मुंबई पुलिस ने एक स्टिंग ऑपरेशन में देह व्यापार के एक रैकेट का पर्दाफाश किया। लेकिन उसके बाद जो हुआ उससे यह सवाल खड़ा होता है कि भारत का कानून और समाज देह व्यापार के बारे में क्या सोचता है?
क्या भारत की सरकार देह व्यापार को कानूनी तौर पर रोक सकती है? बीते महीने अदालत ने जो फैसला सुनाया, उससे तो यही जाहिर होता है कि यह औरत की मर्जी पर निर्भर है। देह व्यापार करने वालों के लिए इसे एक बड़ी लेकिन दुर्लभ जीत कहा जा सकता है, क्योंकि भारत के बारे में यह आम धारणा है कि यहां औरतों को यौन स्वतंत्रता नहीं है। महिलाओं के वकील सिद्धार्थ जायसवाल ने थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन से कहा कि आप किसी महिला की इच्छा के विरुद्ध उसका पुनर्वास नहीं कर सकते।
यह मामला पिछले साल का है, जब मुंबई की एक अदालत ने 3 सेक्स वर्करों को संरक्षण गृहों से बाहर जाने पर रोक लगा दी। पुलिस ने इन महिलाओं को देह व्यापार से मुक्त कराया था और उसके बाद उन्हें यहां जबरन रखा गया था। महिलाएं उन्हें संरक्षण गृह में रखे जाने का विरोध कर रही थीं। जबकि कोर्ट ने कहा कि उन्हें देह व्यापार के खिलाफ काउंसलिंग दी जाए, नए काम सिखाए जाएं और नई नौकरी दिलाने की कोशिश हो। अदालत ने यह भी कहा कि इन तीनों को सरकार की तरफ से 'देखभाल और संरक्षण' मिले।
अदालत के इस आदेश को पिछले महीने बॉम्बे हाईकोर्ट ने बदल दिया और 'अपना काम चुनने के' महिलाओं के अधिकार का समर्थन किया। हाईकोर्ट के इस फैसले पर सामाजिक कार्यकर्ताओं का कहना है कि इससे वयस्क यौनकर्मियों को जबरन संरक्षण से आजाद कराया जा सकेगा। सिद्धार्थ जायसवाल का कहना है कि संरक्षण गृहों में ले जाने से पहले पीड़ितों की मर्जी कभी नहीं पूछी जाती। पीड़ित तो अपने अधिकारों के बारे में भी नहीं जानते। यहां उनकी मर्जी को जानना जरूरी है, अन्यथा यह उनके लिए सजा हो जाएगी।
चुनने का अधिकार
भारत के अनैतिक देह व्यापार (निवारण) अधिनियम के लिहाज से यह मामला अहम है। 1956 में बने इसी कानून के तहत देह व्यापार के अड्डों पर छापेमारी होती है और यौनकर्मियों को मुक्त कराया जाता है। हालांकि वकीलों और सामाजिक कार्यकर्ताओं का कहना है कि यह कानून देह व्यापार के पीड़ितों और अपनी मर्जी से देह व्यापार में शामिल होने वाली औरतों में फर्क नहीं करता। जिन वयस्क यौनकर्मियों को पुलिस पकड़ती है, उन्हें कानून के मुताबिक 21 दिन तक संरक्षण गृहों में रखा जाता है। यहां उनका मेडिकल टेस्ट होता है और दूसरी कई चीजों की पुष्टि जैसी औपचारिकताएं की जाती हैं। 21 दिन के बाद कोर्ट उन्हें अगले 3 साल के लिए हिरासत में रखने का आदेश दे सकती है। यह अवधि कितनी होगी इसका निर्धारण उनके परिवार की पृष्ठभूमि और उन परिस्थितियों पर निर्भर करता है जिनमें उन्हें देह व्यापार करना पड़ा।
कोलकाता के करीब 65 हजार यौनकर्मियों का प्रतिनिधित्व करने वाले 'दरबार महिला समन्वय' के संस्थापक समरजीत जाना कहते हैं कि यह माना जाता है कि कोई महिला अपनी मर्जी से देह व्यापार नहीं करती और इन सबको जबरन इस काम में लगाया गया है। वे वयस्क महिलाओं को भी अबोध बना देते हैं। लेकिन (हाईकोर्ट) अनैतिकता और रोजगार में नहीं उलझा। उसने मानव व्यापार और देह व्यापार को अलग कर दिया। यह दुर्लभ है।
घर कैसे जाएं?
तीनों औरतों को अपनी आजादी हासिल करने में 1 साल लग गए। पुलिस ने सुराग मिलने पर मुंबई के उपनगर से इन तीनों को देह व्यापार करते हुए एक गेस्टहाउस से पकड़ा था। इनमें से एक महिला ने पिछले महीने रिहा होने के बाद कहा कि हम बड़ी मुश्किलों के बाद बाहर निकले हैं। इन तीनों की उम्र 20-25 साल के बीच है और इनमें से 2 बहनें हैं। इन्होंने पहचाने जाने और परिवारों से अलग-थलग कर दिए जाने के डर के कारण इंटरव्यू देने से मना कर दिया। इन महिलाओं का कहना है कि संरक्षण गृह में उन्हें महीने में एक बार अपने मां-बाप से मिलने या फिर घर फोन करने की इजाजत मिलती थी। इनमें से एक ने बताया कि हमने सोचा था कि हम 21 दिन में बाहर आ जाएंगे लेकिन हमें तो 1 साल लग गए। हमें इस बात से राहत मिली है कि हम अपने परिवार में जा सकेंगे। दोनों बहनों की मां ने उम्मीद जताई है कि कोर्ट के आदेश के बाद महिलाएं संरक्षण गृहों से निकल सकेंगी।
2018 में 250 सेक्स वर्करों पर किए एक रिसर्च से पता चला कि 80 फीसदी महिलाएं संरक्षण गृहों से बाहर निकलने के बाद देह व्यापार में लौट जाती हैं। यह भी पता चला कि बहुत सी महिलाओं को अपना मुकदमा लड़ने के लिए वकील और उन पर निर्भर परिवार की देखभाल के लिए कर्ज लेना पड़ता है। सामाजिक कार्यकर्ता इन महिलाओं की ओर से विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं और बहुत सी महिलाओं ने तो संरक्षण गृहों से भागने की भी कोशिश की।
देशभर के 100 से ज्यादा संरक्षण गृहों में हजारों महिलाएं हैं। उन्हें काउंसलिंग दी जाती है। साथ ही वो चाहें तो उन्हें साफ-सफाई, खाना बनाना और दूसरे काम सिखाए जाते हैं। इनमें से कुछेक को ही कानूनी मदद मिल पाती है और उनमें से भी बहुत कम ही है, जो किस्मत को चुनौती देने का साहस कर पाती हैं। बेबस लोगों के मुकदमे लड़ने वाले लॉयर्स कलेक्टिव की कार्यकारी निदेशक तृप्ति टंडन कहती हैं कि ज्यादातर ऐसा नहीं कर पातीं, क्योंकि उनके पास वकील नहीं हैं या फिर उनकी सहायता लेने के लिए संसाधन नहीं है।
कानून और समाज की सोच में फर्क
गैरसरकारी संगठन 'क्षमता' की प्रमिला शर्मा मुंबई के 8 संरक्षण गृहों में लाई गई औरतों के बयान दर्ज करती हैं और साथ ही वो उन्हें यह भी बताती हैं कि वो कैसे काम सीख सकती हैं। यह समाजसेवी संगठन महिलाओं को कई तरह की ट्रेनिंग मुहैया कराता है। इनमें सिलाई, महिला श्रृंगार, परिचर्या और घर संभालने जैसे काम शामिल हैं। संगठन की मदद से कई लोगों को रोजगार भी मिला है। प्रमिला शर्मा कहती हैं कि कोई भी संरक्षण गृह में रहना नहीं चाहता। हर किसी को हक है कि वो जो करना चाहे करे लेकिन जो हाईकोर्ट ने कहा है और जो महिलाओं के बारे में समाज की सोच है, उसमें बड़ा फर्क है। यह समाज किसी महिला को यौन व्यापार करने का अधिकार नहीं देता। महिलाएं अपने बारे में ही नहीं सोच सकती।
एनआर/एमजे (थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन)