आजादी के लिए लड़ीं, जेल गईं, ब्राह्मण होकर किया मुस्लिम से प्यार और बन गईं देश की अरुणा आसफ अली…
अरुणा आसफ अली। यह दो लोगों का नाम है, लेकिन आज भी हम इस नाम को किसी एक व्यक्ति के नाम की तरह जानते हैं। दरअसल, अरुणा और आसफ अली ने न सिर्फ अलग-अलग होने धर्म का होने के बावजूद प्यार किया और साथ रहने का साहस दिखाया बल्कि देश की आजादी में भी दोनों ने खुद को झोंक दिया।
16 जलुाई को अरुणा आसफ अली का जन्मदिन है, आइए जानते हैं उनके बारे में कुछ खास बातें।
16 जुलाई 1909 को पंजाब के एक ब्राहमण परिवार में अरुणा का जन्म हुआ था। पूरा नाम अरुणा गांगुली था। पिता का नाम था उपेंद्रनाथ गांगुली। पिता रेस्टोरेंट व्यवसायी थे। अरुणा ने अपनी शुरूआती पढ़ाई नैनीताल से की। अरुणा पढ़ने में होशियार थी। उन्होंने लाहौर से स्नातक की डिग्री ली और कलकत्ता में टीचर की नौकरी की। इसी दौरान अरुणा की मुलाकात आसफ अली से हुई। आसफ अली एक वकील थे और कांग्रेस के नेता भी।
ब्राह्मण अरुणा और मुस्लिम आसफ अली के लिए मुश्किलें कम नहीं थीं। दो लोग, दोनों के धर्म बिल्कुल जुदा थे। लेकिन वे साथ में रहना चाहते थे और देश की आज़ादी के संघर्ष में भी अपना योगदान देना चाहते थे वो भी साथ- साथ रहकर।
आसफ अली ने दिल्ली से पढ़ाई पूरी की थी और अपनी पढ़ाई के दौरान ही स्वतंत्रता संग्राम में शामिल हो चुके थे, जिसके लिए इन्हें कई बार जेल भी जाना पड़ा था। वे 1914 से पूरी तरह से राष्ट्रीय आंदोलनों में हिस्सा लेने लगे थे। इसी दौरान जब अरुणा उनसे मिलीं तो उनकी देशभक्ति से प्रभावित हुए बगैर नहीं रह सकीं। कई मुलाकातें हुईं। बातचीत हुई। यह दोस्ती प्यार में बदल गई।
एक वक्त आया जब दोनों को लगा कि अब शादी कर लेना चाहिए। आसफ उम्र में अरुणा से बड़े थे और धर्म भी अलग था। फिर भी दोनों ने साल 1928 में शादी कर ली। अरुणा शादी के बाद अरुणा आसफ बन गईं और अब तक इसी नाम से जानी जाती है।
इसके बाद उनकी तकलीफों का दौर शुरू हो गया। बावजूद इसके वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के आंदोलन में हिस्सा लेते रहे।
1930 में जब गांधी का नमक आंदोलन शुरू हुआ तो अरुणा ने पहली बार इसमें भाग लिया। इस दौरान वे गिरफ्तार भी हुईं और उन्हें 1 साल की सजा भी हुई। लेकिन जेल जाने के बाद भी वे टूटी नहीं। बाहर आकर फिर से आंदोलन का हिस्सा बनीं। लेकिन दूसरी बार फिर उन्हें जेल हुई। इस बार अरुणा ने जेल के अंदर मुजरिमों के साथ होने वाले अमानवीय व्यवहार और अत्याचार के लिए अभियान चलाए, भूख हड़तालें कीं।
अंग्रेजों के खिलाफ कई आंदोलन चल रहे थे। जब गांधी ने नमक सत्याग्रह के बाद 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन शुरू किया तो अरुणा ने इसमें भाग लिया। लंबी लड़ाई के बाद में अरुणा ने मुंबई के ग्वालियर टैंक मैदान में तिरंगा फहराकर अपनी बहादुरी दिखाई। ऐसा कहा जाता है कि इस दिलेरी की वजह से अंग्रेजों ने अरुणा की गिरफ्तारी पर 5 हजार रूपए का इनाम रख दिया था।
आज़ादी के बाद भी देश के लिए उनकी सेवा जारी रही। दोनों ने भारत में अलग-अलग पदों पर रह कर देश की सेवा की। इसके बाद भी उन्होंने अपनी एक सोशलिस्ट पार्टी बनाई, बाद में इस पार्टी का भारत की कम्युनिस्ट पार्टी में विलय हो गया। कुछ दिनों बाद अरुणा ने इस पार्टी का साथ छोड़कर दोबारा कांग्रेस पार्टी ज्वॉइन कर ली और फिर दिल्ली की पहली महिला मेयर बनीं।
अरुणा आसफ अली के योगदान के लिए उन्हें 1975 में इन्हें लेनिन शांति पुरस्कार और जवाहरलाल नेहरु पुरस्कार भी मिला। 29 जुलाई 1996 को अरुणा आसफ अली का निधन हो गया। निधन के बाद उन्हें भारत के सर्वोच्च सम्मान भारतरत्न से नवाजा गया था।