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Last Updated : शनिवार, 28 अगस्त 2021 (00:12 IST)

'स्मृति' के बहाने विभाजन के दंश को स्थाई बनाने की जुगत!

'स्मृति' के बहाने विभाजन के दंश को स्थाई बनाने की जुगत! - Trying to make the sting of partition permanent on the pretext of memory
मेरे पिछले आलेख 'विभाजन की विभीषिका को याद करने का मकसद क्या है?' (21 अगस्त) को लेकर जो प्रतिक्रियाएं प्राप्त हुईं हैं, उनमें कुछ वाक़ई परेशान करने वाली हैं। इन प्रतिक्रियाओं में न सिर्फ़ अगस्त 1947 के विभाजन की विभीषिका का स्मरण करने की वकालत ही की गई है और बताया गया है कि किस तरह से बहुसंख्यक वर्ग के लोगों के साथ तब अत्याचार हुए थे, उससे भी आगे जाकर वर्ष 1946 के 16 अगस्त की भी याद दिलाई गई है। इस दिन कोलकाता (तब कलकत्ता) में हुई साम्प्रदायिक विद्वेष की (‘डायरेक्ट एक्शन डे’ के रूप में जानी जाने वाली) घटना की हाल के सालों में कभी कहीं चर्चा नहीं की गई, पर अब प्रचारित की जा रही है यानी स्मृति दिवस मनाने की भूमिका शायद 14 अगस्त पर ही ख़त्म नहीं होने वाली है।

मैं इस विचार मात्र से ही सिहरन महसूस करता हूं कि हम ‘डिजिटल इंडिया’ की नई पीढ़ी को देश के विभाजन के दौरान हुई हिंसा की जानकारी देकर उसे एक वर्ग विशेष से डराने का इरादा रखते हैं और उसी पीढ़ी के कंधों पर सभी प्रकार की हिंसा और वैमनस्य से मुक्त आधुनिक भारत के निर्माण की ज़िम्मेदारी भी डालना चाहते हैं। अपने (हिंसक) अतीत में लौटने का दुस्साहस कोई ऐसा नेतृत्व ही कर सकता है जो शुरुआत करते ही रास्ता भटक गया है, उसे अपने आगे बढ़ने का कोई मार्ग नहीं सूझ रहा है, वह उस अंधकार को चीरने से घबरा रहा है, जिसके आगे रोशनी है और वह उसी स्थान पर लौटने की ज़िद और जल्दी में है जहां से उसने अपनी महत्वाकांक्षी यात्रा प्रारम्भ की थी।

इस तरह के (साम्प्रदायिक) अतीत में योजनापूर्वक लौटना एक ऐसी मनःस्थिति है जिसमें अनुभव करने के लिए सुखद और सौंदर्यपूर्ण कुछ भी नहीं बचा है, ऐसा मान लिया जाता है। व्यक्ति सिर्फ़ ख़ौफ़नाक दृश्यों और कहानियों की ही तलाश करने लगता है जिनके पात्रों में उसकी कल्पना के नायक छुपे हुए हैं। इस तरह की योजना (या साजिश) के लिए किसी ‘ब्लू व्हेल चैलेंज’ की तर्ज़ पर कोई नाम भी सोचा जा सकता है। ऐसी स्थितियां तब बनती हैं जब राष्ट्र नए नायकों को गढ़ने या ढालने का उपक्रम बंद कर देता है। नई कहानियां, नई वादियों की तलाश इरादतन रोक दी जाती है। फ़िल्म इंडस्ट्री एक बड़ा उदाहरण है कि अतीत की विडंबनाओं को रोमांटिक तरीक़े से पेश करके किस तरह पैसे भी कमाए जा सकते हैं और ‘देशभक्तों’ की फ़ौज भी खड़ी की जा सकती है।

अपने पिछले आलेख में मैंने विभाजन की विभीषिका को एक स्मृति दिवस के रूप में मनाने के पीछे के मक़सद को ढूंढने की कोशिश की थी, पर सफलता नहीं मिली। आलेख पर जो प्रतिक्रियाएं मिलीं हैं उनसे कुछ संकेत ज़रूर मिलते हैं। वे यह कि इस बहाने से विभाजन के ‘असली’ दोषियों की नए सिरे से पहचान प्रकट की जा सकती है। आज़ादी की लड़ाई में ‘असली’ आहुति देने वाले देशभक्तों की संशोधित सूची देश के समक्ष पेश की जा सकती है।

एक समुदाय के लोगों ने दूसरे समुदाय के लोगों को किस तरह से ‘मारा होगा’ के विवरण उन हिंदू-मुस्लिम-सिख-ईसाई बच्चे-बच्चियों के साथ साल-दर-साल बांटे जा सकते हैं जो अभी एक ही स्कूल, एक ही कक्षा में साथ-साथ बैठकर पढ़ रहे हैं, एक साथ खड़े होकर सर्व धर्म समभाव की प्रार्थना कर रहे हैं, एक ही मैदान पर खेल रहे हैं और एक साथ खाना खा रहे हैं। संभव है कि इस दिशा में कोई शुरुआत हो भी चुकी हो, हालांकि वह हमें अभी नज़र नहीं आ रही है।

अंग्रेज़ी अख़बार ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में अगस्त के पहले सप्ताह में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के शहर मुरादाबाद की एक मध्यमवर्गीय रहवासी कॉलोनी को लेकर एक खबर छपी थी। खबर की शुरुआत यहां से होती है कि कॉलोनी के रहवासी प्रतिदिन क्षेत्र के एक मंदिर पर एकत्र होकर इस बात पर विरोध प्रकट करते हैं कि इलाक़े में बहुसंख्यकों के द्वारा ख़ाली किए गए दो मकान अल्पसंख्यक वर्ग के लोगों को क्यों बेच दिए गए! मंदिर के प्रवेश द्वार पर एक बैनर भी लगा दिया गया, जिस पर लिखा हुआ था कि ‘पूरी कॉलोनी बिकाऊ है और रहवासी सामूहिक पलायन करना चाहते हैं। रहवासियों के मुताबिक़ : जब एक ऐसी समझ बनी हुई है कि ‘वे’ उनके इलाक़ों में रहेंगे और ‘हम’ हमारे में तो ‘वे’ ज़बरदस्ती यहां आकर माहौल क्यों बिगाड़ना चाहते हैं? हमारी संस्कृति और त्योहार सब उनसे अलग हैं।

पाकिस्तान कोई एक दिन में नहीं बना होगा और न ही विभाजन कोई एक तय तारीख़ पर ही सम्पन्न हो गया होगा। जो विभाजन पंद्रह अगस्त के पहले हुआ होगा वह पचहत्तर साल बाद आज भी जारी है। हर शहर और बस्ती में नए-नए पाकिस्तान इसीलिए बन रहे हैं कि लोग साथ में रहने या दूसरों को अपने साथ में रहने देने के लिए तैयार नहीं हैं।विभाजन की हिंसक-अहिंसक और मौन विभीषिकाएं तो हरेक दिन महसूस की जा रही हैं। 'स्मृति दिवस' किस-किस विभीषिका के मनाए जाएंगे?

एक राष्ट्र के तौर पर हमें अब यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि साम्प्रदायिक सद्भाव, आपसी एकता और भाईचारे के नाम पर पिछले सात से अधिक दशकों से जो कुछ भी चलता रहा है, जो भी नारे और बैनर ईजाद होते रहे हैं, ‘सबको सन्मति दे भगवान’ और ‘ए मालिक तेरे बंदे हम’ टाइप जो गीत और भजन तैयार किए जाते रहे हैं वे सब दरअसल में बनावटी या मुखौटा भर थे, मात्र चुनावी स्टंट रहे हैं। सच यही है कि देश के जनमानस की असलियत भिन्न है जिसे पिछले तमाम सालों में दबाकर रखा गया और वह अब रिसकर बाहर आ रही है यानी कि अब वक्त आ गया है कि भारत के नागरिकों को उनकी 'वास्तविक भारतीयता' या 'हिंदुस्तानियत' से रूबरू करवा दिया जाए।

अतीत की किन-किन पहचानों को ख़त्म करना है और किन्हें पुनर्जीवित कर उनकी प्राण-प्रतिष्ठा करना है, यह सब किसी ऐसे दूरगामी राजनीतिक-सांस्कृतिक एजेंडे का ही हिस्सा हो सकता है जिसमें भावनाओं या मानवीय संवेदनाओं के लिए हाशिए पर भी कोई जगह नहीं छोड़ी गई हो।राजनीति में विपक्ष या प्रतिरोध के प्रति निर्ममता को जब अनिवार्य मान लिया जाता है तो फिर उसका इस्तेमाल देश के सांस्कृतिक-धार्मिक ‘पुनरुत्थान’ में भी करना आवश्यक हो जाता है। ऐसी स्थिति में प्रतिपक्ष भी छटपटाने लगता है और वास्तविक अतीत भी अपने संरक्षण के लिए याचक की मुद्रा में आ जाता है।

इस तरह के संघर्षों में नागरिक की कमजोर उपस्थिति क्रमशः गौण होती जाती है। इस समय ऐसा ही हो रहा है। मुरादाबाद की घटना में बहुसंख्यक वर्ग के रहवासियों द्वारा दी गई अपने स्वयं के सामूहिक पलायन की धमकी हक़ीक़त में देशभर के उन नागरिकों के लिए मानी जा सकती है जिनकी आने वाली पीढ़ियों से भी हम 'स्मृति दिवस' के रूप में विभाजन की विभीषिका का बदला लेने की मंशा रखते हैं।
(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)
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