कोई 150 साल पुरानी फारसी में लिखी रामायण की प्रति और सातवीं सदी की कुरान लिए भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ईरान पहुंचना एक साथ बहुत से संदेश देता है। भारत की तरफ से यह जताने की कोशिश है कि भले ही दोनों देशों के रिश्ते कुछ दिनों के लिए थमे हों लेकिन खराब नहीं हुए हैं। एक इस्लामी देश में मोदी ने यह भी संदेश दिया कि हो सकता है कि उनकी सरकार पर हिन्दुवादी विचारधारा फैलाने के आरोप लगते हों पर उनका एजेंडा इससे अलग है। मोदी की ईरान यात्रा जबरदस्त राजनीतिक, कूटनीतिक, रणनीतिक और आर्थिक तैयारी के साथ तैयार की गई।
चाबहार बंदरगाह के विकास की 50 करोड़ डॉलर वाली डील से भारत एक साथ कई निशाने साध सकता है। ईरान का नक्शा देखने पर चाबहार की अहमियत समझ आती है। यह मोदी के गृह प्रदेश गुजरात से ज्यादा दूर नहीं, तो अफगानिस्तान और मध्य एशिया के लिए भारत का रास्ता भी खोलता है। इससे भी बड़ी बात यह कि चाबहार की मदद से भारत पाकिस्तान की सीमा पर बैठ सकता है। यह इलाका पाकिस्तानी प्रांत बलूचिस्तान की सरहद से ज्यादा दूर नहीं। बलूचिस्तान में अभी हाल ही में चीन ने ग्वादर बंदरगाह का विकास करने का करार किया है।
वादों की चुनौती : भारत का यह कदम रणनीतिक और सामरिक तौर पर जबरदस्त कामयाबी साबित हो सकता है, बशर्ते वह वादों को पूरा कर पाए। समझौते करने में भारत हमेशा आगे रहा है, लेकिन दिक्ककत इन्हें पूरा करने की होती है। वक्त पर काम नहीं होता और इनका बजट बढ़ता चला जाता है। भारत और ईरान के बीच ही कभी तेल पाइपलाइन की बात चली थी, जिसे पाकिस्तान के रास्ते आना था। उस वक्त ईरान पर आर्थिक पाबंदी थी और अमेरिका का भारत और पाकिस्तान पर दबाव था कि वे यह करार न करें। भारत ने अमेरिका के साथ परमाणु करार करने के बाद 2009 में प्रोजेक्ट से हाथ खींच लिए। इसी तरह भारत ने पूर्वोत्तर राज्यों और म्यांमार के बीच 2008 में एक मुक्त व्यापार मार्ग की बात की थी, जिसे 2013 में पूरा हो जाना था। यह अब तक लटका हुआ है।
चाबहार प्रोजेक्ट नया प्रस्ताव नहीं है। साल 2003 में अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्री काल से ही इस पर बात चल रही है। करार होते होते 12 साल बीत गए। वास्तविक काम शुरू करने में और समय लग सकता है। पिछले दो दशक में भारत ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी अलग पहचान बना ली है और इसकी विदेश नीति भी परिपक्व दिखने लगी है। लेकिन वक्त पर प्रोजेक्ट पूरे नहीं हो पाने से इसकी विश्वसनीयता पर सवाल उठते हैं।
मध्य पूर्व का बाजार : बहरहाल, ईरान के साथ दोस्ती का हाथ बढ़ाने से मध्य पूर्व के शक्ति संतुलन में भारत की हिस्सेदारी भी बन सकती है। विवादित परमाणु नीति की वजह से ईरान पर जो अंतरराष्ट्रीय पाबंदियां लगी थीं, वह इसी साल जनवरी में हटाई गई हैं। इसके बाद ईरान अचानक वैश्विक व्यापार के दायरे में आ गया। विशाल भूभाग और प्राकृतिक संपदा से संपन्न ईरान कई देशों के लिए मजबूत ठिकाना हो सकता है। अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंध के दौर में रूस और चीन ने यहां खूब कारोबार किया लेकिन भारत इसके बढ़ते बाजार का एक हिस्सा जरूर कब्जाना चाहेगा।
भौगोलिक लिहाज से भी ईरान बेहद महत्वपूर्ण है। यह मध्य पूर्व के सबसे बड़े देशों में है, जिसकी सीमा तुर्की और मध्य एशिया के दूसरे देशों से मिलती है। यानी यह रूस और यूरोप पहुंचने का भी प्रवेशद्वार साबित हो सकता है। हालांकि सऊदी अरब और इस्राएल जैसे देश ईरान के पड़ोस में हैं। ए भारत के दोस्त हैं और ईरान के दुश्मन। इन सबके बीच भारत को सामंजस्य बिठाना होगा। ईरान की मदद से भारत अपने मुश्किल पड़ोसी पाकिस्तान पर भी नकेल कस सकता है, जहां चीन ने हाल में ताबड़तोब़ निवेश किया है।
पाकिस्तान पर नकेल : पिछले साल चीन पाकिस्तान इकोनोमिक कॉरिडोर (सीपीईसी) का एलान भी हुआ था। ग्वादर बंदरगाह का विकास इसी के तहत किया जा रहा है। भारत और ईरान के रिश्तों को इस शक्ति संतुलन के रूप में भी देखा जा सकता है। दक्षिण एशिया में चीन को छोड़ कर पाकिस्तान का कोई अच्छा साथी नहीं है। भारत और ईरान के बीच दोस्ती बढ़ने के साथ पाकिस्तान की चिंता भी बढ़ सकती है, जिसका कुछ हिस्सा वहां की मीडिया में नजर भी आने लगा है।
किधर जाएंगे रिश्ते : मोदी 15 साल बाद भारत के प्रधानमंत्री के तौर पर ईरान पहुंचे। हालांकि येसाल ईरान के प्रतिबंध वाले थे, जहां उसका अंतरराष्ट्रीय संपर्क टूट चुका था। वह तेल और प्राकृतिक संसाधनों का निर्यात तो कर रहा था लेकिन इसके अलावा वहां कोई और कोई बाजार नहीं दिख रहा था। कई देशों में उसकी संपत्ति जब्त थी। भारत को इस बीच अमेरिका के साथ परमाणु डील करनी थी और वह ईरान के साथ दोस्ती बढ़ा कर अमेरिका को नाराज नहीं करना चाहता होगा।
बहरहाल, भारत और ईरान के बीच ऐतिहासिक रिश्ते रहे हैं। यहां तक कि लंबे वक्त तक फारसी भारत की राष्ट्रीय भाषा रह चुकी है। ऐसी मुलाकातों से रिश्ते मजबूत होते हैं। हालांकि इसके लिए भारत को वक्त पर अपना वादा पूरा करना होगा और ईरान को अंतरराष्ट्रीय बिरादरी के साथ मिल कर चलना होगा। अगर उस पर दोबारा पाबंदी लगती है, तो सारी योजनाएं चौपट हो सकती हैं।