अंतराष्ट्रीय मंच पर अमेरिका की घटती भूमिका से दुनिया पर बड़ा असर पड़ रहा है। इसके चलते यूरोप बहुत ज्यादा घबरा रहा है। म्यूनिख सिक्योरिटी रिपोर्ट के मुताबिक यूरोप को अब खुद अपने भविष्य पर ध्यान देना होगा।
सुरक्षा विशेषज्ञ और सुरक्षा संबंधी रिपोर्टें अक्सर निराशाजनक बातें ही करती हैं। म्यूनिख सिक्योरिटी रिपोर्ट भी ऐसी ही है। "टू द ब्रिंक-एंड बैक" शीर्षक वाली सिक्योरिटी रिपोर्ट में एक ऐसे भविष्य का जिक्र है, जो अनिश्चिताओं से भरा है। म्यूनिख सिक्योरिटी कॉन्फ्रेंस (एमएससी) के चैयरमैन वोल्फगांग आइषिंगर ने लिखा है, "बीते साल, दुनिया एक अहम विवाद के करीब और बहुत ही नजदीक पहुंची।"
अमेरिका और यूके में जर्मनी के राजदूत रह चुके आइषिंगर ने अमेरिका और उत्तर कोरिया की ओर से तीखे जबानी हमले, सऊदी अरब व ईरान के बीच बढ़ती प्रतिद्वंद्विता और यूरोप में नाटो और रूस के बीच बढ़ते तनाव का जिक्र किया।
अमेरिका के प्रति अविश्वास
एमएससी की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक 2017 में डॉनल्ड ट्रंप के नेतृत्व में वॉशिंगटन ने बेहद अमेरिका केंद्रित नजरिया दिखाया है। अमेरिका अब तक वैश्विक स्तर पर सुरक्षा के मुद्दे पर नेतृत्व देता रहा है। लेकिन ट्रंप के कार्यकाल में अमेरिका सिर्फ अपने हित देखने लगा है। रिपोर्ट में आशंका जताई गई है कि इसका खामियाजा अमेरिका के पारंपरिक साझेदारों को भुगतना पड़ेगा।
ट्रंप की अगुवाई में अमेरिका ने साझा मूल्यों के आधार पर होने वाली साझीदारी को अहमियत दी है। नीतियां उसी के मुताबिक ढाली हैं। अंतरराष्ट्रीय संबंधों को प्रभावित करने वाली क्षेत्रीय या वैश्विक संस्थाओं में वॉशिंगटन ने बहुत कम दिलचस्पी दिखाई है। इसके उलट अमेरिका के अपने हित देखते हुए द्विपक्षीय संबंधों को मजबूत करने की कोशिश की है।
व्हाइट हाउस की कूटनीतिक योजनाएं भी इस बदलाव के सामानान्तर चल रही हैं। ट्रंप के कार्यकाल में विदेश मंत्रालय के बजट में भारी कटौती और रक्षा बजट में भारी इजाफा किया गया है। म्यूनिख सिक्योरिटी रिपोर्ट में अमेरिकी विदेश नीति के विशेषज्ञ जॉन इल्केनबेरी के हवाले से कहा गया है, "दुनिया के सबसे ताकतवर देश ने उस व्यवस्था को नाकाम करना शुरू कर दिया है, जो उसने खुद बनाई थी।"
यूरोप के लिए नया युग
बदलती अमेरिकी नीतियों में यूरोप के लिए बहुत साफ संदेश है। यूरोप को अब अपनी सुरक्षा के लिए खुद ही पुख्ता इंतजाम करने होंगे। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद से ही अमेरिका हमेशा यूरोप के साथ खड़ा रहा। वॉशिंगटन के समर्थन के चलते ही शीत युद्ध के दौरान भी यूरोप रूस से सुरक्षित रहा। लेकिन अब यूरोपीय देशों को रक्षा बजट, रक्षा क्षमताओं और नए सुरक्षा संघों के बारे में सोचना होगा।
अगर यूरोपीय संघ के सदस्य देश और नॉर्वे नाटो के 2 फीसदी नियम को मानते हैं, तो उन्हें अपनी जीडीपी का दो फीसदी पैसा नाटो में लगाना होगा। इसका मतलब होगा कि रक्षा बजट में सीधे 50 फीसदी का इजाफा यानि करीब 386 अरब डॉलर का रक्षा खर्च।
अगर यूरोप की सेनाएं बहुत असरदार भी हो जाएं तो भी उन्हें जबरदस्त आपसी साझेदारी की जरूरत पड़ेगी। रिपोर्ट के मुताबिक यूरोप को इस "आपसी जुड़ाव और डिजिटल फासले" पर काम करना होगा। इस फासले को भरने के लिए यूरोपीय देशों को बहुत ही ज्यादा धन की जरूरत पड़ेगी। नाटो में निवेश करने वाले दो फीसदी पैसे से भी ज्यादा। बाहरी खतरे से यूरोप को बचाने के लिए महाद्वीप को अपने छितरे पड़े रक्षा उद्योग को बेहतर बनाना होगा।
इन चुनौतियों के बीच रिपोर्ट में यूरोप के लिए कुछ राहत भरी बातें भी हैं। विशेषज्ञ मान रहे हैं कि कुछ मामलों में यूरोपीय देश एक दूसरे के करीब आ रहे हैं। उदाहरण के लिए परमानेंट स्ट्रक्चर्ड कोऑपरेशन पेस्को। इसके तहत यूरोपीय संघ के 25 देशों ने रक्षा और सुरक्षा नीतियों पर सहयोग का फैसला किया है।
फ्रांस और जर्मनी ने नई पीढ़ी के लड़ाकू विमान बनाने की इच्छा जताई है। फ्रांस के राष्ट्रपति इमानुएल माक्रों तो साझा यूरोपीय सेना के मुखर समर्थक हैं। रिपोर्ट में जर्मन चासंलर अंगेला मैर्केल के इस बयान का भी जिक्र है, "वो जमाना गुजर चुका है जब हम पूरी तरह या काफी हद तक दूसरों पर निर्भर थे। हम यूरोपीय लोगों को अपना भविष्य अपने हाथ में लेना होगा।"
जलवायु परिवर्तन की चिंता
रिपोर्ट में उदारवादी और अंतरराष्ट्रीय संबंधों के मामले में आने वाली पारंपरिक और गैर पारंपरिक चुनौतियों का जिक्र है। रिपोर्ट कहती है कि जलवायु परिवर्तन देशों की सुरक्षा के लिए एक बड़ा खतरा बना रहेगा। 2017 का जिक्र करते हुए कहा गया है कि, बीता साल सबसे गर्म साल था, जिसमें तूफान, सूखा और बाढ़ जैसी कई आपदाएं आईं।
अमेरिका के पेरिस जलवायु संधि से अलग होने के कारण यह संकट और बढ़ सकता है। एमएससी की रिपोर्ट कहती है, "जलवायु परिवर्तन पूरी दुनिया के आर्थिक, सुरक्षा संबंधी और राजनैतिक तंत्रों पर असर डालेगा। सीमित क्षमताओं वाले देशों में यह खतरे को कई गुना बढ़ाने का काम करेगा।" गरीब देशों पर सबसे बुरी मार पड़ेगी।
जलवायु परिवर्तन और विवादों के चलते 2015 से अब तक लाखों लोग अफ्रीका और एशिया से यूरोप आ चुके हैं। यूरोप को भूमध्यसागर के लिए नई रणनीति बनानी पड़ेगी। आपस में जुड़ चुकी दुनिया में अब समस्याएं बर्फ के गोले की तरह पेश आती हैं। शुरुआत में वह छोटी होती हैं और आगे बढ़ने के साथ बड़ी और विध्वंसक होती जाती है। आने वाले बरसों में ऐसी समस्याएं ही अंतरराष्ट्रीय समुदाय के सामने मुख्य चुनौती पेश करेंगी।
माथियास फोन हाइन/ओएसजे