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Written By Author श्रवण गर्ग
Last Modified: बुधवार, 26 अगस्त 2020 (15:04 IST)

कांग्रेस का ‘कोरोना’ संकट, छह माह में टीके की उम्मीद!

कांग्रेस का ‘कोरोना’ संकट, छह माह में टीके की उम्मीद! - congress working committee meeting
कांग्रेस में इस समय जो कुछ चल रहा है क्या उसे लेकर जनता में किसी भी तरह की उत्सुकता, भावुकता या बेचैनी है? उन बचे-खुचे प्रदेशों में भी जहां वह इस समय सत्ता में है? केरल के उस वायनाड संसदीय क्षेत्र में भी जहां से राहुल गांधी चुने गए हैं? उत्तर प्रदेश के रायबरेली में जहां से सोनिया गांधी विजयी हुईं हैं और अमेठी जहां से राहुल गांधी हार गए थे? या फिर देश के उन विपक्षी दलों के बीच जो केंद्र सरकार के ख़िलाफ़ नेतृत्व के लिए कांग्रेस की तरफ़ ही ताकते रहते हैं? शायद कहीं भी नहीं! कांग्रेस के दो दर्जन नेताओं ने सोनिया गांधी को चिट्ठी लिखकर मांग उठाई है कि पार्टी में अब एक ‘पूर्णकालिक’, ‘सक्रिय’ और ‘दिखाई पड़ने वाले’ नेतृत्व की ज़रूरत आन पड़ी है। कांग्रेस में ऐसे संस्थागत नेतृत्व का तरीक़ा स्थापित हो जो ‘सामूहिक’ रूप से पार्टी को पुनर्जीवित करने के लिए मार्गदर्शन प्रदान कर सके।

सोनिया गांधी को लिखी गई गोपनीय चिट्ठी मीडिया को लीक भी कर दी गई जिससे कि उस पर तुरंत विचार करने का दबाव बनाया जा सके। जिस तरह की मांग चिट्ठी में उठाई गई है, उसे 23 हस्ताक्षरकर्ताओं में से कुछ अपने तरीक़ों से व्यक्तिगत स्तर पर पूर्व में भी उठाते रहे हैं। जैसा कि होना भी था, कार्य समिति की मंगलवार को बैठक बुलाई गई, जिसमें चिट्ठी पर विचार करने के अलावा बाक़ी सब कुछ हुआ।

कोई दो दर्जन हस्ताक्षरकर्ताओं में केवल चार ही कार्य समिति के सदस्य हैं, पर गोपनीय बैठक की सारी जानकारी मीडिया को लगातार प्राप्त होती रही। अब जांच इस बात की होगी कि चिट्ठी किसने लीक की और बैठक की जानकारी कैसे बाहर आती रही। पार्टियों में आंतरिक प्रजातंत्र के नाम पर जब अराजकता मचती है, तो वह कांग्रेस बन जाती है।

राहुल गांधी ने बैठक में नाराज़गी ज़ाहिर की कि चिट्ठी लिखने के लिए ग़लत वक्त चुना गया पर यह नहीं बताया कि सही वक्त कौन सा हो सकता था। ऐसा इसलिए हुआ होगा कि जनता को अब परवाह नहीं बची है कि उसे कांग्रेस या किसी और दल की कोई ज़रूरत है। मध्यप्रदेश जहां कि पहले कांग्रेस की हुकूमत थी और अब भाजपा की है, वहां महीनों तक और बाद में राजस्थान में जहां वह अभी बची हुई है कई दिनों तक सरकारें ठप रहीं पर जनता की तरफ़ से सोनिया गांधी या जेपी नड्डा को कोई चिट्ठी नहीं लिखी गई। जनता अब सरकार और दल निरपेक्ष हो गई है। इसे किसी भी कल्याणकारी राज्य के अध्ययन योग्य विषयों में शामिल किया जा सकता है कि जनता को उसकी स्वयं की मुसीबतों में व्यस्त कर दिया जाए, तो उसे पता ही नहीं चलेगा कि उसकी क़िस्मत के फ़ैसले क्या और कहां लिए जा रहे हैं!

जनता, राजनीतिक दलों में प्रजातांत्रिक मूल्यों और असहमति की आवाज़ को जगह देने की चिंता तब करती है, जब ‘चिट्ठियों के ज़रिए’ उठाई जाने वाली मांगों को एक व्यक्ति के तौर पर अपने लिए और समाज के तौर पर समस्त प्रजातांत्रिक संस्थानों के लिए न सिर्फ़ अत्यंत आवश्यक मानती है, उसे अपने जीने-मरने का सवाल भी बना लेती है। वर्तमान की ओर ही नज़रें घुमाना चाहें तो हांगकांग और बेलारूस सहित कई देशों में इस समय लाखों लोग सड़कों पर यही कर रहे हैं। वहां सैन्य उपस्थिति के बावजूद ऐसा हो रहा है। व्यापक जन-उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए हमारे यहां आख़िरी बार ऐसा कोई प्रयोग दस वर्ष पूर्व अन्ना हज़ारे के नेतृत्व में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के दौरान देखा गया था, जिसका अरविंद केजरीवाल एंड कम्पनी द्वारा सत्ता प्राप्त कर लेने के साथ ही अंत भी हो गया। जिन मुद्दों को लेकर लड़ाई लड़ी गई थी वे आज भी वैसे ही क़ायम हैं।

कांग्रेस के मामले में व्यापक उदासीनता का एक कारण यह भी हो सकता है कि जिन ‘असंतुष्ट’ लोगों ने चिट्ठी पर हस्ताक्षर किए हैं, उनके वास्तविक उद्देश्यों के प्रति जनता पूरी तरह से आश्वस्त नहीं है। जनता की जानकारी में यह बात अच्छे से है कि चिट्ठी पर हस्ताक्षर करने वालों में अधिकांश मनमोहन सिंह सरकार में दस वर्षों तक उच्च मंत्री पदों पर रह चुके हैं। तब भी कांग्रेस की स्थिति वही थी, जो आज है। 'सामूहिक निर्णय' की मांग को लेकर तब इस तरह की चिट्ठियां नहीं लिखी गईं। या लिखी भी गईं हों तो मीडिया में लीक नहीं की गईं।

हस्ताक्षरकर्ताओं में एक ग़ुलाम नबी आज़ाद तो इस समय राज्यसभा में पार्टी के नेता भी हैं। कहा जाता है कि असंतुष्टों का नेतृत्व भी वे ही कर रहे हैं। भाजपा में तो ख़ैर इस तरह की किसी चिट्ठी का सोच मात्र भी कल्पना से परे है। आडवाणी जी, डॉ जोशी और यशवंत सिन्हा के अलावा शांता कुमार, अरुण शौरी, शत्रुघ्न सिन्हा और सिद्धू आदि इस बारे में ज़्यादा जानकारी दे सकते हैं। जनता को पता है इस या उस ‘परिवार’ की ताबेदारी करना अब सभी पार्टी सेवकों की नियति बन गई है।

इस बात की उम्मीद करना कि कांग्रेस के मौजूदा संकट का कोई सर्वसम्मत हल अगले छह महीनों में निकल आएगा कोरोना के अंतिम निदान की खोज करने जैसा है। कोरोना के ताजा मामले उन मरीज़ों के हैं जो दो-चार महीने पहले ठीक घोषित हो चुके थे। असहमति को बर्दाश्त करने की इम्यूनिटी सभी राजनीतिक दलों में काफ़ी पहले समाप्त हो चुकी है। याद किया जा सकता है कि जो प्रशांत भूषण इस समय सबसे ज़्यादा चर्चा में हैं उन्हें असहमति व्यक्त करने के कारण ही योगेन्द्र यादव आदि के साथ केजरीवाल द्वारा पार्टी से बाहर कर दिया गया था। कांग्रेस में जो निर्णय हुआ है, उसे केवल एक युद्ध विराम से दूसरे युद्ध विराम के बीच की अवधि पर सहमति माना जाना चाहिए जिससे कि दोनों ही पक्ष ज़रूरी तैयारी कर सकें।

संकट का हल निकल सकता है अगर सोनिया गांधी साहस दिखा सकें और चिट्ठी लिखने वाले नेताओं को बुलाकर कह दें कि आप ही किसी सर्वसम्मत नेता का नाम तय करके बता दीजिए, गांधी परिवार उसे स्वीकार कर लेगा। ऐसा कुछ नहीं किया गया तो छह महीने बाद ऐसी ही और भी कई चिट्ठियां लिखने वालों की संख्या चार दर्जन से ज़्यादा हो जाएगी। तकलीफ़ों के आंकड़े चारों ही ओर तेज़ी से बढ़ रहे हैं। हम जानते हैं कि सोनिया गांधी ऐसा साहस दिखा नहीं पाएंगी। (इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)