मीट के बिना भी भर सकता है दुनिया का पेट
वैज्ञानिकों का कहना है कि पर्यावरण को ज्यादा नुकसान पहुंचाए बिना भी दुनिया की बढ़ती आबादी का पेट भरा जा सकता है। बस इसके लिए मीट की खपत घटानी होगी, खाने की बर्बाद रोकनी होगी और खेती करने के बेहतर तरीके अपनाने होंगे।
वैज्ञानिक कहते हैं कि अगर ऊपर बताई गई बातों में से किसी एक ही भी अनदेखी की हुई तो उससे जलवायु परिवर्तन की रफ्तार तेज होगी, प्रदूषण बढ़ेगा और प्राकृतिक संसाधन सिमटते चले जाएंगे। इसका मतलब है कि धरती इसानों के लिए असुरक्षित होती जाएगी।
इस बारे में एक ताजा अध्ययन के लेखक मार्को स्प्रिंगमन कहते हैं कि धरती की बिगड़ती हालत को संभालने के लिए कई मोर्चों पर काम करना होगा। उन्होंने अपने इस अध्ययन में समझने की कोशिश की है कि खाद्य उत्पादन का हमारे पर्यावरण पर क्या असर हो रहा है।
वह कहते हैं, "अगर समाधानों को एक साथ लागू किया जाए, तो हमारी रिसर्च दिखाती है कि दुनिया की बढ़ती आबादी का पेट भरना मुमकिन है।" संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि 2050 तक दुनिया की आबादी लगभग 10 अरब हो जाएगी, जिसका पेट भरने के लिए 50 प्रतिशत ज्यादा भोजन उत्पादन की जरूरत होगी।
अध्ययन बताता है कि अगर मौजूदा तौर तरीकों में बदलाव नहीं किया गया तो ज्यादा खाद्य उत्पादन का पर्यावरण पर बड़ा दुष्प्रभाव होगा। अभी की तुलना में यह दुष्प्रभाव 2050 में 90 फीसदी तक बढ़ सकता है जिससे पृथ्वी इंसानों के रहने के लिए सुरक्षित नहीं होगी।
स्कैंडेनेवियन थिंक टैंक ईएटी की यह रिसर्च कहती है कि हालात बेहतर हों, इसके लिए सबको ऐसी डाइट की तरफ लौटना होगा, जिसमें सब्जियां, फल और मेवे ज्यादा हों और मीट के साथ साथ दूध से बने उत्पाद कम रहें।
श्प्रिंगमन कहते हैं कि हफ्ते में रेड मीट एक बार या उससे भी कम खाया जाए। संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन का कहना है कि मवेशी 14।5 प्रतिशत ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार हैं।
शोधकर्ता कहते हैं कि इस वक्त एक तिहाई खाना कूड़ेदानों में जा रहा है। इस बर्बादी में कम से कम 50 फीसदी की कटौती करनी होगी। इसके अलावा धरती की उपजाऊ शक्ति बढ़ाने, रिसाइकल हो सकने वाली खाद अपनाने और जल प्रबंधन को बेहतर करने की भी जरूरत है।
स्प्रिंगमन कहते हैं, "आम उपभोक्ता के लिए संदेश यही है कि वह अपने खान पान के तरीके बदले और अपने राजनेताओं से कहे कि वे बेहतर कानून बनाएं।"
एके/ओएसजे (रॉयटर्स)