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Mahatma Gandhi : गांधी इस पूरी धरती का स्वाभिमान थे

Mahatma Gandhi : गांधी इस पूरी धरती का स्वाभिमान थे - Mahatma Gandhi 30 January 1948
पुण्यतिथि विशेष : गांधी की हत्या, देश की आत्महत्या है 
 
संत का अंत नहीं होता बल्कि संत देहमुक्त होकर अनंत हो जाता है। आज आदमी, आदमी के बीच नफरत, जाति-जाति के बीच दुश्मनी और घृणा तथा मुल्क-मुल्क के बीच आतंक, तनाव और एक-दूसरे को मिटा देने की कट्टरता व्याप्त है। आखिर इतने सारे धर्म, मजहब पालने वाले दुनिया की छः अरब आबादी के लोगों ने अपने संतों से क्या पाया, क्या सीखा और क्या समझा? 
 
बीसवीं सदी के महान उपन्यासकार जॉर्ज ऑरवेल ने अपने एक निबंध, 'गांधी : कुछ विचार' में कहा है- 'संतों को हमेशा ही तब तक दोषी मानना चाहिए, जब तक वे अपने को दोषरहित साबित न कर दें, लेकिन इसके लिए जो परीक्षण अपनाए जाएँ, वे सभी के लिए समान नहीं होते हैं। 
 
गांधी को लेकर सवाल यह है कि गांधी किस हद तक ऐसे संतत्व से एक विनम्र और चेतनाशील फकीर के रूप में संचालित थे, जो बिना संत हुए भी चटाई पर बैठकर प्रार्थना गाते-गाते दुनिया के सबसे बड़े, तगड़े और ताकतवर साम्राज्य को अपनी आत्मा की ताकत से हिला रहे थे। गाँधी ने साम्राज्य को आत्मा की ताकत से हिलाया, प्रार्थना से हिलाया, सामान्य मनुष्य की तरह जीकर और अपना काम करते हुए बिना संतत्व का बाना पहने, बिना अवतार, पीर, पैगम्बर कहलाए, बिना किसी धर्म, मजहब या रिलीजन को छोटा या बड़ा बताए। 
 
शस्त्र और शास्त्र में कितना अंतर है? दुनिया के सबसे शक्तिशाली राष्ट्र ने सबसे शक्तिशाली शस्त्र बनाए मगर ग्यारह सितंबर की सुबह शस्त्र और शक्ति के दुर्ग भेद दिए गए। जिस अमेरिका का नाम लेकर दुनिया के कई मुल्क थर्राते थे, वह स्वयं थर्रा उठा। पता नहीं शस्त्रों की होड़और मजहबी नफरतों की दौड़ में शामिल अब भी शस्त्र और संत में फर्क करेगी या नहीं, बंदगी और जिंदगी को एक मानेगी या नहीं, सेवा और साधना को एक समझेगी या नहीं। 
 
गांधी इस पूरी धरती का स्वाभिमान थे। वे सेवा की साधना थे। वे ईश्वर, देवता, अवतार, संत कुछ नहीं थे। वे तो इंसान और इंसानियत के नए संस्करण थे। उन्होंने शस्त्र की ताकत को सत्य की ताकत के सामने झुका दिया। गांधी को समझा नहीं गया, इसलिए गांधी को माना नहीं, गांधी को माना नहीं गया इसलिए गांधी को मार डाला गया। सच पूछा जाए तो हमने हत्या गांधी की नहीं की, बल्कि एक प्रकार से आत्महत्या की। 
 
गांधी को मारकर राजनीति से हमने नीति को मार डाला, धर्म से धर्म के आदर्श की हत्या कर दी। चरखे से उसका कर्म और हाथों से पैदा होता स्वाभिमान छीन लिया और इंजीनियरिंग कॉलेजों, मैनेजमेंट संस्थानों, चिकित्सा महाविद्यालयों, स्कूलों, कॉलेजों सब जगह बेकारों की ऐसी भीड़ खड़ी कर दी, जिसके पास काम नहीं, जिसके पास स्वावलंबन नहीं। 
 
इसलिए देश में एक स्वाभिमानी पीढ़ी बनने से वंचित होती जा रही है। गांधी ने नारी को देवी बनाने के बजाए सहकर्मिणी बनाया। गांधी ने शिक्षा में सरस्वती पूजन के लिए मूर्ति या फोटो नहीं लगाया बल्कि ज्ञान की सरस्वती का अध्ययन और कर्म से पूजन करना सिखाया। गाँधी गीता, बाइबिल, कुरान पढ़ते ही नहीं थे बल्कि उनके रास्ते पर चलते भी थे। उन्होंने पराई पीर को जानने और दूर करने का धर्म अपनाया था और दुनिया में कोई देश, धर्म या समाज नहीं, जिसकी पीड़ा न हो। 
 
गांधी चेतना का चिंतन थे और चिंतन की चिंता थे। वे मानते थे कि जिस देश या समाज के पास चिंतन और चेतना नहीं, वह ज्ञान और सेवा का देश या समाज नहीं बन सकता। गांधी में अनेक महान आत्माएं एकाकार होती थीं। उनमें महर्षि अरविंद का मानस था, रामकृष्ण परमहंस-सी भक्ति, विवेकानंद-सा देशप्रेम, रामतीर्थ-सी मेधा, क्रांतिकारियों के जैसा साहस और राममोहन राय, गोखले, तिलक जैसी ज्ञान के प्रति आस्था। इन सबका समन्वय थे गाँधी। इसलिए गांधी प्रकृति भी थे, पुरुष भी, नैतिक भी थे और नेतृत्व में नीतिवान भी। संयम उनकी साधना थी, नियम उनकी नैतिकता थी और यम उनका लोक व्यवहार था। 
 
गांधी एक लोकसत्ता हैं। यदि गांधी की लोकसत्ता सुरक्षित रखनी है तो गांधी को कम्प्यूटर की किसी वेबसाइट या इंटरनेट की खिड़की में बंद करने के बजाए मैदान में उतारना होगा। ईसा जिस तरह से पुनर्जीवित हो उठे थे, उसी तरह हमें अपनी चेतना में गांधी को भी पुनर्जीवित करना होगा। 
 
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