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Written By DW
Last Modified: गुरुवार, 21 मई 2020 (18:34 IST)

क्या सरकारी मंडियों को कमजोर करने से किसान का भला हो पाएगा?

क्या सरकारी मंडियों को कमजोर करने से किसान का भला हो पाएगा? - Will weaken the farmer by weakening the government mandis?
- चारु कार्तिकेय
एनडीए सरकार कृषि उत्पादों की बिक्री प्रक्रिया में निजी कंपनियों को लाकर राज्य सरकारों द्वारा चलाई जा रही मंडियों के एकाधिकार को समाप्त कर रही है। क्या वाकई इससे किसानों का भला होगा और व्यवस्था में सुधार होगा?

भारत में दशकों से कृषि उत्पाद बाजार समिति कानून यानी एपीएमसी एक्ट के तहत बनीं मंडियों के द्वारा कृषि उत्पादों की बिक्री का विनियमन होता आया है। इस मॉडल में कई त्रुटियां भी हैं और इन्हें दूर करने के लिए कई तरह के सुधारों पर चर्चा बीते कई सालों से हो रही है। एनडीए सरकार ने अब फैसला लिया है कि बिक्री प्रक्रिया में निजी कंपनियों को लाकर राज्य सरकारों द्वारा चलाई जा रहीं इन मंडियों के एकाधिकार को समाप्त कर दिया जाए।

इसके लिए केंद्र सरकार ने नया कानून लाने की घोषणा की है। इस कानून में क्या होगा, इसका अंदाजा कम से कम 4 राज्य सरकारों द्वारा हाल ही में इस दिशा में उठाए गए कदमों को देखकर लगाया जा सकता है। बीजेपी शासित उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, कर्नाटक और गुजरात में अध्यादेश लाकर एपीएमसी एक्ट में संशोधन कर दिया गया है। उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश में व्यापारियों को अनुमति दे दी गई है कि वे मंडियों की जगह सीधे किसानों के खेतों या घरों से कृषि उत्पाद खरीद सकते हैं।

गुजरात ने इससे भी आगे बढ़कर निजी क्षेत्र की कंपनियों को अपनी ही बाजार समितियां बनाने की अनुमति दे दी है, जहां कृषि उत्पादों की खरीद-बिक्री हो पाएगी। किसानों को अनुमति दे दी गई है कि वे चाहें तो गोदामों को ही मंडी बना सकते हैं और वहां से अपने उत्पाद बेच सकते हैं। राज्य सरकार का कहना है कि इस अध्यादेश से सरकारी और निजी मंडियों के बीच प्रतिस्पर्धा होगी और किसानों को बेहतर दाम मिल सकेंगे।

क्या होती हैं मंडियां?
कृषि उत्पादों की खरीद-बिक्री के विनियमन (रेगुलेशन) की शुरुआत भारत में अंग्रेजों के शासनकाल में ही हो गई थी। धीरे-धीरे अधिकतर राज्य इसे अपनाते चले गए और अपने कानून भी बना लिए। आज देश में सभी राज्य मिलाकर लगभग 2,500 एपीएमसी मंडियां हैं। इन पर राज्य सरकारों का नियंत्रण होता है। हर एक मंडी में उस जिले के किसान अपने उत्पाद लेकर आते हैं और मंडी द्वारा लाइसेंस प्राप्त एजेंटों के जरिए अपने उत्पादों को बेचते हैं। मंडियों में व्यापारियों से टैक्स वसूला जाता है और पैसा राज्य सरकार के राजस्व में जाता है।

जानकारों का एक लंबे समय से यह कहना रहा है कि इन मंडियों की स्थापना तो किसानों के भले के लिए ही की गई थी लेकिन धीरे-धीरे इन पर व्यापारियों का कब्जा हो गया। व्यापारी आपस में मिलकर ऐसा दाम तय करते हैं जिससे उन्हें लाभ होता है और किसानों को नुकसान। लेकिन किसान के पास कोई और विकल्प नहीं होता इसीलिए वे मजबूरी में इन्हीं दामों पर अपने उत्पाद बेचकर नुकसान उठाकर घर चला जाता है। ये भी आरोप लगते हैं कि इन मंडियों में भारी भ्रष्टाचार होता है और व्यापारी मंडियों को देने वाले टैक्स की चोरी भी करते हैं।

क्या अब सुधार होगा?
इन नए अध्यादेशों और केंद्र सरकार के नए कानून के पीछे सरकारों का दावा है कि इनसे अब कहीं का भी किसान किसी भी राज्य के किसी भी जिले में अपने उत्पाद बेच पाएगा। इससे कृषि व्यापार में पारदर्शिता आएगी, किसान को सही दाम मिलेगा और व्यापारी को भी लाभ होगा। लेकिन जानकारों को ऐसा होने की उम्मीद नजर नहीं आती। उनका कहना है कि एपीएमसी व्यवस्था में सुधार लाने की आवश्यकता तो जरूर थी, लेकिन इन कदमों से उन उद्देश्यों की प्राप्ति नहीं हो पाएगी जिनका दावा सरकारें कर रही हैं।

कृषि विशेषज्ञ देवेंदर शर्मा का कहना है कि एपीएमसी व्यवस्था को कमजोर करने का मतलब है कि सरकारें किसान को न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) देने की बाध्यता से बचना चाह रही हैं। उन्होंने डीडब्ल्यू को बताया कि वैसे भी देश में सिर्फ 6 प्रतिशत किसानों को एपीएमसी मंडियों के जरिए एमएसपी मिलता है और 94 प्रतिशत किसान बाजार पर निर्भर हैं। उनका कहना है कि अगर सरकार को निजी मंडियां ही बनानी हैं तो उन इलाकों में क्यों नहीं बनाती, जहां कोई भी मंडी है ही नहीं? वे कहते हैं कि कानून उन्हें ऐसा करने की इजाजत भी देता है लेकिन उन्होंने ऐसा कभी किया ही नहीं।

देवेंदर शर्मा ने बताया कि यही दलीलें देकर 2006 में बिहार से एपीएमसी एक्ट हटा दिया गया था और आज उसका नतीजा यह है कि बिहार का किसान गैरकानूनी ढंग से पंजाब और हरियाणा की मंडियों में जाकर अपना उत्पाद बेचता है, क्योंकि उसे मालूम है कि मंडियों में ही उसे संतोषजनक मूल्य मिलेगा। कृषि सुधारों को लेकर अलग-अलग जानकारों की अलग-अलग राय है। लेकिन सरकारी समर्थन की जगह बाजार आधारित व्यवस्था की वकालत करने वाले विशेषज्ञ भी इन कदमों की आलोचना कर रहे हैं।

पारदर्शिता की जरूरत
अर्थशास्त्री आमिर उल्लाह खान कहते हैं कि एपीएमसी मंडियों की समस्या ही यही है कि उन पर निजी व्यापारियों का एक समूह कब्जा कर लेता है, मनमाने ढंग से दाम तय करता है, ऐसे में आप मंडियों में और ज्यादा निजी हितों को लाकर किस तरह के सुधार की उम्मीद करते हैं? डीडब्ल्यू से बातचीत में उन्होंने कहा कि एपीएमसी व्यवस्था में सुधार लाने का मतलब था कि आप या तो ये प्रणाली बंद ही कर देते या इसमें और पारदर्शिता लाते और मंडियों को और जवाबदेह बनाते।

आमिर उल्लाह खान का कहना है कि सुधार का मूल एजेंडा ही था कि आप लोगों को सीधे किसानों से कृषि उत्पाद खरीदने देंगे और इ-कॉमर्स से चलने वाली बड़ी मंडियां बनाएंगे जिनमें पारदर्शिता और प्रतिस्पर्धा होगी, लेकिन आपने वह किया ही नहीं। तमाम आलोचनाओं के बावजूद सरकार अपने एजेंडे पर आगे बढ़ रही है। राज्यों का उदाहरण सामने है। कुछ ही महीनों में इन नए अध्यादेशों का असर सामने आ जाएगा और तब यह बेहतर आकलन हो पाएगा कि मंडियों में निजी क्षेत्र के हितों को बढ़ाने से वाकई व्यवस्था में सुधार हुआ या नहीं?