“इस वीकेंड तो तीन दिन की छुटियां पड़ रही हैं... कहीं जा रहे हैं आप लोग?” पड़ोस की प्रिया बाहर ही मिल गई है।
“हां, सोच तो रहे हैं.”
“कहां, फिर इंदौर...?” भई, माना तुम्हारा मायका है पर घुमने लायक क्या है वहां? मनु बोर नहीं हो जाता है हर बार?”
“मनु की ही जिद है और इंदौर में बोर होने का तो सवाल ही नहीं...” मम्मा ने अपनी आवाज में उतरती हल्की-सी तल्खी को पकड़ लिया और सतर्कतापूर्वक विषय को विराम दिया।
ये उलाहना नया नहीं है पर मम्मा को हमेशा इतना ही चुभता है। जानती हैं, वे इस मामले में ज्यादा भावुक हो जाती हैं लेकिन क्या करें? कैसे समझाए कि वहां देखने-दिखने जैसा बहुत कुछ न हो, पर महसूस करने जैसा बहुत-बहुत कुछ है।
अपनी जड़ों से जुड़ाव कोई अनोखी बात नहीं है। पर यह भी सच है कि इंदौर के लोगों का अपने शहर से प्रेम निराला ही है। मम्मा को तो 200 किमी की दूरी दूसरे ग्रह सी लगती है, तो विदेशों में बसे इन्दौरियों का क्या हाल होता होगा? वार-त्योहार, उत्सव, जश्न में तो हर इन्दौरी आत्मा बस तड़प उठती है. इंडिया क्रिकेट मैच भी जीत जाए तो मन उड़कर राजवाड़ा पहुंच जाता हैं, जहां सैकड़ों जाने-अनजाने उल्लास से भरे लोगों का हुजूम सिर्फ खुशियों को साझा करने उमड़ पड़ता है। इस शहर की मिट्टी में वह सौंधापन है, हवा में पुरसुकून अहसास है, पानी मिठास है कि यहां का बाशिंदा दुनिया के किसी कोने में चला जाए, मन और प्राण इंदौर में ही बसते हैं, क्योंकि यह सौंधापन और मिठास मिट्टी, हवा, पानी से सीधे लोगों कि जबान और दिल उतर आती है।
वैसे मम्मा समझती है कि अच्छे-बुरे लोग, खट्टे-मीठे अनुभव हर जगह मिलते है, बिना अपवाद के। लेकिन मालवा के साधारण बोलचाल, व्यवहार में जो आत्मीयता का पुट रहा है, उसे इस शहर ने तमाम आधुनिकता के बावजूद कहीं न कहीं सहेज कर रखा है और यह प्रेम-भाव सबसे ज्यादा प्रदर्शित होता है, तो खाने और खिलाने में। खाने का मोह और खिलाने का संतुष्टि ही इस प्रेम-पगी संस्कृति का आधार है।
“मम्मा, ये विडियो देखो ! सराफे का है ..” मनु के हाथ में पापा का मोबाइल है. “हम इतनी बार इंदौर जाते हैं, रात में सराफा क्यों नहीं गए?” मनु ने शिकायत की।
(और लोग पूछते हैं, इंदौर में है क्या ...? मम्मा मन ही मन हर्षाई)
“गए थे एक बार, तब तुम छोटे थे बहुत. छप्पन तो जाते है न हर बार.”
“अरे नहीं इस बार तो सराफा ..बस..! पापा, सुना न ..”
“मम्मा, इंदौर में पहले टेम्पो चलते थे?”
इंदौर यात्रा का अनिवार्य पड़ाव, डोडी, आने वाला है...
“टेम्पो का तो अपना कल्चर था, मनु. आमने-सामने की सीटों पर बैठे अनजाने लोग राजनीति, समाज और यहां तक कि निजी बातों पर भी दिल खोल कर चर्चा कर लेते थे। दोस्तियां और रिश्ते बन जाते थे टेम्पो में”
“सब फुरसती...जहां मिले वहीं शुरू.” पापा छेड़ने का कोई मौका कैसे छोड़ दे भला?
“यह सहज सौजन्य है, क्योंकि हम सुमड़े और आत्मकेंद्रित नहीं हैं न..”
“चलो—चलो डोडी आ गया.” पापा झट गाड़ी पार्क कर, फट से बाहर...
“नानू, इस बार हम सराफा जाएंगे, रात को..” इंदौर में आते ही मनु खान-पान की योजनाओं पर चर्चा शुरू कर देता है।
“अपने मंदिर के पास भी नई दुकान खुली है, बढ़िया जलेबी और आलू कचोरी है”
“एक और? इसी इलाके में कम से कम दसवीं दुकान होगी और सब चलती हैं...’ पापा ने हैरानी से सिर हिलाया।
इंदौर को यूं ही फूड कैपिटल थोड़ी कहा जाता है। ठंड में दाल–बाफले, गराडू, बटला कचोरी, मूंग-गाजर का हलवा, गर्मियों में शिकंजी, कुल्फी, लस्सी, गन्ने का रस, बरसात में भुट्टे का कीस-कचोरी और पोहे, पेटिस, चाट, नमकीन, मिठाइयां तो सदाबहार है ही। हर इलाके और दुकान की अलग खासियत भी।
“मौसी घर पहुंच गई है क्या ..?” मनु हमेशा की तरह नाना और दोनों छोटे नानाओं के घर अलग-अलग पकवानों का मज़ा ले चुका है और अब वे मम्मा की प्रिय सखी के घर ‘सरप्राइस विजिट’ देने जा रहे हैं।
“हां, अभी-अभी पहुंची हैं.... बहुत खुश हो जाएगी, देखना.”
“कल वो आंटी आपको देख कर रोने ही लगी थी.” इस बार समय निकाल कर बहुत पुरानी परिचित आंटी से भी मिल आए. हर बार मनुहार करती पर जाना हो ही नहीं पता था।
“बेटा, बहुत स्नेह रखती है वो, कल बहुत सालों बाद मिली न.”
मनु कल बारीकी से देख रहा था, कैसे अंकल-आंटी उन्हें देख कर गदगद हो आए थे... न-न करते-करते बनाया आटे का गर्म-गर्म हलवा, अंकल का लेपटॉप पर बच्चों की तस्वीरें दिखाने का बच्चों-सा उत्साह, मम्मा की विदाई के लिए ढूंढ कर निकाली प्यारी-सी साड़ी, मनु को दिए मुट्ठी भर रुपए और जी भर आशीष...
“दिल भर आता है, इनका दुलार देखकर.” पापा भी भावुक हो गए थे।
“अरे, रोटी जीम रहे थे, लड़की! जरा चैन नहीं, कितने फोन लगा रही है.” मम्मा की सखी लाइन पर है....
“हां, तो जीम लो न, हम कौन आ रहे है जीमने। हम तो खड़े यहां घर के बाहर..” मम्मा छोटी बच्ची बन गई है.
“ओ मेरी मां...!” लगभग चीखते हुए मौसी जूठे हाथों से दौड़ी चली आई हैस पीछे-पीछे पतिदेव बिना चप्पल के जल्दी-जल्दी सीढियां उतरते आ रहे हैं, अगवानी को....
अगले पांच मिनिट तक ‘भरत-मिलाप’ समान दृश्य में कैम्पस में उपस्थित समस्त लोग मुस्कान के साथ शामिल हैं।
स्वागत-सत्कार के बाद वहीं से सराफा के लिए सामूहिक प्रस्थान। रात के ग्यारह बजे हैं। लड़के, लडकियों, परिवारों के खिलखिलाते समूह यहां–वहां बिखरे हुए हैं। विजय चाट हॉउस, जोशी दही बड़ा, महू कुल्फी, मावाबाटी, केसरिया दूध.... मनु अभिभूत है और थोड़ी दुविधा में भी। मौसाजी ने उदात्त अनुभव के आधार पर सेनानायक की कमान संभाल ली है। समूह उनके पीछे है। स्वाद का संसार लुभाने को तैयार है।
“खा के देखो भिया! पसंद नी आए, तो कोई बात नी....
”
“टेस्ट करने के लिए जितना देते हैं, आपका तो उसी में पेट भर जाएगा” मनु फुसफुसाया।
“बिटिया, आप तो पेले भोत आते थे.” मम्मा की फेवरेट चाट की दुकान.....
“हां भैया, अब यहां नहीं रहती न ..” आवाज जाने कैसी हो आती है. नियम बना देना चाहिए, इंदौर की बेटियां इंदौर में ही ब्याही जाए, मम्मा के दिमाग में विचार कौंधा....
“आपसे पेसे नी लेंगे बाउजी! आप तो जमाई-साब हो”
मनु विस्मत-भाव से बंडी और गमछाधारी बुजुर्ग को देख रहा है, पापा जिनकी मैली गद्दी के नीचे आग्रहपूर्वक नोट रख रहे हैं।
मम्मा ने क्षण भर को आंखें मूंद ली हैं, “यही मेरे शहर की असली पहचान है, इस नियत को नजर न लगे, हे ईश्वर!”
“और आना बिटिया..” बुजुर्गवार के चेहरे पर सौम्य मुस्कान है। मम्मा को लगा जैसे उनकी प्रार्थना पर नगर देवता मुस्कुराकर कह रहे हो, ‘तथास्तु !’