मुंबई का असल्फा स्लम इन दिनों सुर्खियों में है। इसे इतने रंगों से संवारा गया है कि कुछ लोग इसकी तुलना इटली के गांव पोजितानो से कर रहे हैं।
स्लम का नाम सुनते ही लोगों के जहन में बदबूदार संकरी गलियाँ और छोटे अँधेरे घरों की तस्वीर उभरती है। खासतौर पर मुंबई के स्लम में हालात कुछ ऐसे ही हैं। स्लम के प्रति लोगों की इस धारणा को बदलने के लिए मुंबई के कुछ उत्साही युवाओं ने कमर कसी है। इसकी शुरुआत उन्होंने घाटकोपर की पहाड़ी पर बसे असल्फा स्लम से की है।
रंग भरने की कोशिश
असल्फा स्लम को रंगों से संवारने का जिम्मा उठाने वाली संस्था "रंग दे'' के टेरेंस फरेरा इस प्रोजेक्ट के बारे में बताते हुए कहते हैं, "स्लम के प्रति लोगों की धारणा बदलने की मुहिम के साथ ही स्लम निवासियों के जीवन में सकारात्मकता का रंग भरने की कोशिश है।''
असल्फा के रूप को बदलने के लिए बस्ती में बने घरों की दीवारों को खूबसूरत रंगों से रंगा गया है। बस्ती की बाहरी दीवारों पर अलग-अलग तरह के डिजाइन बनाए गए हैं। कुछ काफी आकर्षक बन गए हैं। दीवारों को रंगने में लगभग 400 लीटर पेंट का इस्तेमाल किया गया।
टेरेंस फरेरा का कहना है कि इस काम में लोगों ने दिल खोल कर साथ दिया। पेंट बनाने वाली कंपनी स्नोसेम ने रंग दिए तो मुंबई मेट्रो ने वॉलंटियरों के लिए खाने और टीशर्ट का इंतजाम किया।
बस्ती वालों का साथ
संस्था "रंग दे'' के अभियान में असल्फा बस्ती के लोगों ने भी उत्साहपूर्वक भाग लिया। हालाँकि शुरुआत में जब यहां की गलियों और झुग्गियों की बाहरी दीवार को खूबसूरत रंगों से सजाया जा रहा था तब बस्तीवालों ने कोई उत्साह नहीं दिखाया था। टेरेंस फरेरा के अनुसार इस प्रोजेक्ट के शुरुआत में बस्ती वाले झिझकते रहे लेकिन जल्द ही उनकी झिझक खत्म हो गई। घरों की बाहरी दीवारों को खूबसूरत बनाने में बस्ती वालों ने बढ़चढ़ कर भाग लिया। वॉलंटियरों के लिए खाना-नाश्ता बनाने से लेकर रंग करने के लिए ब्रश भी थामा।
बस्ती निवासी किरण कहती हैं, "बस्ती में साफ सफाई पहले से ही थी। अब दीवारों को रंगरोगन होने से बस्ती में आने वालों को अच्छा लगता है।'' बस्ती की लगभग पौने दो सौ दीवारों में रंग भरने के लिए करीब 600 वॉलनटिअर्स का सहयोग मिला जिसमें युवाओं का साथ बुजुर्गों ने भी हिस्सा लिया। उत्साही वॉलंटियरों ने रंग भरने का काम मात्र 6 दिन मे पूरा कर दिया।
दर्द का रंग पर हावी हौसला का रंग
मुंबई के स्लम अपनी तमाम मुश्किलों के बावजूद अपनी जिजीविषा के लिए भी जाने जाते हैं। धारावी हो या असल्फा, इन बस्तियों में रहने वाले लोगों को रोज कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। इसके बावजूद यहाँ कई ऐसे लोगों का बसेरा हैं जिन्होंने अपने परिश्रम और हौसले से अपने छोटे से घर को ही कारोबार का केंद्र बना दिया है। ऐसी ही एक महिला अर्चना बताती हैं कि वह बर्तन साफ करने के लिए स्क्रबर बनाने का कारखाना चलाती हैं। बस्ती की ही कई महिलाएं इस कारोबार से जुड़ कर आर्थिक लाभ अर्जित कर रही हैं।
अर्चना कहती हैं, "बाहरी दीवारों को रंगने भर से कुछ नहीं होगा। महिलाओं में उत्साह का रंग और स्वालंबन का रंग भर दिया जाए, तो अधिकांश घरों से दुःख दर्द की छुट्टी हो जाएगी।''
असल्फा बस्ती में रहने वाले राजू फेरीवाला सौन्दर्यीकरण से ज्यादा खुश नहीं हैं। उनका कहना है, "मेट्रो से आने जाने वालों को खुबसूरत नज़ारा दिखाने के लिए यह सब किया गया है।''
वह बताते हैं कि गलियों के अन्दर घुसने के बाद, सब पहले जैसा ही है। बस्ती के ही येवले मामा का मानना है, "रंग रोगन से बस्ती को कोई लाभ नहीं हुआ है, बस लोगों की जिज्ञासा बढ़ गयी है।" लेकिन टेरेंस फरेरा कहते हैं कि इस प्रोजेक्ट का उद्देश्य भी बस्ती को पहचान दिलाना और फिर इसके बाद इसकी समस्याओं को सामने लाना है।
रिपोर्ट विश्वरत्न श्रीवास्तव