शुक्रवार, 29 नवंबर 2024
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Written By WD

बदलते वक्त की बेस्वाद उत्सुकता

बदलते वक्त की बेस्वाद उत्सुकता - Old Memories
प्रीति सोनी

जिन चीज़ों के लिए महीनों का इंतज़ार किया जाता था, अब वे सभी चीजें दैनिक जि़ंदगी का हिस्सा बनकर रह गईं हैं। उत्सुकता को जन्म देती वे सारी बातें, जो कभी उत्सव से कम नहीं होती थी, अब एक सामान्य क्रिया होकर रह गई है। देखा जाए तो इस परिवर्तन से हमारे जीवन का एक हिस्सा रंगहीन जरूर हुआ है। 



जब कोई चीज़ आसानी से और अधि‍क संख्या में उपलब्ध होती है, तो उसकी महत्ता कम हो ही जाती है। समय के साथ साथ हमारे जीवन की ऐसी कई चीज़ों, रस्मो रिवाज़ और तरीकों में बदलाव आ गया है, जो अब पहले की तरह प्रसन्नता नहीं देते। बचपन में जिन बातों के लिए मन में उत्सुकता हुआ करती थी, अब वे सारी बातें आम हो चलीं हैं। एक नज़र डालते हैं जीवन के उन पहलुओं पर, जो कभी अपने आप में बेहद म‍हत्वपूर्ण, उत्सुकता से परिपूर्ण और उत्सव की तरह मनाए जाते थे, लेकिन वर्तमान में केवल जरूरत और कई बार गैर जरूरी विलासिता का रूप ले चुके हैं।
 
नए कपड़ों की उत्सुकता -
याद करते हैं उन दिनों को जब हम छोटे थे। उस वक्त हम नए कपड़े तभी खरीदते थे, जब हमारा जन्मदिन, कोई त्यौहार या करीबी रिश्तेदार के घर कोई विवाह समारोह हो। उस समय नए कपड़ों के लिए महीनों का इंतजार किया जाता था। जब भी नए कपड़े खरीदने निकलते थे, मन में अपार उत्साह और खुशी होती थी। महीनों में एक बार लि‍ए जाने वाले कपड़े... क्वालिटी, साइज़ और कलर से समझौता नहीं करते थे और ना ही फैशन पर इतना ज्यादा फोकस होता था। लेकिन वर्तमान समय में आज अधिकांश युवा हर सप्ताह या हर महीने नए पकड़े खरीद लिया करते हैं। उसके लिए किसी शुभ मौके की जरूरत नहीं होती। अब नए कपड़े मौके के बजाए मन पर निर्भर करते हैं। जाहिर सी बात है, कि शौक और फैशन जरूर महत्वपूर्ण है, लेकिन अब वह उत्सुकता महसूस नहीं की जा सकती, जो पहले खरीददारी के लिए घर से निकलते ही हुआ करती थी। बल्कि उस वक्त घर से निकलना ही उद्देश्य से होता था, और अब निरूद्देश्य भी कपड़ों की खरीदी हो जाती है।


 
 
जूते चप्पलों की जरूरत-
बच्चे हों या बड़े, सभी के लिए साल या 6 महीने में एक बार चप्पल जूते ले लिए जाते थे, जो आराम से अगले 6 महीने या साल भर तक चल जाया करते थे। बच्चों के स्कूल के जूते-चप्पल भी ऐसे ही होते थे जो अधिक समय तक चल जाए। अभी जहां जूते चप्पलों की डिजाइन और स्टाईल पर ध्यान दिया जाता है, उस समय इस बात पर ज्यादा ध्यान दिया जाता था, कि चप्पलें टिकाउ कितनी है। एक ही चप्पल किसी भी कपड़ों पर पहन लिया करते थे।अब मैचिंग फुटवेअर के जमाने में घर में जूते चप्पलों का ढेर जरूर लग जाता है, लेकिन उनमें से कुछ ही लंबी रेस का घोड़ा साबित होती हैं। कई तो ऐसी भी निकल जाती है, जो महीने भर में ही दम तोड़ देती है। अब दुकानों को भी विश्वसनीयता के आधार पर नहीं चुना जाता, बल्कि वैराइटी ऑफ स्टॉक के अनुपात, अनुसार चुना जाता है।

 मेहंदी का रंग -
पहले जहां हर त्यौहार या समारोह में महिलाओं के हाथों में मेहंदी का गहरा रंग उनके प्रति आकर्षण को बढ़ाता था, अब वह पहले की तुलना में काफी सिमट गया है।


आज उसकी जगह अलग अलग डिजाइन के टैटू ने ले ली है। अब मेहंदी के बारीक डिजाइन से परे हटकर, युवतियों को अलग - अलग अंदाज़ के टैटू पसंद आते हैं। पहले जो उत्सुकता मेहंदी को लेकर हुआ करती थी, वही अब टैटू को लेकर भी होती है। फर्क बस इतना है, कि जिस मेहंदी से लड़के दूरियां बनाते थे, अब वे सबसे ज्यादा टैटू बनवाना पसंद करते हैं, और इसे हाथों के बजाए शरीर के किसी भी हिस्से पर बनवाया जाता है। 
 
पैसों का संग्रहण-
पहले जब खुद नहीं कमाते थे, तब पैसों को जोड़कर रखते थे।घर की महिलाओं ओर बच्चों की अपनी गुल्लक हुआ करती थी, जिसे हिलाने पर होने वाली खनक हमारे उत्साह को बनाए रखती थी । खास तौर पर लड़कियां, रक्षाबंधन पर भाईयों के तोहफे और दी गई राशि‍ का संग्रहण करके रखती थी और उन पैसों को गिनकर, संभाल कर रखने में जो खुशी और आत्मविश्वास महसूस होता था, आज के समय में लाखों की कमाई भी वह एहसास नहीं दे पाती। अब उपहारों और  रिश्तेदारों व्दारा जाते वक्त हाथ में दिए गए पैसों का मोल उतना नहीं रहा, जितना कभी हुआ करता था। 
 

 
 

चूड़ियों की खनक-  
पहले की तुलना में महिलाओं, यहां तक कि नवविवाहिता के हाथों में भी चूड़ि‍यों की खनक सुनाई नहीं देती। पहले जहां महिलाओं के अस्तित्व का आकर्षण ही चूड़ियों की खनक से होता था, वहीं आज सिर्फ एक कंगन या ब्रेसलेट में हाथों का सौंदर्य सिमट कर रह गया है।
अब मां या घर की किसी भी महिला सदस्य के घर में होने न होने का अंदाज़ा उस खनक के अनुसार नही लगाया जा सकता है। पहले तो मां को घर में ढ़ूंढने के बजाए, हमारे कान चू‍ड़ि‍यों की खनक का पीछा करते उन तक पहुंच जाया करते थे, जिसमें छुपा प्यार भरा एहसाह अब नहीं मिलता। 
 
गुड्डे-गु‍ड़िया-
बच्चों व्दारा घर में खेला जाने वाला गुड्डे-गुड़ि‍यों का खेल किसे पसंद नही आया। बच्चे तो बच्चे, घर के बड़े भी उसे बड़े मजे के साथ देखते थे। बच्चे भी इन खेलों के जरिए परंपराओं को गढ़ते थे, उसमें रम जाते थे। आज भी ये खेल सोचने में काफी रोमांचक लगता है। लेकिन समय के साथ साथ गुड्डे गुड़ि‍यों का अस्ति‍तव गुम होता गया, और उनकी जगह अन्य आधुनिक व तकनीकी खि‍लौनों और टेडी बिअर ने ले ली। ऐसी नहीं है कि टेडी बिअर से भावनात्मक जुड़ाव नहीं है, लेकिन गुड्डे गुड़ि‍यों में रमा बच्चों का संसार अपने आप में सांस्कृतिक सौंदर्य की कई परिभाषाएं गढ़ता है।पहले बच्चों के पास वैरायटी जरूर कम हुआ करती थी लेकिन उन खि‍लौनों से उनका भावनात्मक लगाव और जुड़ाव, बेहद था।