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लोकपाल के मुद्दे पर केन्द्र का रुख कितना जायज?

लोकपाल के मुद्दे पर केन्द्र का रुख कितना जायज? - Anna Hazare, Lokpal Bill, Supreme Court
सुप्रीम कोर्ट ने 27 अप्रैल को कहा था कि साल 2013 का लोकपाल और लोकायुक्त कानून व्यवहारिक है और इसका क्रियान्वयन लटकाकर रखना ठीक नहीं है। कानून के अनुसार, लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष लोकपाल चयन पैनल का हिस्सा होंगे, पर इस वक्त लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष नहीं है। देश में लोकपाल की नियुक्ति की मांग करने वाली याचिकाओं पर अदालत ने 28 मार्च को अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था। लोकपाल के लिए राष्ट्रीय स्तर पर आंदोलन खड़ा करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे ने सुप्रीम कोर्ट की लोकपाल के मसले पर टिप्पणी के बाद केंद्र सरकार पर हमला बोला। उन्‍होंने कहा कि लोकपाल न लाना जन इच्छा का अनादर है। 
 
अन्ना ने कहा कि मोदी अच्छा भाषण देते हैं, फिर सवाल उठता है कि वह लोकपाल क्यों नहीं ला रहे? बता दें कि लोकपाल और लोकायुक्त कानून लागू करने में केंद्र सरकार जो देर लगा रही है उसकी जनहित याचिका प्रशांत भूषण ने दर्ज की थी। उस जनहित याचिका की सुनवाई के दौरान ही सुप्रीम कोर्ट ने 27 अप्रैल को मोदी सरकार को फटकार लगाई। इस पर अन्ना ने कहा कि सरकार को पहले भी एक बार फटकार लगाई गई है कि लोकपाल कानून को जल्द लागू करो। सदन में विरोधी दल का नेता न होना बताकर लोकपाल न लाना ठीक नहीं है। अन्ना ने कहा कि मैं तो कहता हूं कि लोक आयुक्त के लिए तो विरोधी पक्ष नेता की जरूरत नहीं है, लोकायुक्त तो हर राज्य ने नियुक्त करना है। अगर सीबीआई निदेशक बिना विरोधी पक्ष के नेता के भी नियुक्त करते हैं, सीवीसी चीफ बिना विरोधी पक्ष के नेता नियुक्त कर सकते हैं, तो लोकपाल कानून क्यों नही बन सकता। यदि अन्ना की बातों पर विचार करें तो यही कहा जा सकता है कि लोकपाल के मुद्दे पर सरकार के पास या तो इच्छाशक्ति का अभाव है अथवा वह जानबूझकर इसे करना नहीं चाहती।
 
लोकपाल के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट की बातें तो संवैधानिक है, इस पर गंभीरता से विचार होना ही चाहिए। वहीं वर्ष 2014 से पूर्व लोकपाल के मुद्दे पर यूपीए सरकार के खिलाफ हवा बहाकर मोदी सरकार की राह सुगम करने वाले अन्ना हजारे भी सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी के बाद गुस्से में हैं। अन्ना ने मोदी सरकार पर हमला बोला है। कहा है कि ऐसा भी हो सकता है कि हर जगह चुनाव में जो लगातार जीत हो रही है, तो उन (पीएम नरेन्द्र मोदी) को अहम पैदा हो गया हो। उनको लगता होगा हमारा क्या कोई बिगाड़ लेगा। सुप्रीम कोर्ट के दो-दो बार बताने के बावजूद भी नहीं लागू कर रहे हैं लोकपाल, लोकायुक्त कानून, तो इसका मतलब ये बढ़ता हुआ इगो है। 
 
बकौल अन्ना, मैं अपने कार्यकर्ताओं से सलाह-मशविरा करके कुछ तो करूंगा इस सरकार के खिलाफ। लोकपाल को लागू नहीं करना संविधान की अवमानना है, देश के कानून की अवमानना है। जनता की जो अपेक्षा है लोकपाल लाने के लिए, उस जनता की भी अवमानना है। इस मसले पर यदि सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी की चर्चा करें तो यही कहा जाएगा कि लोकपाल की नियुक्ति के मामले में सर्वोच्च अदालत के कठोर रुख ने सरकार की हीलाहवाली की हवा निकाल दी है। अदालत ने फैसला सुनाया है कि लोकपाल अधिनियम में बिना किसी संशोधन के ही काम किया जा सकता है। दरअसल, अदालत इस बात से नाराज है कि लोकपाल की नियुक्ति को क्यों अधर में रखा गया है? गौरतलब है कि लोकपाल की नियुक्ति में देरी को लेकर स्वयंसेवी संगठन कॉमन कॉज ने याचिका दायर कर रखी थी। देरी का कारण सरकार यह बताती रही कि नियुक्ति समिति की शर्त पूरी नहीं हो पा रही है। लोकपाल की नियुक्ति या चयन के लिए जो समिति गठित की जानी है उसके सदस्यों में लोकसभा में नेता-प्रतिपक्ष का भी प्रावधान है, जबकि मौजूदा लोकसभा में कोई नेता-प्रतिपक्ष नहीं है। कांग्रेस 44 सदस्यों के साथ लोकसभा में विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी जरूर है, पर सदन में कोई नेता प्रतिपक्ष नहीं है। केंद्र सरकार के इस तर्क से सुप्रीम कोर्ट संतुष्ट नहीं है।
 
सवाल है कि जब सीबीआई निदेशक की नियुक्ति को सीबीआई अधिनियम में (लोकसभा में सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी के नेता को ही नेता-प्रतिपक्ष मानने के लिए) संशोधन आसानी से हो गया, तो लोकपाल की बाबत ऐसा क्यों नहीं हो सका? सरकार लोकपाल अधिनियम के एक प्रावधान का हवाला दोहराती रही। यह तर्क था या बहाना? जिस सरकार ने अध्याधेश की झड़ी लगाने में संकोच नहीं किया, जिस पर राष्ट्रपति ने भी नाराजगी जताई थी। जिस सरकार ने गैर-वित्तीय मामलों के विधेयक को धन विधेयक के रूप में पेश करने की ढिठाई दिखाई, वह लोकपाल की नियुक्ति क्या बस इसलिए नहीं कर पा रही है कि नेता-प्रतिपक्ष नहीं है? जीएसटी विधेयक पास हो गया, जिसमें अड़ंगेबाजी की तोहमत सरकार विपक्ष पर मढ़ती रही, मगर क्या विडंबना है कि जिस संशोधन के लिए विपक्ष तैयार बैठा था, वह संसदीय समिति के बहाने अब तक लटक रहा है। मोदी सरकार को तीन साल होने को हैं। जो सरकार भ्रष्टाचार मिटाने का दम भरती हो, उसे तो लोकपाल की नियुक्ति के लिए तत्पर दिखना चाहिए था। 
 
देर से ही सही, अब उसे दुरुस्त कदम उठाना चाहिए। कोई चार महीने पहले ही सुनवाई के दौरान उसने कहा था कि अगर नेता-प्रतिपक्ष से संबंधित समस्या दूर नहीं हो रही है तो न्यायालय आदेश दे सकता है कि संसद में सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी का नेता ही नेता-प्रतिपक्ष होगा। अब तो न्यायालय ने यह तक कह दिया कि लोकपाल अधिनियम में बिना संशोधन के ही काम किया जा सकता है। दरअसल, अगर सरकार का इरादा टालमटोल का न होता, तो नेता-प्रतिपक्ष की परिभाषा में ढील देने के लिए आवश्यक संशोधन कब का पारित हो चुका होता। अगर इस मामले में कोई संशोधन विधेयक लाया जाता, तो विपक्ष उसका तहेदिल से स्वागत ही करता, पर जो कानून 2013 में पारित हो चुका और जिसे भाजपा ने भी दोनों सदनों में अपना पूरा समर्थन दिया था, उस कानून को लागू करने के बजाय मोदी सरकार ने उसमें एक-दो नहीं, बीस संशोधन प्रस्तावित कर दिए। यह मोदी के मुख्यमंत्री रहते हुए गुजरात सरकार के उस रवैए की याद दिलाता है, जिसने कोई न कोई पेच लगाकर सात साल तक लोकायुक्त की नियुक्ति नहीं होने दी थी।
 
देश के चर्चित पत्रकार रवीश कुमार ने इस बाबत एनडीटीवी इंडिया के लिए प्राइम टाइम इंट्रो में बिंदास व मजाकिया लहजे में लिखा है कि लोकपाल भले न आया हो लेकिन इसके आने को लेकर जो आंदोलन हुआ उससे निकलकर कई लोग सत्ता में आ गए। 2011 से 2013 के साल में ऐसा लगता था कि लोकपाल नहीं आएगा तो कयामत आ जाएगी। 2013 में लोकपाल कानून बन गया। 1968 में पहली बार लोकसभा में पेश हुआ था। कानून बनने में 45 साल लग गए तो कानून बनने के बाद लोकपाल नियुक्त होने में कम से कम दस-बीस साल तो लगने ही चाहिए थे। अभी तो लोकपाल कानून के बने चार ही साल हुए हैं, अभी तो 41 साल और बाकी हैं, मगर लोग इतनी जल्दी भूल गए कि भ्रष्टाचार अगर दूर होगा तो लोकपाल से ही दूर होगा बल्कि लोग इतना भूल गए कि याद ही नहीं रहा कि लोकपाल आंदोलन से निकली दो-दो पार्टियों को दिल्ली नगर निगम के चुनावों में वोट भी देना है। 
 
लोकपाल-लोकपाल गाने वाले गिटारिस्ट की बहुत याद आ रही है, उनका गाना बहुत अच्छा था। भाजपा ने 2014 के घोषणा पत्र के पेज नंबर 9 पर लिखा था- 'प्रशासनिक सुधार भाजपा के लिए प्राथमिकता होंगे, इसके लिए हम उनका क्रियान्वयन प्रधानमंत्री कार्यालय के तहत एक उचित संस्था के ज़रिए करने का प्रस्ताव करते हैं, हम एक प्रभावी लोकपाल संस्था गठित करेंगे, हर स्तर के भ्रष्टाचार से तीव्रता और कड़ाई से निपटा जाएगा।' यह काम मोदी सरकार के करीब तीन वर्ष पूरे होने तक भी नहीं हो सका है। आखिरकार सुप्रीम कोर्ट की कड़ी टिप्पणी के बाद यह देखना है कि सरकार क्या करती है?
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