कि लड़की के साथ बहुत गलत हुआ है। निर्भया वाले मामले में भी अभी तक दोषियों को फांसी नहीं हुई है। इसका मतलब यह तो नहीं कि कानून हाथ में ले लिया जाए।
डॉ. जोशी कहती हैं कि यदि सीन क्रिएट करते समय ऐसा हुआ है तो यह पूरी तरह गलत है। इसका संकेत तो यही है कि हमें न्यायपालिका पर भरोसा नहीं रहा। यदि वे वाकई भाग रहे थे या फिर उन्होंने पुलिस पर हमला किया तो इसे माना जा सकता है। यदि नागरिकों का न्यायालय पर से विश्वास उठ रहा है तो न्यायालय को अपनी कार्य प्रणाली पर विचार करना चाहिए। न्यायालय को इस तरह काम करना चाहिए ताकि लोगों का न्यायपालिका में भरोसा बढ़े। न्याय में देरी के कारण ही हम इस स्थिति तक पहुंचते हैं।
अभिभाषक मनीष पाल कहते हैं कि भले ही यह लोगों को अच्छा लग रहा है, लेकिन यह उचित नहीं है। ज्यादा अच्छा होता कि सभी आरोपी कानूनी प्रक्रिया से गुजरते और अपने अंजाम तक पहुंचते। दरअसल, वैधानिक प्रक्रिया से गुजरना भी एक तरह की सजा है। चार दिन में ही उन्हें सजा मिल गई। क्या वे इतनी कम सजा के हकदार थे? अच्छा होता कि उन्हें कानूनी तरीके से सजा मिलती। जनभावना के आधार पर फैसले नहीं होने चाहिए।
पाल कहते हैं कि कानून की खामियों का फायदा नहीं उठाना चाहिए। स्वयं न्यायालय न बनें। ज्यादा अच्छा है कि प्रक्रिया को सुधारें। इसमें मौजूद इफ और बट्स को खत्म करें। न्याय प्रक्रिया में तेजी लाएं। आरोपियों का ट्रायल चलना चाहिए था, उन्हें जेल में रहना चाहिए था। निर्भया मामले में हमने देखा भी है कि एक अपराधी ने आत्मग्लानि के चलते आत्महत्या कर ली।
इस मामले में विधि स्नातक शराफत खान कहते हैं कि यह जनभावना का फैसला है, त्वरित न्याय है, क्योंकि हमारे कानून में बहुत विलंब होता है। लेकिन इसका तकनीकी पहलू कुछ अलग है। यहां कानून मूक है। यह प्रकरण अदालत में तो गया ही नहीं। दरअसल, कानून आरोपी को अपनी बेगुनाही साबित करने के कई मौके देता है।
खान कहते हैं कि इसीलिए तो एक पूरी प्रक्रिया बनी है, अदालतें हैं। यही कानून का मूलभूत आधार है। एक तीसरा पक्ष यह है कि यह एनकांउटर पुलिस की सीमा के भीतर हुआ है। पुलिस का अपना सच है कि आरोपी उन पर हमला कर के भाग रहे थे इसलिए पुलिस ने उनका एनकाउंटर कर दिया। हकीकत तो परदे के पीछे है, कागजों पर तो यह एनकांउटर ही है, लेकिन अगर किसी के पास कोई सबूत हो तो वो पुलिस के विरुद्ध जाकर अपनी बात साबित करें।
वरिष्ठ नागरिक और कानून की समझ रखने वाले महेन्द्र सांघी कहते हैं कि देश में पुलिस द्वारा अपराधियों के जितने भी एनकाउंटर किए जाने का इतिहास है, उन पर यदि नजर डालें तो 2 ही बातें सामने आती हैं। पहली देश की जनता एनकाउंटर से खुश होती है और पुलिस की तारीफ करती है। दूसरी, बहुसंख्यक जनता को एनकाउंटर के फर्जी होने से कोई फर्क नहीं पड़ता। उसे कोई ऐतराज नहीं होता।
सांघी कहते हैं कि हैदराबाद में डॉक्टर महिला के साथ गैंगरेप तथा बाद में जलाकर नृशंस हत्या के चार आरोपियों को पुलिस ने एनकाउंटर के दौरान मार दिया। जनता पुलिस की वाहवाही कर रही, फूल बरसा रही है। कानून की दृष्टि से देखें तो फर्जी एनकाउंटर एक हत्या है। जनता के दबाव में यदि फर्जी एनकाउंटर संस्कृति को बढ़ावा मिला तो इसकी चपेट में निर्दोष लोग भी आ सकते हैं। सही तरीका तो यह होगा कि संसद व न्यायपालिका मिलकर यह सुनिश्चित करें कि ऐसे जघन्य मामलों में पीड़ित पक्षकारों को त्वरित न्याय व दोषियों को सजा मिले। विशेषकर फांसी की सजा पाए हुए अपराधियों की राष्ट्रपति के समक्ष दया याचिका की समयसीमा तय होनी चाहिए।