बिहार विधानसभा चुनावों के गर्माहट भरे माहौल में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार द्वारा 2016 में लागू किया गया शराबबंदी कानून एक बड़े राजनीतिक मुद्दे के रूप में उभरा है। यह कानून न सिर्फ राज्य के सामाजिक-आर्थिक ताने-बाने को उलट-पुलट चुका है, बल्कि अब सत्तारूढ़ राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) के लिए गले की फांस बन गया है। जहां एक ओर जनता दल (यूनाइटेड) (JDU) इस पर मौन साधे हुए है, वहीं विपक्षी महागठबंधन और जन सुराज जैसे नए दल इसे 'विफल' करार देकर हटाने या गहन समीक्षा का वादा कर रहे हैं। यह बहस अब केवल नीतिगत सुधार तक सीमित नहीं रही, बल्कि सत्ता की नैतिकता, सामाजिक न्याय के दावों और राज्य की आर्थिक हानि के गंभीर सवाल उठा रही है।
				  																	
									  ताड़ी पर तेजस्वी का दांव: 'गरीबों के पेट पर लात' और दलित-पिछड़ों की गिरफ्तारी, विपक्षी महागठबंधन, जिसके केंद्र में राष्ट्रीय जनता दल (RJD) है, ने अपने घोषणापत्र में इस कानून की गहन समीक्षा और पारंपरिक 'ताड़ी' व्यवसाय पर लगे प्रतिबंध को तत्काल हटाने का स्पष्ट वादा किया है।
				  इंडिया गठबंधन के मुख्यमंत्री पद के दावेदार तेजस्वी यादव ने अपनी रैलियों में इस बात पर विशेष जोर दिया है कि यह कानून ताड़ी जैसे पारंपरिक और जातीय व्यवसायों से जुड़े समुदायों की आजीविका को नष्ट कर रहा है। यादव का तीखा बयान, "यह कानून गरीबों के पेट पर लात मारने जैसा है," वंचित वर्गों के बीच व्यापक असंतोष को दर्शाता है।				  						
						
																							
									  आंकड़े इस राजनीतिक दांव की पुष्टि करते हैं। शराबबंदी के नौ वर्षों में कानून के तहत हुई 12.79 लाख गिरफ्तारियों में से 85 प्रतिशत से अधिक लोग अनुसूचित जाति (SC), अत्यंत पिछड़ा वर्ग (EBC) और अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) समुदायों से हैं। ये वे वर्ग हैं, जिन्हें नीतीश कुमार सामाजिक न्याय का आधार बताते रहे हैं। विपक्षी दलों का तर्क है कि यह कानून सामाजिक न्याय के दावों के विपरीत, राज्य के सबसे गरीब और वंचित वर्गों पर ही सबसे ज्यादा बोझ डाल रहा है, जिससे जेलों में भीड़ बढ़ी है।				  																													
								 
 
 
  
														
																		 							
																		
									  'राजस्व के वरदान' से 'सुशासन का स्तंभ': नीतीश कुमार का शराबबंदी का फैसला विडंबनापूर्ण अतीत लिए हुए है। 2005 में पहली बार सत्ता में आने के बाद, उन्होंने ही राज्य में उदार शराब नीति लागू की थी, जिससे राज्य का उत्पाद शुल्क राजस्व 500 करोड़ रुपये से बढ़कर 2015 तक 5,000 करोड़ रुपये हो गया था। यह नीति राज्य की अर्थव्यवस्था के लिए 'वरदान' साबित हुई थी।
				  																	
									  हालांकि, 2015 के विधानसभा चुनाव में महागठबंधन (RJD के साथ) के नेतृत्व में सत्ता संभालने के बाद, नीतीश ने शराबबंदी को चुनावी वादे का हिस्सा बनाया। शराबबंदी उनकी "सुशासन बाबू" की छवि को मजबूत करने और महिलाओं के सशक्तिकरण से जुड़ा एक प्रतीकात्मक कदम था। ग्रामीण महिलाओं का लंबे समय से शराब के दुष्प्रभावों के खिलाफ मजबूत समर्थन रहा था, जिसे भुनाने में नीतीश सफल रहे।
				  																	
									  कानून पारित होने के समय तत्कालीन सहयोगी RJD, जो 80 सीटों के साथ JDU से बड़ी पार्टी थी, अपने OBC-यादव आधार को देखते हुए प्रतिबंध के खिलाफ थी। इसके बावजूद, नीतीश ने 6 अप्रैल 2016 को भाजपा—जो उस समय विपक्ष में थी—के समर्थन से इस कानून को पारित कराया, महात्मा गांधी का हवाला देते हुए शराब को "सामाजिक बुराई" करार दिया।				  																	
									  
कानूनी और नैतिक संकट: लगभग एक दशक बाद, यही कानून न केवल न्यायिक व्यवस्था पर बोझ बन गया है, बल्कि एक विशाल समानांतर 'अवैध अर्थव्यवस्था' को जन्म दे चुका है। दिसंबर 2021 में, सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश एनवी रमना ने स्पष्ट टिप्पणी की थी कि बिहार के शराबबंदी कानून में "प्रशासनिक दूरदर्शिता की कमी" है, जिससे अदालतों पर "अपार बोझ" पड़ गया है। यह टिप्पणी कानून की मौलिक कमियों को रेखांकित करती है।				  																	
									  
जहरीली शराब से मौतें और मुआवजा: हाल के वर्षों में जहरीली शराब से 300 से अधिक मौतें हुईं, जिसने सरकार को बैकफुट पर धकेल दिया। अप्रैल 2023 में पीड़ित परिवारों को चार लाख रुपये का मुआवजा देने का फैसला प्रतिबंध की मूलभूत कमजोरियों को छिपा नहीं सका, बल्कि यह स्वीकारोक्ति थी कि सरकार प्रतिबंध को लागू करने में विफल रही है।
				  																	
									  जन सुराज के संस्थापक प्रशांत किशोर, जो खुद को "राजनीतिक सलाहकार से कार्यकर्ता" के रूप में पेश करते हैं, ने इस मुद्दे पर सरकार को सीधे चुनौती दी है। उनका दावा है कि कानून "पूरी तरह विफल" है और इससे राज्य में सालाना 20,000 करोड़ रुपये की अवैध अर्थव्यवस्था फल-फूल रही है। किशोर ने घोषणा की, "मैं सत्ता में आते ही 15 मिनट में प्रतिबंध हटा दूंगा। यह कानून न तो नैतिक है, न आर्थिक।"				  																	
									  
NDA की दुविधा: विपक्ष की आक्रामकता के बावजूद, शराबबंदी के कुछ सामाजिक सकारात्मक प्रभाव रहे हैं, जिनका जिक्र NDA कर रहा है। द लैंसेट रीजनल हेल्थ साउथईस्ट एशिया जर्नल में प्रकाशित एक शोध के अनुसार 2016 में बिहार में शराबबंदी से दैनिक और साप्ताहिक खपत के 24 लाख मामले और अंतरंग साथी हिंसा के 21 लाख मामले रुके। इस रिपोर्ट के अनुसार, शराबबंदी के बाद बिहार में 21 लाख महिलाओं ने घरेलू हिंसा की कोई शिकायत दर्ज नहीं की। यह एक उल्लेखनीय सामाजिक उपलब्धि है और ग्रामीण इलाकों में महिलाओं का समर्थन अभी भी नीतीश सरकार के लिए मजबूत आधार है। JDU के प्रवक्ता नीरज कुमार ने इस फैसले को सही ठहराते हुए कहा है, "कई रिपोर्ट जीवन की गुणवत्ता में सुधार की बात करती हैं। सीमित पुलिस संसाधन और भारत-नेपाल सीमा जैसी चुनौतियों के बावजूद, हम प्रतिबद्ध हैं।"
				  																	
									  हालांकि, राजनीतिक लाभ सीमित रहा है। 2020 के विधानसभा चुनावों में JDU की सीटें 71 से गिरकर 43 रह गईं, जो भाजपा की संख्या से आधी से भी कम थी। भाजपा के प्रदेश उपाध्यक्ष संतोष पाठक ने विपक्ष पर हमला करते हुए इस मुद्दे को महिलाओं की भावनाओं से जोड़ा: "जिन्होंने शराब के व्यापार से वोट बटोरे, उनके पास नैतिक अधिकार ही नहीं है। हम महिलाओं की आवाज के साथ खड़े हैं।"
				  																	
									  यह चुनावी समर में यह मुद्दा NDA की आंतरिक एकजुटता को परखने का इम्तिहान बन सकता है। क्या नीतीश की 'महिला-समर्थक' छवि ग्रामीण वोटों को बरकरार रख पाएगी, या '20,000 करोड़ की अवैध अर्थव्यवस्था के दावे और वंचित वर्गों पर पड़े सामाजिक-न्यायिक बोझ का अहसास विपक्ष को निर्णायक फायदा देगा? बिहार की राजनीति में शराबबंदी अब केवल एक कानून नहीं, बल्कि सत्ता की नैतिकता, सामाजिक न्याय और चुनावी दांव-पेंच का केंद्र बन चुकी है—जिसका परिणाम नवंबर के मतदान से तय होगा।