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Written By Author श्रवण गर्ग
Last Updated : शनिवार, 5 जून 2021 (12:55 IST)

सोशल मीडिया- कल हो, न भी हो?

सोशल मीडिया- कल हो, न भी हो? | Social Media Platforms
हमें अब एक ऐसे परिदृश्य की कल्पना करना प्रारंभ कर देना चाहिए जिसमें वे सभी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स (फ़ेसबुक, ट्विटर, व्हाट्सएप, इंस्टा. आदि), जिनका कि हम आज धड़ल्ले से उपयोग कर रहे हैं, या तो हमसे छीन लिए जाएंगे या उन पर व्यवस्था का कड़ा नियंत्रण हो जाएगा। और यह भी कि सरकार की नीतियों, उसके कामकाज आदि को लेकर जो कुछ भी हम आज लिख, बोल या प्रसारित कर रहे हैं, उसे आगे जारी नहीं रख पाएंगे।
 
सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मों की आज़ादी पर किस तरह के सरकारी दबाव डाले जा रहे हैं, उसकी सिर्फ़ आधी-अधूरी जानकारी ही सार्वजनिक रूप से अभी उपलब्ध है। सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मों पर प्रसारित होने वाले कंटेंट पर सरकार का नियंत्रण होना चाहिए या नहीं, इस पर अदालतों में और बाहर बहस जारी है। 
 
बहस का दूसरा सिरा यह है कि अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप अपना स्वयं का ऐसा सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म खड़ा करने में जुटे हैं, जो स्थापित टेक कंपनियों के प्लेटफॉर्मों को टक्कर देने में सक्षम होगा। ट्रंप निश्चित ही अपना अगला चुनाव इसी प्लेटफॉर्म की मदद से लड़ना चाहेंगे।
 
अमेरिका में भी अगला चुनाव भारत के लोकसभा चुनावों के साथ ही 2024 में होगा। ट्रंप को अपना प्लेटफॉर्म खड़ा करने की ज़रूरत क्यों पड़ रही है, यह अब ज़्यादा बहस की बात नहीं रह गई है। ट्रंप के करोड़ों समर्थक अगर उसकी प्रतीक्षा कर रहे हों तो भी कोई आश्चर्य नहीं व्यक्त किया जाना चाहिए। 
 
पूरी दुनिया को पता है कि वॉशिंगटन में 6 जनवरी को अमेरिकी संसद पर हुए हमले के तुरंत बाद पूर्व राष्ट्रपति के ट्विटर और फ़ेसबुक अकाउंट्स निलंबित कर दिए गए थे। फ़ेसबुक ने हाल ही में अपनी कार्रवाई की फिर से पुष्टि भी कर दी। ट्रंप पर आरोप था कि वे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मों का उपयोग अपने समर्थकों को बाइडन सरकार के ख़िलाफ़ हिंसा भड़काने के लिए कर रहे थे।
 
भारत जैसे देश में सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर सरकार के बढ़ते दबाव और अमेरिका जैसे पश्चिमी राष्ट्र में एक पूर्व राष्ट्रपति द्वारा फिर से सत्ता प्राप्ति की कोशिशों में स्वयं का सोशल मीडिया मंच खड़ा करने को अगर सम्मिलित रूप से देखें तो दुनिया में प्रजातांत्रिक व्यवस्थाओं के अस्तित्व को लेकर कई तरह के सवाल खड़े होते हैं। 
 
महत्वाकांक्षी टेक कंपनियां अगर तब के राष्ट्रपति ट्रंप (बाइडन ने निर्वाचित हो जाने के बावजूद तब तक शपथ नहीं ली थी और ट्रंप व्हाइट हाउस में ही थे) का अकाउंट बंद करने की हिम्मत दिखा सकती हैं तो उसके विपरीत यह आश्चर्य भी नहीं होना चाहिए कि अपने व्यावसायिक हितों के चलते सरकार के दबाव में वे हमारे यहां भी कुछ हज़ार या लाख लोगों के विचारों पर नियंत्रण के लिए समझौते कर लें।
 
सोशल मीडिया अकाउंट बंद करने को लेकर हिंसा और घृणा फैलाने के जो आरोप ट्रंप के खिलाफ टेक कंपनियों द्वारा लगाए गए थे, वैसे ही आरोप सरकारी सूचियों के मुताबिक़ यहां भी नागरिकों के विरुद्ध लगाए जा सकते हैं। (एक नागरिक के तौर पर अभिव्यक्ति की आज़ादी के संवैधानिक अधिकार तो ट्रंप को भी उपलब्ध थे)। यह जानकारी अब दो-एक साल पुरानी पड़ गई है कि भारत स्थित फ़ेसबुक के कर्मचारी भाजपा के आईटी सेल के सदस्यों के लिए वर्कशॉप्स आयोजित करते रहे हैं। 
 
भारत में जिस तरह का सरकार-नियंत्रित 'नव-बाज़ारवाद' आकार ले रहा है, उसमें यह नामुमकिन नहीं कि सूचना के प्रसारण और उसकी प्राप्ति के सूत्र बाज़ार और सत्ता के संयुक्त नियंत्रण (पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप) में चले जाएं और आम जनता को उसका पता भी न चल पाए।
 
ट्विटर, फ़ेसबुक, गूगल आदि अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनियां किसी समाजसेवा या नागरिक आज़ादी के उद्देश्य से काम नहीं कर रही हैं। उनका मूल उद्देश्य धन कमाना और अर्जित मुनाफ़े को अपने निवेशकों के बीच बांटना ही है। अत: इन टेक कंपनियों को इस काम के लिए काफ़ी हिम्मत जुटानी पड़ेगी कि कोई 40 करोड़ से अधिक की संख्या वाले भारत के मध्यम वर्ग के आकर्षक बाज़ार का वे नागरिक आज़ादी की रक्षा के नाम पर बलिदान कर दें। (भारत में स्मार्टफ़ोन यूजर्स की संख्या लगभग 78 करोड़ है)।
 
सवाल यह खड़ा होने वाला है कि वर्तमान में अहिंसक और 'साइलेंट' प्रतिरोध के वाहक बने ये सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स अगर नागरिकों से छीन लिए जाएंगे अथवा उनकी धार को धीरे-धीरे भोथरा और उनकी गति को निकम्मा कर दिया जाएगा तो लोग व्यवस्था के प्रति अपने हस्तक्षेप को किस तरह और कहां दर्ज कराएंगे? चंद अपवादों को छोड़ दें तो मुख्य धारा के प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का एक बड़ा हिस्सा इस समय सरकारी बंदरगाह (गोदी) पर लंगर डालकर विश्राम कर रहा है। इसका एक जवाब यह हो सकता है कि आपातकाल से लड़ाई के समय न तो मोबाइल और सोशल मीडिया था और न ही निजी टीवी चैनल्स, फिर भी लड़ाई तो लड़ी गई। यह बात अलग है कि उस लड़ाई में वे लोग भी प्रमुखता से शामिल थे, जो कि आज सत्ता में हैं और सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मों के कामकाज में सरकारी हस्तक्षेप की अगुवाई कर रहे हैं।
 
ट्रंप द्वारा अपना सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म खड़ा करने की घोषणा न सिर्फ़ एकाधिकार प्राप्त कंपनियों की सत्ता को चुनौती देने की कोशिश है, बल्कि भारत जैसे राष्ट्र के शासकों को भी इस दिशा में कुछ करने की प्रेरणा दे सकती है। इस तरह की कोई कोशिश चुपचाप से हो भी रही हो, तो कोई अचंभा नहीं। वर्ष 2014 में मोदी को चुनाव प्रचार की तकनीक बराक ओबामा के सफल राष्ट्रपति पद के चुनाव प्रचार से ही मिली थी। तब ओबामा को 'दुनिया का पहला फ़ेसबुक राष्ट्रपति' कहा गया था। टेक कंपनियों की ताक़त का दूसरा पहलू यह है कि वे ट्रंप को सत्ता में वापस न आने देने के लिए भी अपना सारा ज़ोर लगा सकती हैं।अत: सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मों को लेकर वर्तमान में जो तनाव हमारे यहां चल रहा है, उससे टेक कंपनियों की ताक़त और उसमें सरकारी हस्तक्षेप की ज़रूरत के गणित को समझा जा सकता है।
 
हमने अभी इस दिशा में सोचना भी शुरू नहीं किया है कि कोरोना का पहला टीका ही लगने का इंतज़ार कर रही करोड़ों की आबादी को जब तक दूसरा टीका लगेगा, तब तक नागरिकों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर क्या-क्या और कैसे-कैसे खेल हो चुके होंगे। जिस सोशल मीडिया का उपयोग हम अभी नशे की लत जैसा इफ़रात में कर रहे हैं, वह अपनी मौजूदा सूरत में ज़िंदा रह पाएगा भी या नहीं, हमें अभी पता नहीं है। जनता जब तक सोचती है कि उसे अब कुछ सोचना चाहिए, तब तक सरकारें न सिर्फ़ अपना सोचना पूरा कर चुकती हैं बल्कि अपने सोचे गए पर अमल भी शुरू कर चुकी होती हैं।
 
(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)
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