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विश्वास नहीं होता होम्योपैथी वास्तव में एक विदेशी चिकित्सा पद्धति है

होम्योपैथी के जनक हानेमन की 270वीं जन्मजयंती पर विशेष

Birth anniversary of Samuel Hahnemann father of homeopathy
भारतीय जनमानस को होम्योपैथी इतनी सुपरिचित लगती है कि उसे विश्वास नहीं होता कि वह वास्तव में एक विदेशी चिकित्सा पद्धति है। संयोग भी कैसा कि लगभग 225 वर्ष पूर्व जब जर्मन विश्वविद्यालयों में संस्कृत भाषा व वेदों-पुराणों के पठन-पाठन का शौक जगा था, उन्हीं दिनों 1810 में जर्मन ईसाई धर्म प्रचारकों ने होम्योपैथी की दवाएं भारत में पहली बार बांटी थीं।

होम्योपैथी के जन्मदाता ज़ामुएल हानेमन (Samuel Hanemann) ने होम्योपैथी की बाइबल समझी जाने वाली 1810 में ही प्रकाशित अपनी पुस्तक, रोगनिवारण के सम्यक विज्ञान का सिद्धांत (ऑर्गैनन ऑफ़ द रैश्नल साइन्स ऑफ़ हीलिंग) में होम्योपैथी के मूल सिद्धांत प्रतिपादित किए थे। ईसाई धर्म प्रचारकों के माध्यम से होम्योपैथी अपने शैशवकाल में ही भारत पहुंच गई थी। इस चिकित्सा पद्धति की अंतरतम प्राणशक्ति और भारतीय तत्वदर्शन में कहीं न कहीं कोई ऐसा साम्य अवश्य है, जो भारत में उसके प्रति अपनत्व जगाता है। यह अकारण ही नहीं है कि भारतीय सरकारों की राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति में उसे आयुर्वेद और 'एलोपैथी' कहलाने वाली आधुनिक चिकित्सा पद्धति की पांत में बराबर का स्थान दिया जाता रहा है।

गांधीजी होम्योपैथी के प्रशंसक थे : राष्ट्रपिता महात्मा गांधी भी होम्योपैथी के परम प्रशंसक एवं शुभचिंतक थे। उनका कहना था, होम्योपैथी बीमार व्यक्ति के सबसे सस्ते एवं अहिंसक ढंग से उपचार की सबसे आधुनिक एवं सुविचारित पद्धति है। हानेमन एक ग़ज़ब के मनीषी थे। उन्होंने एक ऐसी चिकित्सा विधि विकसित की है, जिसमें मानव जीवन के उद्धार की कोई सीमा नहीं है। मैं उनकी क्षमता और महान मानवीय कृतित्व के आगे आदरभाव से नतमस्तक हूं।

डॉ. हानेमन का पूरा नाम क्रिस्टियान फ्रीडरिश ज़ामुएल हानेमन (Christan Friderich Samuel Hanemann) है। अधिकांशतः उनके संक्षिप्त नाम 'ज़ामुएल हानेमन' का ही प्रयोग किया जाता है। जर्मन भाषा के उच्चारण नियमों से अनभिज्ञ होने के कारण भारत में उन्हें हानेमन के बदले, महात्मा या संत हैनीमैन कहने का प्रचलन है, जो सही नहीं है। उनका जन्म 10 अप्रैल, 1755 को आजकल के पूर्वी जर्मन राज्य सैक्सनी के माइसन नगर में हुआ था। यह शहर जर्मनी के बाहर भी चीनी मिट्टी के उत्कृष्ट बर्तनों और कला वस्तुओं के लिए तब भी प्रसिद्ध था, अब भी प्रसिद्ध है।

पिता हस्तशिल्पी बेटा चाहते थे : उनके पिता क्रिस्टियान गोटफ्रीड हानेमन, चीनी मिट्टी की बनी वस्तुओं को अपनी चित्रकारी से सजाकर और अधिक मूल्यवान बनाते थे। वे चाहते थे कि उनका बेटा भी कोई हस्तशिल्प अपनाए। बालक हानेमन की आरंभिक पढ़ाई पिता के ही हाथों घर पर हुई।12 वर्ष की आयु में उन्होंने स्कूल जाना शुरू किया। पिता की सादगी के कायल ज़ामुएल हानेमन स्वयं भी सादगी की प्रतिमूर्ति थे। स्कूली जीवन में ही लैटिन सहित कई भाषाएं सीख गए थे। पिता लेकिन कोई काम सीखने के बदले पढ़ाई करने के उनके निर्णय से प्रसन्न नहीं थे, जबकि युवा हानेमन की परम इच्छा थी डॉक्टर बनने की।

1775 में हानेमन ने पूर्वी जर्मनी के लाइपज़िग विश्वविद्यालय में डॉक्टरी की पढ़ाई शुरू की, पर जल्द ही पाया कि वहां तो सारी पढ़ाई निरी किताबी थी। रोगियों के दर्शन ही नहीं होते थे। साथ ही, पढ़ाई ज़ारी रखने के लिए पैसे भी नहीं थे। अतः मोल्दाविया से आए एक धनी यूनानी युवक को जर्मन और फ्रेंच भाषा का ट्यूशन देकर और अंग्रेज़ी पुस्तकों के अनुवाद द्वारा किसी तरह अपना काम चलाते रहे और 1777 में ऑस्ट्रिया की राजधानी विएना चले गए। ऑस्ट्रिया भी एक जर्मन जातीय और जर्मन भाषीय देश है। उस समय वहां की साम्राज्ञी, मारिया थेरेज़िया के निजी डॉक्टर योज़ेफ़ कुआरीन की एक उदार और सुधारवादी चिकित्सक के तौर पर बड़ी ख्याति थी। 22 साल के हानेमन, कुआरीन के सहायक बन गए और उन्हीं से चिकित्सा विज्ञान का व्यावहारिक पक्ष सीखा।

एक सामंत के चिकित्सक बने : उन दिनों के बारे में हानेमन ने अपनी आत्मकथा में लिखा है, मेरे पास का अंतिम पैसा भी चुकने ही वाला था कि ट्रंससिल्वानिया से वहां के सामंत, बरोन फ़ॉन ब्रुकेनथाल ने मुझे सम्मानजनक शर्तों पर अपने साथ हेर्मनश्टाट चलने और वहां उनके पारिवारिक चिकित्सक तथा पुस्तकालय संचालक के तौर पर रहने का निमंत्रण दिया।

ट्रंससिल्वानिया आजकल के रोमानिया का एक ऐसा इलाका है, जहां सदियों से और आज भी काफी बड़ी संख्या में जर्मनवंशी रहते हैं। हेर्मनश्टाट, जिसे अब सिब्यू कहा जाता है, ट्रंससिल्वानिया की राजधानी था। हानेमन वहां दो वर्षों तक रहे। चिकित्सा विज्ञान का व्यावहारिक ज्ञान बढ़ाने के साथ कई और भाषाएं सीखीं। स्वदेश लौटने के बाद 1779 में उन्होंने जर्मनी के एरलांगन विश्विद्यालय से चिकित्सा विज्ञान के डॉक्टर की उपाधि प्राप्त की।

1781 से हानेमन पूर्वी जर्मनी के देसाऊ नाम के शहर में रहने और डॉक्टर का काम करने लगे। इसी शहर में 68 साल बाद जर्मनी के सुविख्यात भारतशास्त्री, फ्रीडरिश माक्स म्युलर का जन्म हुआ था। हानेमन को देसाऊ में ही अपनी पहली पत्नी मिली। तब वे 27 साल के थे। डॉक्टरी करने के साथ-साथ वहां की दवाओं की एक दुकान में भेषजशास्त्र का भी व्यावहारिक अनुभव प्राप्त कर रहे थे। दुकान के मालिक की दत्तक पुत्री हेनरिएटे क्युशलर के साथ 1782 में परिणय सूत्र में बंध गए।

11 बच्चों के पिता बने : ज़ामुएल हानेमन का यह पहला दाम्पत्य-सुख 48 वर्षों तक चला। वे 11 बच्चों के पिता बने। इतने बड़े परिवार का भरण-पोषण करने के लिए कुछ समय तक उन्होंने पुस्तकों की नकल उतारने और अनुवाद करने का भी काम किया। पैसा तो कम ही मिलता था, पर अनुवाद कार्य से एक ओर ग्रीक, लैटिन, अंग्रेज़ी और फ्रेंच के अतिरिक्त अरबी और हीब्रू के उनके भाषा ज्ञान का सदुपयोग हो जाता था और दूसरी ओर उनका अपना ज्ञान भंडार भी बढ़ता था।

एक ऐसे ही अनुवाद कार्य ने ज़ामुएल हानेमन को होम्योपैथी का जन्मदाता ही नहीं, मानवजाति का एक महान उद्धारक भी बना दिया। वे स्कॉटलैंड के औषधिशास्त्री विलियन कलन की लिखी पुस्तक मटेरिया मेडिका (Materia Medica) का जर्मन भाषा में अनुवाद कर रहे थे। अनुवाद करते समय 1790 में उन्होंने पढ़ा कि सिनकोना (Cinchona) पेड़ की छाल, पेट में अपने अनुकूल प्रभाव के कारण मलेरिया दूर कर सकती है। इसे उन्होंने अपने ही ऊपर आजमाकर देखने का निश्चय किया। उन्हें शायद पेट में गड़बड़ी की शिकायत रहा करती थी। सोच रहे थे कि सिनकोना से उनकी परेशानी दूर हो जाएगी किंतु परिणाम कुछ और ही निकला!

सिनकोना प्रयोग : हानेमन ने इस प्रयोग का वर्णन करते हुए लिखा है, मैं 4क्वेंटशेन (1क्वेंटशेन=1.67 ग्राम) अच्छा सिनकोना दिन में दो बार, कई दिनों तक लेता रहा। मेरे पैर, उंगलियां इत्यादि ठंडी होने लगीं। सुस्त और उनींदा महसूस करने लगा। दिल की धड़कनें तेज़ होने लगीं। नाड़ी भी कठोर व तेज़ होती गई। एक अप्रिय भय-सा अनुभव होता था। कंपकंपी होने लगी थी। हाथों-पैरों में कमज़ोरी लग रही थी।सिर भन्नाने लगा। गाल पिलपिले हो गए। प्यास सताने लगी यानी मलेरिया के सारे लक्षण उभरने लगे, केवल बुखार नहीं था। यह दशा हर बार 2-3 घंटों तक रहती थी। सिनकोना की खुराक दुबारा लेने पर पुनः ऐसा होता था अन्यथा नहीं। खुराक बंद करते ही मैं ठीक हो गया।

यह अनपेक्षित अनुभव हानेमन के लिए इस गुप्त ज्ञान का उद्घाटन था कि जिस चीज़ के उपयोग से स्वस्थ शरीर में अस्वस्थता के लक्षण दिखाई पड़ते हैं, उसी प्रकार के लक्षण वाली किसी बीमारी के समय वही चीज़ रोगी को स्वस्थ करने की दवा हो सकती है। हानेमन का यह अनुभव वास्तव में भारत के इस प्राचीन ज्ञान की पुष्टि के सामान है कि 'समम् समेन शाम्यति'– सम से ही सम का उपचार होता है। 'विषस्य विषम् औषधि'– विष ही विष की दवा है।

सम से सम का उपचार : हानेमन ने अपने ऊपर किए इस प्रयोग के बाद अगले 6 वर्षों में 100 से अधिक विविध औषधियों को पहले अपने ऊपर और फिर अपनी पत्नी, सभी 11 बच्चों और मित्रों पर भी आजमाया। प्राप्त अनुभवों को वे रोगियों के उपचार में इस्तेमाल करने लगे। 6 वर्षों की जांच-परख के बाद 1796 में उन्होंने पहली बार 'सम से सम के उपचार' के अपने सिद्धांत को लेखबद्ध किया। शीर्षक दिया था, 'औषधीय पदार्थों की रोगनिवारक शक्ति जानने हेतु एक नए सिद्धांत के लिए प्रयोग और अब तक के सिद्धांतों पर एक दृष्टिपात।
 
सामान्यतः इसी लेख के कारण 1796 को होम्योपैथी के जन्म का वर्ष माना जाता है। उस समय 41 वर्ष के ज़ामुएल हानेमन ने जो कुछ प्रतिपादित किया था, वही 1810 में प्रकाशित उनकी प्रसिद्ध रचना 'रोगनिवारण के सम्यक विज्ञान का सिद्धांत' बना। बाद के वर्षों में उन्होंने होम्योपैथी के सैद्धांतिक तथा व्यावहारिक पक्ष का और अधिक परिष्करण एवं परिमार्जन किया, उसे एक सुसंबद्ध उपचार प्रणाली का स्वरूप दिया। होम्योपैथी नाम, ग्रीक भाषा के दो शब्दों के मेल से बना हैः होमोइयोस (homoios) अर्थात सम या समान और पाथोस (pathos) अर्थात पीड़ा या वेदना। तात्पर्य है, जिस चीज़ की अधिकता से कोई वेदना, कोई बीमारी पैदा होती है, उसी से या उसकी समधर्मी किसी दूसरी चीज़ की सांकेतिक अल्पमात्रा से वह ठीक भी होगी।

एलोपैथी नाम भी हानेमन ने दिया : होम्योपैथी से ठीक विपरीत है वह तथाकथित पश्चिमी चिकित्सा पद्धति, जिसे हानेमन ने एलोपैथी नाम दिया। यह नाम भी उनकी प्रिय ग्रीक भाषा के अलोस (allos) और पाथोस (pathos) शब्दों के मेल से बना है। अलोस का अर्थ है अन्य, इतर। अभिप्राय है, बीमारी से भिन्न प्रभाव वाली औषधि से उपचार। दूसरे शब्दों में होम्योपैथी का मूलमंत्र यदि कारण और लक्षण की समानता द्वारा किसी बीमारी का उपचार करना है, तो एलोपैथी का मूलमंत्र है कारण और लक्षण की भिन्नता द्वारा उपचार करना। एलोपैथी में माना जाता है कि बीमारी के विपरीत प्रकृति वाली दवा ही शरीर में अपनी रासायनिक क्रियाओं के प्रभाव से बीमारी ठीक कर सकती है।

200 वर्ष पूर्व के भारत की तरह ही जर्मनी भी अनेक रियासतों और रजवाड़ों का देश हुआ करता था। देसाऊ से केवल 20 किलोमीटर दूर ही कौएठन नाम के रजवाड़े के राजा ने 1821 में हानेमन से कहा कि वे कौएठन क्यों नहीं चले आते। हानेमन ने उनका निमंत्रण स्वीकार कर लिया। कौएठन में वे 14 वर्षों तक रहे। वहीं उन्होंने अपनी पुस्तक, 'रोगनिवारण के सम्यक विज्ञान का सिद्धांत' का तीसरा, चौथा और पांचवां संस्करण लिखा। वहीं पहली बार दवा में घुले औषधीय तत्व की स्थूल मात्रा को घटाते हुए उसकी प्रभावशक्ति बढ़ाने की विधि के लिए पोटेंशिएट (potentiate) शब्द का प्रयोग किया, जिसे हिंदी में शक्तिकरण कहा जाता है। वहीं दीर्घकालिक (chronical) बीमारियों के उपचार के बारे में 1828 में अपनी बहुचर्चित पुस्तक चिरकालिक व्याधियां (Chronical Diseases) लिखा। दुर्भाग्य से कौएठन में ही 1830 में उनकी पत्नी हेनरिएटे का 67 वर्ष की आयु में देहांत हो गया।

अनुयायियों के बीच विवाद : पत्नीशोक के बीच ही हानेमन को कुछ और आघात भी सहने पड़े। उनके अनुयायियों में होम्योपैथी के भावी विकास की दिशा को लेकर विवाद छिड़ गया। एक पक्ष होम्योपैथी की शुद्धता को बनाए रखने की हानेमन की शिक्षाओं के प्रति पूर्ण निष्ठावान रहना चाहता था। दूसरा पक्ष होम्योपैथी और उस समय की पारंपरिक एलोपैथी के बीच समन्वय चाहता था। पर दोनों पद्धतियों के बीच सिद्धांत और व्यवहार के ज़मीन-आसमान जैसे मौलिक अंतर के कारण कोई समन्वय संभव ही नहीं था।

वास्तव में ढाई सौ वर्ष पूर्व हानेमन के ज़माने में प्रचलित एलोपैथी बहुत ही आदिम और बर्बर किस्म की थी। उसका आधारभूत सिद्धांत यही था कि बीमारियां शरीर में रस-दोष (Humoral pathology) के कारण होती हैं। शरीर में प्रवाहित हो रहे रसों में या तो विषाक्तता आ गई है या दोषपूर्ण रक्त की अधिकता हो गई है। अतः दूषित रसों या रक्त को बहाकर ही रोगी का उद्धार संभव है। अधिकांश रस भी रक्त में मिश्रित समझे जाते थे। इसलिए ड़ॉक्टर भी कसाई की तरह चीरा लगाकर रक्तचूषक नली या सुई लगाकर रक्तस्राव द्वारा रोगी का कथित दूषित रक्त बहाया करते थे।

वेदनाओं से भरी थी एलोपैथी : यहां तक कि रक्त और रसों को चूसने वाली जीवित जोंक (leech) भी रोगी के शरीर पर लगा दी जाती थी। 1823 से प्रकाशित हो रही चिकित्सा विज्ञान की ब्रिटेन की सबसे पुरानी पत्रिका का नाम अनायास ही लैंसेट (Lancet) नहीं है। यह नाम उसे चीर-फाड़ के उस नश्तर से मिला है, जिसे उस ज़माने के एलोपैथी डॉक्टर, आजकल के आले (स्टेथोस्कोप) की तरह गर्दन से लटकाए घूमते थे। यातनाओं-वेदनाओं से भरी उस समय की परिस्थितियों में होम्योपैथी इसीलिए एक अहिंसावादी कोमल क्रांति थी।

वह रोग से लड़ने में रोगी की भीतरी क्षमता को जागृत करती थी। हानेमन हर व्यक्ति को उसके जीवनवृत्त, खान-पान, रहन-सहन, आदतों और अनुभवों के साथ एक अलग, एक विशिष्ट व्यक्ति और उसकी बीमारी को भी एक अलग बीमारी मानते थे। इसीलिए ऊपरी तौर पर कई लोगों को एक जैसी ही शिकायत होने पर भी एक ही दवा देने से मना करते थे। उनका कहना था कि चिकित्सक का काम बीमार को ठीक करना है, बीमारी अपने आप ठीक हो जाएगी।

ऐसा कोई संकेत नहीं मिलता कि ज़ामुएल हानेमन को आयुर्वेद के बारे में भी कुछ पता था। दूसरी ओर आयुर्वेद के ही समान उनका भी यही अनुभवसिद्ध आग्रह था कि लक्षण स्वयं कोई बीमारी नहीं होते, वे तो बीमारी की केवल बाहरी अभिव्यक्ति होते हैं। लक्षण दूर हो जाने मात्र से बीमारी ठीक नहीं हो जाती। वह तब ठीक होती है, जब शरीर के भीतर कार्यरत जीवनशक्ति (life force) में आ गई गड़बड़ी दूर हो जाती है। जीवनशक्ति में आया असंतुलन ही व्यक्ति को बीमार बनाता है। यह जीवनशक्ति भला क्या है, इसे बताते हुए हानेमन ने लिखा है :

जीवनशक्ति क्या है : स्वस्थ अवस्था में भौतिक काया को अनुप्राणित करने वाली आत्मासमान एक ऐसी ओजस्वी जीवनशक्ति मनुष्य में वास करती है, जो उसके सभी अवयवों को उनकी अनुभूतियों और कार्यों में आश्चर्यजनक ढंग से जीवनपर्यंत समन्वित रखती है। जीवनशक्ति-विहीन भौतिक काया किसी भी चेतना, किसी भी क्रिया, अपने आप को बनाए रखने की किसी भी क्षमता के अयोग्य है। केवल वही जो अभौतिक है, भौतिक शरीर को स्वस्थ और अस्वस्थ होने की अनुभूतियां प्रदान करता है, उसके क्रियाकलापों का संचालन करता है। मर जाने पर मनुष्य, बाह्यजगत की भौतिक सत्ता के पूर्णतः अधीन हो जाता है। उसका शरीर अपने संघटक तत्वों में विघटित हो जाता है। (ऑर्गैनन- अनुच्छेद 9)

कहने की आवश्यकता नहीं कि आयुर्वेद के ही समान ज़ामुएल हानेमन भी यही मानते थे कि मनुष्‍य तन और मन, देह और आत्मा की अविभाज्य इकाई है। एक भौतिक है, स्थूल है। दूसरा अभौतिक है, अदृश्य है। लेकिन जो भौतिक है, स्थूल है, वह अभौतिक, अदृश्य के अधीन होता है। अदृश्य के बिना दृश्यमान निर्जीव है। दूसरे शब्दों में बीमार तन नहीं, मन होता है। तन, मन की बीमारी का दर्पण है। मन चंगा, तो कठौती में गंगा!

हर बीमारी की कोई दवा है : बीमारी ही नहीं, दवा के बारे में भी हानेमन का एक अलग ही दृष्टिकोण था। वे कहते थे कि प्रकृति में मिलने वाली हर बीमारी के लिए प्रकृति में ही कोई न कोई औषधि ज़रूर है, हमें उसका पता हो या न हो। वे औषधीय गुण वाली केवल प्राकृतिक चीजों को ही यानी पेड़-पौधों, जड़ी-बूटियों, विषों या धातुओं को ही औषधि के रूप में स्वीकार करते थे। इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि केवल वही पदार्थ दवा के रूप में बीमार को ठीक कर सकता है, जिसका किसी स्वस्थ व्यक्ति पर पहले कभी परीक्षण हो चुका है।

परीक्षण के समय वही लक्षण उभरे थे, जो अब उपचार के इच्छुक व्यक्ति में दिखाई पड़ रहे हैं। ये लक्षण शारीरिक ही नहीं, मानसिक भी हो सकते हैं। इसी के आधार पर उन्होंने यह सिद्धांत प्रतिपादित किया कि होम्योपैथी वाली औषधियों की कारगरता केवल स्वस्थ मनुष्यों पर, न कि बीमारों या जानवरों पर परखी जानी चाहिए। एलोपैथी में ऐसी कोई वर्जना नहीं है।

1834 में एक दिन पेरिस से एक महिला चित्रकार हानेमन से मिलने आई। आयु थी मात्र 32 साल। बहुत सुन्दर। शालीन। आकर्षक। 80 साल के होते हुए भी हानेमन बड़े दिलफेंक निकले। शीघ्र ही दोनों ने विवाह कर लिया और जून 1835 में जर्मनी छोड़कर पेरिस चले गए। पेरिस में ही 2 जुलाई, 1843 को 88 वर्ष की आयु में ज़ामुएल हानेमन ने अंतिम सांस ली। मृत्यु से 4 वर्ष पूर्व होम्योपैथी के प्रभावकारिता सिद्धांत की व्याख्या करते हुए उन्होंने लिखा, होम्योपैथी की क्रियाशक्ति इसी में है कि वह शरीर में छिपे पड़े औषधीय गुणों को सच्चे अर्थ में जागृत कर दे।

शरीर में बैठा है अदृश्य वैद्य : हानेमन मानते थे कि हमारा शरीर औषधीय गुणों से स्वयं ही संपन्न है। स्वयं ही रोगमुक्त होने की क्षमता रखता है। ऐसा न होने पर शरीर में छिपे-बैठे अदृश्य वैद्य को होम्योपैथी की दवा के रूप में धीरे से एक हल्का-सा स्पर्श देना पर्याप्त है। मात्र स्पर्श देने के लिए ही होम्योपैथी की दवाओं में मूल औषधीय तत्व अत्यंत क्षीण मात्रा में होता है। कई बार इतना क्षीण कि दवा के पूरे घोल या दाने में मूल तत्व का एक अणु भी मिल जाए, तो बड़ी बात है।

इस चमत्कार के लिए ईश्वर का नाम लेने से हानेमन लंबे समय तक बचते रहे। 'सांसारिक वास्तविकता मात्र एक स्थूल यांत्रिकता है' जैसी दार्शनिकता से काम चलाते रहे। अपनी पुस्तकमाला ऑर्गैनन के 17वें अनुच्छेद में अंततः उन्होंने यह कहते हुए ईश्वर का नाम ले ही लिया कि वही चिकित्सक का मार्गदर्शन करता है, ईश्वर, मनुष्यजाति का संरक्षक, केवल इसी प्रकार अपना प्रज्ञान (wisdom) और अपनी करुणा चिकित्सक के आगे उद्घाटित करता है कि उसे बीमारियों का निवारण करने के लिए क्या करना है।
(इस आलेख के दूसरे भाग में पढ़िए भारत के मुंबई स्थित 'भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र' में कई वर्षों तक होम्योपैथी की कार्यविधि को समझने की गहन खोज कर चुकीं डॉ. अकल्पिता परांजपे का होम्योपैथी के विज्ञानसम्मत पक्ष के बारे में क्या कहना है)