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Last Updated : शनिवार, 25 मार्च 2023 (19:04 IST)

अब यादों में जीवित रहेंगे अभयजी

अब यादों में जीवित रहेंगे अभयजी - Now Abhayji will live in memories
रामनाथ मुटकुळे
आदरणीय अभयजी के निधन के दुखद समाचार से मन झकझोर गया और उनकी स्मृतियां ताजा हो उठीं। उनके किस्से और उनके साथ बिताए गए पल किसी चलचित्र की भांति तैर गए। अब्बूजी, बड़े साहब यानि अभयजी बहुत ही शांत चित्त और शालीन व्यक्तित्व। कभी उन्हें गुस्साते और गुस्से में चिल्लाते नहीं देखा गया। नाराजी प्रकट करने का उनका तरीका भी बड़ा शालीन होता था, लेकिन उनके शालीनता से कहे गए तीक्ष्ण शब्दों से ही सामने वाला व्यक्ति अपनी गलतियों के अहसास में पानी-पानी हो जाता था। उनकी पारखी नजर जिस किसी पर भी पड़ जाती थी, वह कुंदन बनकर निखर जाता था।

बचपन से ही मेरा केशरबाग रोड स्थित नईदुनिया परिसर में आना-जाना था। उस परिसर और वहां के वातावरण मेरे लिए कभी अनजाना नहीं रहा। मेरा सौभाग्य है कि नईदुनिया के पितृ पुरुष और अभयजी के पिताजी बाबू लाभचंद छजलानी और इस संस्थान के अन्य दोनों संस्थापकों नरेंद्र तिवारीजी और बसंतीलाल सेठिया ‘भैयाजी’ को नजदीक से कई बार देखने का सुअवसर मुझे प्राप्त हुआ। हालांकि उस समय मेरी उम्र कम थी, लेकिन उन लोगों के प्रति तभी से मन में बड़ा आदर था।

अभयजी की माताजी और ताऊजी को भी मैंने नजदीक से देखा। तब नईदुनिया में एक पारिवारिक वातावरण हुआ करता था। नईदुनिया परिसर में कोई छोटा या बड़ा नहीं होता था, सभी अपने काम को लेकर प्रतिबद्ध थे और पूरी जिम्मेदारी से अपना काम करते थे।

इनके बाद की दूसरी पीढ़ी ने जब नईदुनिया का कार्यभार संभाला, तब इस अखबार का स्वर्ण काल था। इस दौर में अभयजी, महेंद्र सेठिया और अजय छजलानी इसके सर्वेसर्वा बने और बखूबी अखबार को आगे बढ़ाया। इस पीढ़ी में इन तीनों के साथ ही बहुत ही नजदीकी से मुझे काम करने का अवसर प्राप्त हुआ। उस वातावरण में कभी भी आजीविका को लेकर असुरक्षा की भावना मन में किसी के भी उत्पन्न नहीं हुई। यह सही है कि काम भरपूर करते थे, लेकिन उस काम में बोझिलता नहीं, वरन् आनंद मिलता था। नईदुनिया में उस समय किसी भी विशेष परिस्थिति का काम हो, उसमें मुझे जरूर शामिल किया जाता था। चाहे फिर वह अमेरिका के ट्रेड सेंटर पर आतंकी हमला हो, केंद्र सरकार का आम बजट हो, दीपावली अंक हो, खेल हलचल हो या फिर कोई भी विशेष अंक या विशेष परिस्थिति का अंक हो, उसमें मेरी मौजूदगी अवश्य रहती थी।

उज्जैन में सिंहस्थ लगने के दौरान नईदुनिया ने कुंभ मेले पर आधारित चित्रों की किताब प्रकाशित की थी। इस दौरान इन चित्रों के चयन के लिए मुझे अभयजी के पास चित्र दिखाने जाना पड़ता था। उस दौरान वे बहुत ही ध्यान से उन चित्रों को देखते और मुझसे कहते कि ये तस्वीर अच्छी है, इसे लेना चाहिए। चित्रों के चयन को लेकर उनकी दृष्टि बड़ी ही बारीक और पारखी थी। हालांकि वे मुझसे उम्र में भी काफी बड़े थे और अनुभव में भी, लेकिन चित्रों को लेकर वे कई बार मुझसे पूछते कि कहो, कौनसा चित्र अच्छा है। इसके बाद वे उस चित्र पर तर्कसंगत बताते कि यह चित्र इसलिए बेहतर है। इसे ही लेना चाहिए। इसके पश्चात मध्य प्रदेश पर उनके मार्गदर्शन में ईयर बुक निकाली गई, उसमें भी मेरा योगदान रहा और इस दौरान उनके साथ काफी काम किया। उनके सुझाव इतने तर्कसंगत होते थे कि उनमें खामी निकाल पाना असंभव होता था।

नईदुनिया के से हटने के बाद वे अभय प्रशाल से जुड़े रहे और एकाध वर्ष पूर्व तक वे वहां बैठते रहे। इस दौरान उनके मन में इंदौर पर पुस्तक प्रकाशित करने का विचार आया, तब फिर उन्होंने मुझे बुलवाया और पुस्तक प्रकाशन के लिए मुझे अपने साथ जोड़ा। ‘अपना इंदौर’ के नाम से चार वाल्यॅुम में प्रकाशित इन चारों पुस्तकों पर मैंने उनके साथ काम किया। इस दौरान कई बार वे साथ बैठते और आलेखों, फोटो पर चर्चा करते। इंदौर के इतिहास पर काफी चर्चा करते और पुस्तक के लिए सुझाव और मार्गदर्शन देते कि इसे इस तरह किया जाए तो बेहतर होगा। इन चारों पुस्तकों की प्रस्तावना में उन्होंने मेरे नाम का भी उल्लेख किया है।

इतने वर्षों तक उन्हें इतनी नजदीकी से देखने के बाद कभी यह महसूस नहीं हुआ कि उन पर उम्र हावी हो रही है। वे विचारों से हमेशा युवा नजर आते थे और उनकी खिलखिलाहट तो बच्चों जैसी उन्मुक्त होती थी। उनकी समझाइश भी प्यार भरी होती थी और उनकी नाराजी भी प्यार भरी होती थी। ‘अपना इंदौर’ के कार्य के दौरान एक बार मैंने उनके ननिहाल जो शाजापुर जिले के शुजालपुर में था, कि बात छेड़ दी थी, तो वे बेहद खुश हुए और बचपन की यादों में खो गए और वहां की बातें बताने लगे।

अखबार और पाठकों को लेकर उनमें इतनी प्रतिबद्धता थी कि एक बार अखबार में किसी शब्द पर गलत जगह बिंदु लग गई और अर्थ का अनर्थ हो गया। वहीं अखबार की सारी कॉपियां मशीन से प्रिंट होकर निकल गईं, तब उन्होंने उसे सही करवाने के लिए सभी कर्मचारियों को मार्कर पेन देकर उस गलती को सुधरवाने में लगा दिया। तब सभी कर्मचारियों ने उन हजारों कॉपियों से उस गलती को मार्कर पेन से सही किया, तभी अखबार बाजार में भेजा गया। ऐसे अनेक किस्से उनसे जुड़े हुए हैं।

अभयजी तीन भाई थे। उनके छोटे भाई श्रीचंद छजलानी का असामयिक निधन विदेश में एक दुर्घटना में हो गया था। दूसरे भाई विमल छजलानी और उनकी पत्नी पुष्पा छजलानी का निधन कुछ वर्ष पूर्व हुआ था। वहीं जिस दिन अभयजी का निधन हुआ, उसी दिन उनके भाई विमलजी की पत्नी सुशीला छजलानी का निधन भी भोपाल में हो गया। इस तरह छजलानी परिवार पर एक ही दिन दोहरा आघात पहुंचा। उनके परिवार में एक पुत्र विनय छजलानी, पुत्री शीला (अमरावती) और पुत्री आभा (अहमदाबाद) में हैं। परिवार के अतिरिक्त कोई उनके बेहद नजदीक था, तो वे थे मोहन वर्माजी, जो अंतिम समय तक उनके साथ उनकी सेवा में रहे। वहीं तत्कालीन नईदुनिया की लाइब्रेरी में कार्यरत कमलेश सेन भी उनके काफी नजदीकी रहे।
Edited by navin rangiyal
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