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National youth Day: भारत को जागृत करते स्वामी विवेकानन्द

National youth Day: भारत को जागृत करते स्वामी विवेकानन्द - Swami vivekanand, yuva diwas, who is Swami vivekanand
उठो, उठो, लम्बी रात बीत रही है, सूर्योदय का प्रकाश दिखाई दे रहा है। तरंग ऊंची उठ चुकी है, उस प्रचण्ड जलोच्छवास का कुछ भी प्रतिरोध न कर सकेगा। विवेकानन्द

स्वामी विवेकानन्द अपने जीवन के कालखण्ड में उस भारत को जगा रहे हैं, जो वर्षों से सुप्त पड़ा हुआ है। जिसकी चैतन्यता अन्धकार के पाश में जकड़ी हुई है और वह पराधीनता के चंगुल में फंसा हुआ है। उस समय देश परतन्त्र था।

स्वामीजी अंग्रेजी परतन्त्रता से मुक्ति के आह्वान के साथ ही भारतीय चेतना के स्वातन्त्र्य की बात भी कहते हैं। उनके अनुसार स्वाधीनता ही विकास की पहली शर्त है। अब स्वाधीनता का अभिप्राय क्या है? क्या केवल भौतिक स्वतन्त्रता, या आध्यात्मिक स्वतन्त्रता?

भारत परतन्त्र क्यों हुआ? चाहे इस्लामिक आक्रमण के कारण पराधीनता हो या अंग्रेजी पराधीनता। इस पराधीनता के मूल में कौन से कारण हैं? वह भारत जिसने समूचे विश्व को तब ज्ञान की राह दिखलाई,जब चारो ओर अज्ञानता और असभ्यता का वातावरण था। जिस भारत ने अपनी आध्यात्मिक शक्ति के माध्यम से इहलौकिक और पारलौकिक जगत के रहस्यों को अपने अनादि; अनंत, अपौरुषेय वेद और उपनिषदों के अथाह ज्ञान भण्डार की राशि से चमत्कृत किया।

वह भारत जो ईश्वर की सर्वप्रिय! पुण्यभूमि, लीलाभूमि रही तथा जिसमें ईश्वरीय अवतारों, ऋषि-महर्षियों ने नानाविध आविष्कारों एवं उच्च जीवनादर्शों के रुप में 'मनुष्यत्व' की गरिमा को प्रतिष्ठित किया। जब वह पराधीन हो गया,तब निश्चय ही आत्मावलोकन करने पर यही स्पष्ट होता है कि भारत ने अपने 'स्व' को भुलाया तथा आत्मविस्मृति के कारण उसकी आध्यात्मिकता पथभ्रष्ट होती गई और वह अपने पूर्वजों की रीति-नीति से अलग होता हुआ, अपनी दुरावस्था को प्राप्त हुआ।

लेकिन स्वामीजी का मानना है कि भारत फिर भी नष्ट नहीं हुआ,क्योंकि उसके मूल में आध्यात्मिकता और 'एकत्व' के बीज विविध रुपों में अंकुरित होते हुए प्रकाशित करते रहे हैं। बेलूर मठ के निर्माण के समय सन् १८९८ ई.में शिष्य वार्तालाप में स्वामी जी एक स्थान पर राष्ट्र को संगठित,स्वतन्त्र करने और विचार प्रवाह के लिए कहते हैं– "

यह सनातन धर्म का देश है। यह देश गिर अवश्य गया है,परन्तु निश्चय फिर उठेगा। और ऐसा उठेगा कि दुनिया देखकर दंग रह जाएगी। देखा नहीं है,नदी या समुद्र में लहरें जितनी नीचे उतरती हैं,उसके बाद उतनी ही जोर से ऊपर उठती हैं। यहां पर भी उसी प्रकार होगा।

इसीलिए स्वामी जी उसी भारत को जगाने के लिए सबको आह्वान करते हैं। भारत यदि अपने 'स्व' को जागृत कर ले तो उसे स्वाधीन होते देर नहीं लगेगी।

हम सन् सैंतालीस में स्वतन्त्र हो गए,लेकिन क्या हमने विवेकानन्द के आह्वान को पूर्ण किया? यह प्रश्न हमें स्वयं से पूछना पड़ेगा, क्योंकि यह नितान्त आवश्यक ही नहीं बल्कि अनिवार्य है। क्या हमने स्वामी जी की उस आन्तरिक पुकार को सुनकर उसे पूर्णता प्रदान की जिसे वे कुछ यूं व्यक्त करते हैं :―

"एक नवीन भारत निकल पड़ेनिकले हल पकड़कर, किसानों की कुटी भेदकर, मछुआ,मोची,मेहतरों की झोपड़ियों से। निकल पड़े बनियों की दुकानों से,भुजवा के भाड़ के पास से,कारखाने से, हाट से,बाजार से, निकले झाड़ियों, जंगलों, पहाड़ों,पर्वतों से"

विवेकानन्द जिस भारत को जगा रहे थे,जिस नवीन भारत का स्वप्न उनके अन्दर मूर्तरूप ले रहा था,क्या उस भारत का उन्मेष हो पाया? उनकी इस आन्तरिक पुकार में ही देखें अहा कितना समन्वय और स्नेह का अजस्र स्त्रोत प्रवहमान है।

स्वामी विवेकानंद जी भारत को कैसा देखते हैं, इसकी झलक उनके उपर्युक्त उध्दृत कथन में स्पष्ट दृष्टव्य होती है। वे उस भारत के उन्मेष की बात करते हैं जिनमें सब समदर्शी और सबका अपना-अपना महत्व है। उनके मध्य कोई भेद नहीं है, सब अपनी-अपनी विशिष्टताओं के साथ भारत को गढ़ने के लिए आगे आएं।

उनकी दृष्टि में भारत- किसान, मछुआरा, मोची, मेहतर, भुंजवा, बनिया, कारखाने, हाट-बाजार, जंगल, पहाड़, पर्वत। सभी में विद्यमान है,और यही भारत है। ऊपर से देखने में यह निम्न श्रेणी के कार्य करने वाले अभिजात्य सामाजिक दृष्टि में भले ही हेय समझे जाते हों और पिछड़े पन की निशानी माने जाते हों। लेकिन स्वामी विवेकानन्द इन सबकी संगठित शक्ति के माध्यम से देश को जगा! रहे हैं और नए भारत को गढ़ने के लिए सबको प्रेरित करते हैं।

भौतिक जगत के लिए यह सब भले ही अनुपयोगी और निम्नतम माने जाएं। अभिजात दृष्टि में जंगल, पहाड़, पर्वत इत्यादि का केवल भोग की सुविधा के रुप में योगदान माना जा सकता होगा। किन्तु स्वामी जी इन सबमें भारतमाता के दिव्य-भव्य स्वरुप का दर्शन करते हैं।

उनके लिए सब समान हैं, प्रकृति मूल है तथा सभी की संयुक्त संरचना ही भारत का निर्माण करती है। और उसी झलक को साकार देने के लिए अपनी वात्सल्यमयी कारुणिक पुकार के माध्यम से समूचे भारतवासियों को 'उतिष्ठति जागृति प्राप्यवरान्निबोधत्" का मन्त्र देते हैं।

वे बारम्बार पुकारते हैं। प्रत्येक हिन्दू तुम सब ऋषियों की सन्तान हो और तुम्हारे जीवन का विशिष्ट लक्ष्य है,जिसे तुम्हें पूर्ण करना है। इसीलिए वीर्यवान बनो, तेजस्वी बनो, उच्च चारित्रिक बल का संगठन करो। उस भारत को जाग उठना है और गतिशील होना है जिसके पास अथाह साहित्य का भण्डार है।

जिस भारत में त्याग- सेवा और स्वावलम्बन का भाव शाश्वत रुप से विद्यमान रहा है। उसके युवाओं को, मातृशक्तियों को, समाज के सर्वसाधारण को बलिष्ठ बनना होगा। ज्ञान के अपार कोष से सभी के मनोमस्तिष्क को कूट-कूट करके भर देना होगा। अपनी महान सभ्यता एवं संस्कृति की जड़ों की ओर लौटकर उससे स्वयं को सर्वसमर्थ बनाना होगा।

उस भारत को जगना होगा जिसने विश्व को अपनी भिन्न-भिन्न कालावधियों में सहिष्णुता, समानता, भ्रातृत्व, प्रेम को किसी न किसी रुप में विस्तारित किया। वह भारत जिसके मूल में धर्म है, श्रेष्ठ परम्पराएं हैं। और जिसने अपने ऊपर बर्बर अत्याचारों को सहकर भी अपने मूल स्वभाव को नहीं छोड़ा,जो कभी धर्मच्युत नहीं हुआ।

उस भारत ने संसार को जितना दिया है, उससे कहीं न्यून वह इस संसार से लेगा। वर्तमान में भारत को विश्व से भौतिक ज्ञान सीखना है, तकनीकें सीखनी है लेकिन इन सबको अपने स्वभाव के अनुरूप अनुकूलित करना है,न कि अन्धानुकरण। संकीर्णताओं का त्याग,रुढ़ियों एवं समाज को निर्बल करने वाली प्रत्येक व्याधि का उपचार कर हिन्दू समाज को सशक्त करते हुए भारत को गतिशील होना होगा।

उन्होंने जो अनुभूति प्राप्त की और उसकी विचार गङ्गा से जिस अमृत का पान कराया है, भले ही स्वातंत्र्य पूर्व के वर्षों में उन्होंने वह आह्वान किया था। उसी अमृत की शक्ति जब चरितार्थ होगी, तब उन्हीं के अनुसार ―
"मेरा दृढ़ विश्वास है कि शीघ्र ही भारतवर्ष उस श्रेष्ठता का अधिकारी होगा,जिस श्रेष्ठता का अधिकारी वह किसी काल में नहीं था। प्राचीन ऋषियों की अपेक्षा श्रेष्ठतर ऋषियों का आविर्भाव होगा और आपके पूर्वज अपने वंशधरों की इस अभूतपूर्व उन्नति से बड़े सन्तुष्ट होंगें। इतना ही नहीं मैं निश्चित रुप से कह सकता हूं, वे परलोक में अपने-अपने स्थानों से अपने वंशजों को इस प्रकार महिमान्वित तथा गौरवशाली देखकर गर्व का अनुभव करेंगे। हे भाइयों, हम सभी लोगों को इस समय कठिन परिश्रम करना होगा। अब सोने का समय नहीं है। हमारे कार्यों पर भारत का भविष्य निर्भर है। हमारी भारतमाता तैयार होकर प्रतीक्षा कर रही है। वह केवल सो रही है। उसे जगाइए और पहले से भी अधिक गौरव-मण्डित तथा नवशक्ति से सम्पन्न करके भक्तिपूर्वक उसे उसके चिरन्तन सिंहासन पर विराजमान कराइये।"

वस्तुतः विवेकानन्द की अनुभूति और उनके विचारों को हमें आत्मसात कर भारत को गढ़ने का यत्न करना था,लेकिन हम उसी तरह बेसुध एवं आत्मविस्मृति -आत्मग्लानि में डूब गए जिसकी पूर्व परिणति ने हमें पराधीनता और अत्याचारों की क्रूरतम् त्रासदी में छिन्न-भिन्न कर डाला।

हमने अपने 'स्व' को नहीं पहचाना और सच्चे अर्थों में हम तब भी नहीं जग पाए तथा हमने विवेकानन्द की अवहेलना के कारण सन् १८५७ में भारतभूमि का जो क्षेत्रफल लगभग ८३ लाग वर्ग किलोमीटर था शनैः-शनैः उसका एक बड़ा भू-भाग ५० लाख वर्गकिलोमीटर गवां दिया और वर्तमान में ३३ लाख वर्ग किलोमीटर बचा है, जिनमें से अब भी पड़ोसी देशों यथा-चीन,पाकिस्तान की सीमा के हजारों वर्ग किलोमीटर की भूमि हमारे नियन्त्रण में नहीं है। यदि हम चाहे-अनचाहे ढंग से ही केवल विवेकानन्द का ही अनुसरण कर लिए होते,तो सम्भव था कि भव्य भारतमाता की छवि खण्डित नहीं दिखती।

यह क्यों हुआ-कैसे हुआ?इसके लिए आरोप-प्रत्यारोप का समय नहीं है। आवश्यकता इस बात की है कि गुरुदेव रविन्द्रनाथ टैगोर ने स्वामी विवेकानन्द के बारे में जिस सूत्र को एक वाक्य में कहा था उसे चरितार्थ करने की ―
"यदि आप भारत को समझना चाहते हैं तो विवेकानन्द का अध्ययन कीजिए, उनमें सबकुछ सकारात्मक है, नकारात्मक कुछ भी नहीं।" हमें यदि भारत की एकसूत्रता, सांस्कृतिक और आध्यात्मिकता के सूर्य से सम्पूर्ण भारतभूमि को आलोकित करना है तो एक क्षण! की देरी किए बिना ही हमें विवेकानन्द के सानिध्य में जाकर भारत को गढ़ने के लिए उद्यत होना होगा,बिना इसके अन्य कोई रास्ता नहीं दिखता। भारत को  स्वामीजी की उस पुकार को चरितार्थ करना है,जो सच्चे अर्थों में अभी तक पूर्ण आकार नहीं ले पाई

"यह देखो, भारतमाता धीरे-धीरे आंख खोल रही है। वह कुछ देर सोयी थी। उठो, उसे जगाओ और पहले की अपेक्षा और भी गौरवमण्डित करके भक्ति भाव से उसे उसके चिरन्तन सिंहासन पर प्रतिष्ठित कर दो।"

(आलेख में व्‍यक्‍त विचार लेखक के निजी अनुभव हैं, वेबदुनिया का इससे कोई संबंध नहीं है।)
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