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Written By Author नवीन रांगियाल
Last Updated : मंगलवार, 9 जनवरी 2024 (20:15 IST)

जब कत्थे और गुलकंद की महक छोड़कर मौसिक़ी के मंच से चल दिए उस्‍ताद राशिद खान

Ustad Rashid khan
Ustad Rashid khan : जब मैं उनके पास पहुंचा तो उनके पास से कत्थे और गुलकंद की महक से भर उठा. बैंगनी रंग का कुर्ता और मुंह में बचा हुआ पान. सांवले रंग के चेहरे पर पसीने की हल्‍की बूंदें देखकर में कुछ क्षण यही सोचता रहा कि यह वही शख्‍स है, जिसे बहुत पहले जान लिया जाना चाहिए था, लेकिन पक्‍की गायकी का यह दुर्भाग्‍य है कि उन्‍हें ‘आओगे जब तुम ओ साजना’ के बाद ही जाना जा रहा है.

जनवरी 2020 की एक शाम में इंदौर के ‘लाभ मंडपम’ के ग्रीन रूम में मैं करीब 20 मिनट तक उस्‍ताद राशिद खान का इंतजार कर रहा था.

सेल्‍फी और ऑटोग्राफ की होड़ से जब वे कुछ मुक्‍त हुए तो मैं उनके पास पहुंच गया. मैंने कहा- बस दो मिनट आपसे बात करूंगा. उन्‍होंने कहा- क्‍यों नहीं जरूर... मैंने दो ही सवाल किए थे- लेकिन उन्‍होंने दो जवाबों में इतनी सारी बातें कह डाली कि मेरी न्‍यूज की कॉपी का असला मुझे मिल गया था. मुझे इतनी ही बात करनी थी उनसे. वैसे भी ग्रीन रूम से उन्‍हें सीधे मंच पर जाना था. सुपारियों को मुंह में समेटे- दबाए पान के बीड़े से भरी एक कम खुली मुस्‍कुराहट देते हुए आगे बढ़ गए. चलते हुए अपना सीधा हाथ अपने माथे तक ले गए. ठीक उसी तरह जैसे उस्‍ताद लोग सलाम करते हैं. मैं भूल गया कि मुझे वो सब डायरी में नोट करना था जो उन्‍होंने कहा था. उनके मंच की तरफ जाते ही मेरे पास कत्‍थे और गुलकंद की गंध रह गई. पान की गंध से भरा एक आलाप मेरे पास छूट गया.

इंदौर की यह शाम मौसिक़ी की यह उन शामों में से थी जो मुझे याद रह जाने वाली थी. मैं दर्शक दीर्घा में सिमट आया. सुरों को जानने वाले कुछ बेहद जहीन और महफिलों की शामों को खराब करने के लिए आने वाले कुछ बदमिजाज श्रोताओं के बीच मैंने अपने लिए एक ऐसा कोना तलाशा जहां मैं किसी रद्दकरदा सामान की तरह इत्‍मीनान से उन्‍हें सुनता रहूं और कोई मेरी सुनवाई को न छेड़े.

आंखें इधर-उधर फेरने पर महसूस हुआ कि ज्‍यादातर मौसिकी पसंद उन्‍हें ‘जब वी मेट’ के ‘आओगे जब तुम बालमा’ सुनने के लिए आए थे. वे लाइट मूड के लिए आए थे. जो पक्‍की गायकी के मुरीद थे, उन्‍हें तो उस्‍ताद के आगाज में ही नेमत सी मिल गई. उस्‍ताद राशिद खान गला साफ़ करने में भी मज़ा दे रहे थे. करीब 10 मिनट तक उन्‍होंने गला साफ़ किया. मैंने भी गले की किरचें साफ कीं.

कुछ ही देर में बगैर किसी लाग लपेट के उन्‍होंने राग जोग कौंस शुरू किया. धीमे-धीमे क्‍लासिकल गायन की आंच महसूस होने लगी. उस्‍ताद राशिद खान के ठीक पीछे बैठे उनके बेटे अरमान की आवाज़ भी खान साहब की आवाज का पीछा कर रही थी अरमान के लंबे और खरज भरे अलाप सुंदर थे. भले उन्‍हें रियाज़ के तौर पर राशिद खान ने पास बिठाया था.

मुझे एकआध बार लगा कि जैसे गाते हुए राशिद खान का मुंह पंडित भीम सेन जोशी की तरह नजर आने लगता है. संभवत: सारे कलाकार अपनी इबादत में ऐसे ही नजर आते हों.

तकरीबन 40 मिनट के राग जोग कौंस के बाद मूड को भांप कर उस्ताद ने खुद ही कह दिया कि अब थोड़ा लाइट म्यूजिक की तरफ चलते हैं. सभी को लगा कि अब वे शायद 'याद पिया की आए' या 'आओगे जब तुम साजना' सुनाएंगे, लेकिन उन्होंने भजन 'ऐरी सखी मोरे पिया घर आए' गाया। इसके बाद भजन 'आज राधा बृज को चली' गाकर सभा को भक्‍ति संगीत में डुबो सा दिया. कुछएक लोगों को छोड़कर संगत भी मौज में थी और श्रोता भी.

जिन्‍हें अहसास हो गया कि जब वी मेट नहीं गाएंगे, वे धीरे-धीरे बाहर सरकने लगे.

जो श्रोता फिल्‍मी सुनने आए थे, वे विलंबित को चूककर बाहर निकल गए. खां साहब अब कुछ ख्‍याल की तरफ लौटे. वैसे तो उस्‍ताद राशिद खान को खासतौर से हिन्‍दुस्‍तानी संगीत में ख्‍याल गायिकी के लिए ही जाना जाता है। वे अपने नाना उस्ताद निसार हुसैन खान की तरह विलंबित ख्‍याल में गाते थे. लेकिन बाद में माहौल के मुताबिक ठुमरी, भजन और तराने भी गाने लगे.

एक घंटे से ज्‍यादा वक्‍त के बाद तकरीबन बुझ चुकी महफिल के बीच मैं अब उनके सवालों पर नजर दौड़ा रहा था. मंच से उतरते ही राशिद खान को एक बार फिर से लोगों ने घेर लिया. मेरे पास धक्‍का-मुक्‍की के लिए कोई जगह नहीं थी. मैंने वहीं सभागार में बैठकर कॉपी लिखी.

मैंने उनके जवाबों को फिर से जेहन में सुना. रामपुर-सहसवान घराने की विरासत में इजाफा करने वाले राशिद खान ने मेरे सवाल कि संगीत में कैसे आना हुआ का जवाब देते हुए बताया था कि बचपन में उनकी रुचि क्रिकेट खेलने में थी, लेकिन गजल और कुछ कलाकारों को सुनने के बाद वे बरबस ही संगीत में लौट आए. उन्‍होंने बताया था कि क्‍लासिकल के हैवी और उबाऊ रियाज उनके लिए बहुत बोझिल सा था— लेकिन बाद में धीरे-धीरे उन्‍हें इसमें रस आने लगा.

उत्‍तर प्रदेश के रामपुर-सहसवान के जिस घराने से उस्‍ताद आए थे उस घराने ने पूरी तरह से खुद को संगीत में झौंक दिया था. यह घराना उनके दादा उस्‍ताद इनायत हुसैन खां ने शुरू किया था. राशिद खुद गुलाम मुस्‍तफा खां के भतीजे थे. रामपुर-सहसवान की गायन शैली मध्‍यप्रदेश के ग्‍वालियर घराना शैली के काफी करीब मानी जाती है.

बहरहाल, उस्‍ताद राशिद खान को देश में ज्‍यादातर तब जाना गया, जब उन्‍होंने इम्‍तियाज अली की जब वी मेट में आओगे जब तुम हो बालमा गाया. लेकिन पक्‍की गायकी में उस्‍ताद माने जाने वाले इस कलाकार ने हर महफिल की तरह इस महफिल में भी फिक्र नहीं की. उन्‍होंने वही गाया, जो उन्‍हें पसंद था. बगैर इस बात की फिक्र किए जब वी मेट नहीं गाना एक जोखिम हो सकता है. जाहिर था- यह इस बात का स्‍टेटमेंट था कि उस्‍ताद राशिद अली जब वी मेट की इस बंदिश के अलावा बहुत कुछ थे. गायिकी का एक भरा पूरा घराना थे. शास्‍त्रीय संगीत में गायिकी की कई शैलियों का एक पूरा सधा हुआ राग थे. बहुत पापुलर न गाकर शायद उस्‍ताद राशिद खान यही बताने के लिए आए थे- और बेहद चुपचाप तरीके से चले भी गए.