गुरुवार, 28 मार्च 2024
  • Webdunia Deals
  1. लाइफ स्‍टाइल
  2. साहित्य
  3. मेरा ब्लॉग
  4. Search for new Kairana in Khargone amid riots
Last Modified: शनिवार, 16 अप्रैल 2022 (22:11 IST)

दंगों के बीच खरगोन में नए कैराना की तलाश?

दंगों के बीच खरगोन में नए कैराना की तलाश? - Search for new Kairana in Khargone amid riots
सात करोड़ की आबादी वाले शांतिप्रिय मध्य प्रदेश में भी क्या पश्चिमी उत्तर प्रदेश की तर्ज़ पर किसी कैराना की तलाश की जा रही है और मीडिया इस काम में विघटनकारी ताक़तों की मदद कर रहा है? साम्प्रदायिक रूप से संवेदनशील इंदौर के कुछ हिंदी अख़बारों ने अपने पहले पन्ने पर फ़ोटो के साथ एक समाचार प्रमुखता से प्रकाशित किया कि दंगा प्रभावित खरगोन (इंदौर से 140 किलो मीटर) के बहुसंख्यक वर्ग के रहवासी इतनी दहशत में हैं कि वे प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत बनाए गए अपने आवासों को बेचना चाहते हैं।अख़बारों ने खरगोन से कई परिवारों के पलायन का समाचार भी प्रमुखता से प्रकाशित किया है।

अख़बारों ने खबर के साथ जो चित्र प्रकाशित किया, उसमें सरकारी योजना के तहत बने मकान की दीवार पर 'यह मकान बिकाऊ है' की सूचना के साथ संपर्क के लिए एक मोबाइल नंबर भी मोटे अक्षरों में लिखा हुआ है।दो प्रतिस्पर्धी अख़बारों ने एक ही मकान पर अंकित सूचना को संपर्क के लिए एक ही मोबाइल नंबर के हवाले से दो अलग-अलग मालिकों के नामों और पतों की जानकारी से प्रकाशित किया है।

मोबाइल नंबर के प्रकाशन ने निश्चित ही देशभर के ख़रीदारों को बिकने के लिए उपलब्ध मकानों की सूचना और मध्य प्रदेश की ताज़ा साम्प्रदायिक स्थिति से अवगत करा दिया होगा।विवरण उसी खरगोन शहर के हालात का है जिसके ज़िले में देवी अहिल्याबाई होलकर के जमाने की राजधानी महेश्वर नर्मदा नदी के तट पर स्थित है।

वे तमाम लोग जो खरगोन से उठ रहे धुएँ के अलग-अलग रंगों का दूर से अध्ययन कर रहे हैं, उन्हें एक नया मध्य प्रदेश आकार लेता नज़र आ रहा है।एक ऐसा मध्य प्रदेश जिसकी अब तक की जानी-पहचानी भाषा और संस्कृति में ‘नेस्तनाबूत’ और ‘बुलडोज़र’ जैसे नए-नए शब्द जुड़ रहे हैं।क़ानून और अदालतों का राज जैसे समाप्त करने की तैयारी चल रही हो।

सत्ता में बैठे लोगों के मुँह से निकलने वाले शब्द ही जैसे क़ानून की शक्ल लेने वाले हों! राजनेताओं और नौकरशाहों की बोलियाँ जनता को अपरिचित जान पड़ रही हैं।उन्हें लग रहा है कि उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के बीच की भौगोलिक सीमाएँ जैसे समाप्त हो गईं हैं और दोनों राज्य एक-दूसरे में समाहित हो गए हैं!

प्रदेश में तेज़ी से बदलते हुए साम्प्रदायिक घटनाक्रम को लेकर लोग चिंतित हैं और उन्हें डर लग रहा है कि विधानसभा चुनावों (2023) के पहले कहीं कोई कैराना मध्य प्रदेश में भी तो नहीं ढूँढा जा रहा है! साल 2017 के विधानसभा चुनावों के ठीक पहले यूपी के कैराना से बहुसंख्यक वर्ग के लोगों के पलायन की खबरें जारी हुईं थीं।हाल के यूपी विधानसभा चुनावों के पहले भी कैराना के साम्प्रदायिक भूत को जगाकर साम्प्रदायिक ध्रूवीकरण करने की कोशिशें कीं गईं थीं।

तेरह अप्रैल (बुधवार) को खरगोन के दहशतज़दा बहुसंख्यक रहवासियों द्वारा अपने मकान बेचने की खबरें अख़बारों में प्रकाशित हुईं।उसके एक दिन पहले (मंगलवार को) समाचार पत्रों ने प्रकाशित किया कि सौ परिवारों ने खरगोन छोड़ दिया है और उन्होंने दूसरे शहरों में रिश्तेदारों के यहाँ शरण ले ली है।(पाठकों द्वारा इन अख़बारों से माँग की जानी चाहिए है कि वे खरगोन छोड़ने वाले परिवारों की प्रामाणिक जानकारी प्रकाशित करें।)

जून 2016 में कैराना से भाजपा सांसद (स्व.) हुकुम सिंह ने एक सूची जारी करके देशव्यापी सनसनी फैला दी थी कि 346 हिंदू परिवारों ने अल्पसंख्यकों की दहशत के कारण कैराना से पलायन कर दिया है।जारी की गई सूची को लेकर जब देशभर में हल्ला मचा तो पलायन करने वाले परिवारों की संख्या को 63 और स्थान कंधाला बताया गया। जो सूची जारी की गई उसमें भी कथित तौर पर चार नाम मृतकों के थे और तेरह परिवार कैराना में ही रह रहे थे। पर तब तक खबर को लेकर यूपी के चुनावों पर जो असर होना था वह हो चुका था।

2019 के लोकसभा चुनावों के पहले मैंने जब कैराना की यात्रा की और लोगों से मिला तब पता चला कि साम्प्रदायिक विद्वेष को लेकर जितना प्रचारित किया गया था, उसमें काफ़ी कुछ अतिरंजित और चुनावी राजनीति से प्रेरित था। कैराना यात्रा के दौरान मैंने स्व. हुकुम सिंह की बेटी मृगांका सिंह से भी मुलाक़ात की थी। मृगांका सिंह ने भाजपा की ओर से इस बार चुनाव भी लड़ा था।

यूपी का कैराना तो मुस्लिम बहुल क्षेत्र है, पर खरगोन में तो बहुसंख्य आबादी हिंदुओं की है।इसके बावजूद वहाँ से परिवारों के पलायन की एक जैसी ही खबरें अलग-अलग अख़बारों में क्यों और कैसे आ रहीं हैं? पूछा जाना चाहिए कि शहर जब कर्फ़्यू की क़ैद में हो, इतनी बड़ी संख्या में परिवारों का पलायन कैसे हो सकता है? इन परिवारों ने खरगोन छोड़कर किन जगहों पर शरण ली है? क्या सरकार और ज़िला प्रशासन पलायन करने और मकान बेचने वाले परिवारों को सुरक्षा नहीं प्रदान कर पा रहा है? क्या प्रधानमंत्री आवास योजना के अंतर्गत निर्मित मकानों को भी बेचा जा सकता है?

खरगोन का इतिहास जानने वाले बताते हैं कि साम्प्रदायिक दृष्टि से शहर और ज़िले के कुछ स्थान हमेशा से संवेदनशील रहे हैं। इन स्थानों पर छिटपुट घटनाएँ भी होतीं रहीं हैं। पर इस तरह का तनाव (सम्भवतः) तीन दशकों में पहली बार खरगोन शहर में उत्पन्न हुआ है। 'राम नवमी' सहित सारे पर्व और त्योहार अभी तक शांतिपूर्ण तरीक़े से मनाए जाते रहे हैं।

पूछा जा रहा है कि इस बार ऐसा क्या हो गया कि हिंसा और आगज़नी की घटनाएँ इतने व्यापक स्तर पर हो गईं और शासन-प्रशासन को विघ्न-संतोषी तत्वों की गतिविधियों को लेकर कोई जानकारी प्राप्त नहीं हो पाई! प्रशासनिक दृष्टि से ताकतवर माने जाने वाले प्रदेश में उपद्रवी तत्व अशांति फैलाने में कैसे सफल हो गए? क्या इसे जनता के स्तर पर हुई चूक मान लिया जाए?

कोई सवा लाख की आबादी वाला खरगोन शहर रातोंरात देशभर में सांप्रदायिक सुर्ख़ियों में आ गया।अब सरकार ने अपनी पूरी ताक़त गुंडों और दंगाइयों के ख़िलाफ़ दंडात्मक कार्रवाई करने में झोंक रखी है।एक छोटे से शहर में जितनी बड़ी संख्या में गुंडों की पहचान की गई है उससे कल्पना की जा सकती है कि सात करोड़ से ज़्यादा की जनसंख्या वाले प्रदेश में उनकी गिनती क्या होगी और आगे चलकर कितने और मकानों-दुकानों पर सरकार के बुलडोज़र चलने वाले हैं। बताया गया है कि निजी और सरकारी सम्पत्ति को क्षति पहुँचाने वालों से तीन महीनों में नुक़सान की वसूली की जाएगी।दावों की सुनवाई के लिए एक ‘क्लेम ट्रिब्यूनल’ भी गठित किया जाने वाला है।

एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में सरकार द्वारा अवैध निर्माणों, अतिक्रमणों, गुंडों और दबंगों के ख़िलाफ़ की जा रही ‘बुलडोज़री’ कार्रवाई का हाल-फ़िलहाल यह मानते हुए समर्थन किया जाना चाहिए कि उसके पीछे किसी धर्म विशेष के प्रति साम्प्रदायिक-राजनीतिक विद्वेष की भावना नहीं बरती जा रही है, सभी वर्गों के दोषियों के साथ एक जैसा व्यवहार हो रहा है और सभी आवश्यक क़ानूनी प्रक्रियाओं का पूरी तरह से पालन किया जा रहा है।

खरगोन में शांति की स्थापना के बाद सरकार को निश्चित ही इन सब सवालों के जवाब विधानसभा में भी देने होंगे और जनता की अदालत में भी। सरकार से यह सवाल भी किया जाने वाला है कि क्या अब मध्य प्रदेश में (भी?) शासन बुलडोज़रों का भय दिखाकर ही चलने वाला है? क़ानून और अदालतों की ज़रूरत में सरकार का यक़ीन कम या समाप्त हो रहा है?(इस लेख में व्यक्त विचार/ विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/ विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई जिम्मेदारी नहीं लेती है।)
ये भी पढ़ें
क्या सैनिटाइजर का इस्तेमाल सेहत के लिए खतरा है?