लोकसभा के चुनाव परिणाम बिल्कुल अपेक्षित हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में राजग राष्ट्रीय स्तर पर विचारधारा एवं रणनीति के मामले में संगठित ईकाई के रुप में उतरा था तथा पांच-छः राज्यों को छोड़ दें तो उसका अंकगणित विपक्ष पर भारी था। इसे कम करने के लिए विपक्ष को मुद्दों और रणनीति के स्तर पर इतना सशक्त प्रहार करना चाहिए था जिससे मतदाता नए सिरे से सोचने को बाध्य हों।
पूरे चुनाव अभियान में राष्ट्रीय या राज्यों के स्तर पर इस तरह का सशक्त चरित्र विपक्ष का दिखा ही नहीं। विपक्ष मोदी हराओ का राग अलापता तो रहा लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर तो छोड़िए, सभी राज्यों में संगठित भी नहीं हो सके। विपक्ष की कृपा से ही चुनाव का मुख्य मुद्दा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी बन गए। पूरा चुनाव नरेन्द्र मोदी हटाओ बनाम नरेन्द्र मोदी को बनाए रखो में परिणत हो गया था। अन्य सारे मुद्दे उसके अंग उपांग बन गए। भाजपा और राजग यही चाहता था। मतदाताओं को प्रधानमंत्री के लिए मोदी बनाम अन्य में से चुनाव करना हो तो उसकी उंगली किस बटन को दबाती? इसे ही ध्यान रखते हुए मोदी ने मजबूत सरकार बनाम मजबूर सरकार का नारा दिया। मोदी अपने भाषणों में लोगों से अपील करते रहे कि आप जहां भी कमल पर बटन दबाएंगे वो वोट सीधे मुझे मिलेगा।
इस चुनाव अभियान के दौरान साफ दिख रहा था कि विपक्ष के प्रचार के विपरीत मोदी सरकार के विरुद्ध प्रकट सत्ता विरोधी लहर नहीं है। किसी सांसद या मंत्री के खिलाफ असंतोष अवश्य कई जगह थे, पर सरकार विरोधी तीव्र रुझान की झलक कहीं नहीं दिखी। सांसदों के सत्ता विरोधी रुझान को कम करने के लिए भाजपा ने 90 सांसदों के टिकट काट दिए। विपक्ष एव मीडिया का एक वर्ग अवश्य राष्ट्रवाद, सुरक्षा जैसे महत्वपूर्ण विषयों का यह कहकर उपहास उ़ड़ाता रहा कि ये मुख्य मुद्दों से ध्यान हटाने की रणनीति है, पर आम मतदाताओं के बड़े वर्ग की भावनओं को ये मुद्दे छू रहे थे।
पुलवामा हमले के बाद पाकिस्तान की सीमा में घुसकर हवाई बमबारी ने सम्पूर्ण देश में रोमांच का भाव पैदा किया। उससे पूरा चुनावी परिदृश्य ही बदल गया। तीसरे चरण के मतदान के पूर्व श्रीलंका में हुए भीषण आतंकवादी हमलों ने भी लोगों को यह महसूस कराया कि आतंकवाद का खतरा आसन्न है जिसे कम करके आंकना नादानी होगी। अनेक जगह लोगों का जवाब होता था कि पहले देश बचेगा तभी न बाकी चीज। लोग यह भी कहते थे कि मोदी ही है जिसने पाकिस्तान को ऐसा जवाब दिया, दूसरा कोई प्रधानमंत्री साहस ही नहीं करता।
विपक्ष की नकारात्मक प्रतिक्रियाओं ने लोगों में खीझ पैदा किया। विपक्ष यदि बालाकोट पर सरकार को धन्यवाद देकर चुप हो जाता तो शायद उनके विरुद्ध मतदाताओं की इतनी तीखी प्रतिक्रिया नहीं होती। वे सेना का धन्यवाद देते हुए भी इसका उपहास उड़ाते रहे। इसी बीच एंटी सेटेलाइट मिसाइल का सफल परीक्षण कर भारत विश्व की चौथी शक्ति बना। विपक्ष की प्रतिक्रिया इसमें भी सकारात्मक नहीं थी। संयुक्त राष्ट्रसंघ द्वारा मसूद अजहर वैश्विक आतंकवादी घोषित हो गया और विपक्ष इसमें भी किंतु-परंतु करता रहा। यह विदेश नीति की बड़ी सफलता थी जिसने चीन को भी प्रस्ताव का समर्थन करने को विवश कर दिया। इस तरह नरेन्द्र मोदी की छवि प्रखर राष्ट्रवाद, सैन्य पराक्रम,राष्ट्रीय सुरक्षा एवं आतंकवाद के विरुद्ध दृढ़ व्यक्ति की छवि मजबूत होती गई और विपक्ष अपनी नासमझ रणनीतियों से कमजोर पड़ता गया।
लंबे समय बाद चुनाव में जम्मू कश्मीर भी एक मद्दा बना। पीडीपी से संबंध तोड़ने के बाद केन्द्र सरकार ने जिस तेजी से जम्मू कश्मीर में कट्टरवाद, अलगाववाद एवं आतंकवाद के खिलाफ सख्त कार्रवाई की उससे लोगों में संदेश गया कि अगर मोदी सरकार रह गई तो कश्मीर के भारत विरोधी जेलों के अंदर होंगे, आतंकवाद खत्म होगा तथा वहां शांति स्थापित हो जाएगी। कश्मीर से धारा 35 ए हटाने की भाजपा की स्पष्ट घोषणा का भी असर हुआ। दूसरी ओर विपक्ष विशेषकर कांग्रेस के रुख से भाजपा को लाभ मिला।
कांग्रेस के घोषणा पत्र से मतदाताओं के एक वर्ग को लगा कि अगर ये सत्ता में आए तो वहां सुरक्षा बलों की संख्या कम हो जाएगी, उनके अधिकार कम कर दिए जाएंगे, भारत विरोधी अलगाववादियों को फिर से महत्व मिलेगा.....। कश्मीर से नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीडीपी दोनों ने जिस तरह की अतिवादी भाषायें बोलीं उनका मोदी के पक्ष में अनुकूल प्रभाव हुआ। दोनों ने 35 ए एवं धारा 370 के हटाने से कश्मीर के भारत से अलग होने का बार-बार बयान दिया। उमर ने कश्मीर के लिए अलग से प्रधानमंत्री एवं सदर-ए-रियासत की ओर लौटने का बयान दे दिया। इन सबके खिलाफ देशभर में गुस्सा पैदा हुआ जिसका भाजपा ने पूरा लाभ उठाया। कांग्रेस सहित विपक्ष के किसी नेता ने उमर के बयान का खंडन नहीं किया। फलतः भाजपा के मूल मतदाताओं में मोदी सरकार को लेकर थोड़ा-बहुत असंतोष था वो भी सक्रिय होने के लिए मजबूर हो गए हैं।
कांग्रेस सहित विपक्ष ने राफेल में भ्रष्टाचार का आरोप तथा चौकीदार चोर है के नारे को बड़ा मुद्दा बनाने की रणनीति बनाई। कांग्रेस भले इसे विजय का अस्त्र मानती रही, पर किसी सर्वेक्षण में लोगों ने नहीं कहा कि राफेल या भ्रष्टाचार उनके लिए मुद्दा है। मोदी रक्षा सौदे में दलाली लेंगे इस पर जनता में उनके विरोधी भी विश्वास करने को तैयार नहीं थे। तीसरे चरण के मतदान के पूर्व ही राहुल गांधी द्वारा उच्चतम न्यायालय को आधार बनाकर चौकीदार चोर है का दिया गया बयान बैक फायर कर गया। यह छठे चरण तक उच्चतम न्यायालय में क्षमा मांगने से बचने की बयानबाजी और अंततः गलती स्वीकार करते हुए क्षमा मांगने तक चलता रहा। चुनाव प्रक्रिया के बीच इतनी बड़ी घटना का असर होना ही था। मोदी ने चौकीदार चोर है के समानांतर मैं भी चौकीदार का नारा देकर इसे अभियान का प्रमुख अंग बना दिया।
मोदी पर विपक्ष गरीबों की अनदेखी करने, किसानों के लिए कुछ न करने, रोजगार के अवसर पैदा न करने तथा आर्थिक मोर्चे पर नाकामियों का आरोप लगाता रहा। इनका थोड़ा असर हुआ होगा। किंतु प्रधानमंत्री आवास योजना से जिसका घर बना, जिसके घर में बिजली लगी, जिसे रसोई गैस मिला, जिसे मुद्रा योजना से कर्ज प्राप्त हुआ, जिस किसान के लिए सिंचाई सुविधा सुलभ हुई है, जिसे बिजली प्राप्त हो रही है, डीजल पंप की जगह जिसे सोलर पंप मिल गया, जिसे स्वायल हेल्थ कार्ड मिला, जिसे पशुपालन के लिए कर्ज और सब्सिडी मिल चुकी थी,... वो सब प्रचार से प्रभावित नहीं हो सकते थे।
धरातल पर नजर रखने वाले समझ रहे थे कि नरेन्द्र मोदी को लेकर जबरदस्त अंतर्धारा है। हां, मोदी नाम ऐसा है जिसके पक्ष में यदि धारा हो तो विपक्ष में भी होता है। तो मोदी को बनाए रखने एवं मोदी को हटाने दोनों के पक्षधर मतदाता निकलते रहे लेकिन पहली श्रेणी के मतदाता भारी पड़ गए। 2014 में 2009 की तुलना में आठ प्रतिशत से ज्यादा ऐतिहासिक मतदान हुआ था। इस बार यदि मतदान उससे भी बढ़कर रिकॉड 67.1 प्रतिश हुआ तो साफ है कि मतदाताओं में सरकार को लेकर वैसी निराशा नहीं थी जैसी विपक्ष प्रचारित करता रहा। कुछ राज्यों में तो पिछले कई वर्ष का रिकॉर्ड टूट गया। इनमें भाजपा प्रभाव वाले गुजरात, मध्यप्रदेश एवं राजस्थान शामिल हैं। मध्यप्रदेश में तो 9.59 प्रतिशत ज्यादा मतदान हुआ। 2017 में गुजरात तथा 2018 में इन दोनों राज्यों में पराजय के बाद ही अमित शाह ने ऑपरेशन आरंभ कर दिया था। भाजपा की रणनीति थी कि मतदान का प्रतिशत बढ़ाना है और उसमें ये सफल रहे। उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा-रालोद गठजोड़ भाजपा के लिए सबसे बड़ी चुनौती दिख रही थी लेकिन किया हस्र हुआ सामने है।
इनकी एकजुटता ने भी भाजपा को ज्यादा सजग और व्यवस्थित होकर मुकाबला करने को प्रेरित किया। यही स्थिति दक्षिण के राज्य कर्नाटक में भी थी। जद-से एवं कांग्रेस के गठबंधन ने भाजपा को ज्यादा संगठित और सक्रिय किया। पश्चिम बंगाल में तृणमूल के नेता-कार्यकर्ता कड़ी चुनौती मिलने के कारण ही हिंसा कर रहे थे। पश्चिम बंगाल के बाद उड़ीसा को भाजपा ने केन्द्र बनाया था। मोदी और शाह दोनों ने उत्तर प्रदेश के बाद सबसे ज्यादा सभायें इन्हीं दोनों राज्यों में किए। महाराष्ट्र को लेकर जो थोड़ी आशंका थी वो भी कमजोर पड़ गई। भाजपा एवं शिवसेना के नेताओं-कार्यकर्ताओं में जैसी एकता दिखी उससे लगा ही नहीं कुछ महीने पहले तक इनके बीच कटुता भी थी। शिवसेना को आभास हो गया कि मोदी का नाम ही उनको वैतरणी पार करा सकता है।
कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि विपक्ष ने इस चुनाव को नरेन्द्र मोदी के लिए मत सर्वेक्षण का मतदान बना दिया था और यह बड़ी चूक थी। परिणाम बता रहा है कि लोगों ने उनको हाथों-हाथ लिया है। इस जनादेश के कई अर्थ लगाए जा सकते हैं। मसलन, यह एक ओर यदि राष्ट्रीय सुरक्षा, आतंकवाद, कश्मीर तथा पाकिस्तान के प्रति नीतियों में निरंतरता बनाए रखने के पक्ष में है तो दूसरी ओर विकास नीतियों को ज्यादा मानवीय एवं तीव्र बनाने की अपेक्षायें भी लिए हुए है। विपक्ष विशेषकर कांग्रेस को समझना होगा कि किसी एक व्यक्ति के खिलाफ निंदा और विरोध की अतिवादिता से उसका सत्ता तक पहुंचने का सपना पूरा नहीं हो सकता।