हैदराबाद बलात्कार मामले के आरोपियों की तेलंगाना पुलिस एनकाउंटर में मौत के बाद हर मंच पर बहस हो रही है। इन सबके बीच एक बड़ा सवाल यह सामने आया है कि भारत में सामूहिक बलात्कार की घटनाएं क्यों बढ़ गई हैं।
शुचि गोयल पिछले 9 सालों से रेप के आरोपियों और खासतौर पर नाबालिग आरोपियों, दोषियों और रेप पीड़ितों के साथ संवाद करती रही हैं। निर्भया के नाबालिग आरोपी के साथ भी उन्होंने कुछ साल पहले संवाद किया था। इन संवादों से उन्हें अपराधियों की मानसिकता समझन में मदद मिली है।
डीडब्ल्यू : आपका तजुर्बा क्या कहता है, बलात्कार के आरोपियों और दोषियों के बारे में?
शुचि गोयल : किसी भी जेल में आरोपियों को मनोचिकित्सक को भेजा जाता है और यह एक प्रक्रिया का हिस्सा होता है। इसके लिए दोनों तरफ यानी आरोपी और मनोचिकित्सक का तैयार होना एक`दूसरे के लिए बहुत जरूरी होता है। पहले जब ये आरोपी आते हैं तो मानने के लिए तैयार ही नहीं होते कि ये कृत्य उन्होंने किया है, भले ही सारे सबूत उनके खिलाफ हों।
बलात्कार जैसे अपराध में जो बात सबसे ज्यादा देखने को मिलती है, वह यह है कि आरोपी को सबसे ज्यादा संतुष्टि मिलती है अपनी ताकत दिखाने में। 'मैं कुछ भी कर सकता हूं।' उनको यह गुनाह लगता ही नहीं है। ऐसा करते हुए उनके अंदर गुस्सा कम और अधिकार का भाव ज्यादा रहता है।
एक बात और देखने को मिलती है कि ऐसे आपोरियों में जेंडर को लेकर संवेदनशीलता बिलकुल नहीं है। उनको लगता ही नहीं है कि औरतों की समाज में प्रमुखता या कोई जगह है। यही कारण है कि औरतें, बच्चियां, छात्राएं, बूढ़ी औरतों सबके खिलाफ ये अपराध हो रहे हैं और इनमें केवल 10 प्रतिशत ही रिपोर्ट किए जाते हैं।
कोई आरोपी जब इंकार की अवस्था से बाहर आता है, तो क्या जो उसने गुनाह किया है, उसके लिए पछताता है। खासतौर पर बलात्कार के केस में?
ऐसा बहुत कम होता है कि आरोपी अपना गुनाह खुद कबूल कर ले। हालांकि उनके हावभाव से यह दिखने लगता है कि वे अपने किए पर पछता रहे हैं। कई बार वे ऐसा सोचते हैं कि अगर मैंने कबूल कर लिया तो मैं खुद को ही जवाब देने लायक नहीं रहूंगा।
दिल्ली में 16 दिसंबर के केस में एक आरोपी ने खुदखुशी कर ली। हो सकता है कि उसे अपनी गलती का अहसास हो गया हो लेकिन वो इस बात का सामना नहीं कर पाया। हमें नहीं पता कि एसा क्यों हुआ, कैसे हुआ, लेकिन यह भी एक सोच हो सकती है।
कई बार समाज के लोगों में एक नजरिया होता है कि अकेले रात को घूम रही थी, इसलिए ऐसा होगा। लेकिन ये नहीं सोचते कि अगर कोई लड़की अकेले घूम रही है तो आप उसका बलात्कार तो नहीं कर दोगे या फिर वो तो मेरी दोस्त थी हम तो हंस-हंसकर बात करते थे, उसने मुझ पर झूठा केस लगा दिया। ये लोग सीमा नहीं देख पाते कि कोई आपसे सिर्फ बात कर रहा हो इंसान होने के नाते। सीमा तय होना जरूरी है।
ऐसे बलात्कार के मामले में कई आरोपियों का इतिहास भी शामिल होता है। कोई किसी को फोन करके तंग करता है, कोई किसी का पीछा कर रहा है, कोई किसी को रोज छेड़ रहा है। इन सबकी रिपार्ट दर्ज नहीं होती। अगर कोई लड़की तंग हो रही है तो उनको मजा आता है कि मै लड़का हूं और मैं ऐसा कर सकता हूं।
कई देशों में रेप की घटना जब सामने आती है तो ज्यादातर समय अपराधी, पीड़ित का परिचित होता है लेकिन भारत में गैंगरेप की जो घटनाएं दिख रही हैं, उनमें पीड़ित और अपराधी पहले कभी नहीं मिले और अचानक से किसी लड़की का बलात्कार कर दिया गया?
इसमें कई सारे फैक्टर हैं। पहला है, अपराधियों को लगता है कि यह उनका हक है। मैं ये कर सकता हूं। गैंगरेप में अपराधियों के पास जो बढ़त होती है, वो संख्या की होती है। साथ ही वो सोच-समझकर इस घटना को अंजाम देते हैं, उदाहरण के तौर पर रेप की घटना किसी बाजार में नहीं होती, जहां चार लोग खड़े हों। वह सुनसान इलाके में होती है। यह भी देखा जाता है कि पीड़ित अकेली है या किसी से बात कर रही है।
ये लोग कितने सेकंड या मिनट में प्लान बना लेते हैं?
प्लान का मतलब है कि इन लोगों की सोच तो ऐसी है ही, दूसरे सेक्स करने का मन है। भारत में लिंगानुपात में भी बहुत अंतर है। दिल्ली जो देश की राजधानी है, वहां भी लड़की और लड़के के बीच दोस्ती को साधारण नहीं समझा जाता।
सरकारी स्कूल में जब मैं लड़कियों से बात करती हूं तो पता चलता है कि अगर स्कूल के दौरान, घर आते या जाते कोई सहपाठी उनके साथ चलता है तो वो अपने परिवार वालों से डरती हैं। उन दोनों के बीच एक ही संबंध समझा जाता है। अपराधी सोचते हैं कि अगर ये अपराध किया तो कोई पकड़ नहीं पाएगा। लिंगानुपात इसका एक बड़ा कारण है।
साथ ही एक धारणा है, जो जेल में अपराधियों में भी ज्यादातर देखने को मिलती है। वो सोचते हैं कि ऐसा होने में लड़कियों की भी गलती है, आखिर उनको क्यों लड़कों से बराबरी करनी है। इसके साथ ही परिवार में बिखराव एक और कारक है। इसके अलावा ज्यादातर आरोपी ऐसे परिवार से हैं, जहां पूरा परिवार एक ही कमरे में सोता है। पति-पत्नी और उनके 3-4 बच्चे एक ही कमरे में। ऐसे में सेक्स से उनका परिचय बहुत जल्दी हो जाता है। 10 बाई 10 के कमरे में बच्चों के सामने ही सब कुछ हो रहा है। सेक्स के लिए उनके मन में कई सवाल तो हैं, लेकिन जवाब देने वाला कोई नहीं है।
फिर वो प्रयोग करने की सोचते हैं। वो उत्सुक होते हैं। ऐसे लोगों के क्या समाज में वापस लौटने की उम्मीद होती है? क्या यह आसान है? आसान नहीं है, क्योंकि आपको रोज इनके साथ रहना और रोज देखना, इनको मॉनिटर करना जरूरी होगा। जो सजा काट रहे हैं, उनको समाज में मिलाने के लिए भी मेहनत चाहिए। किसी नाबालिग की सोच को बदलना भी बहुत बड़ा काम है।
जब तक रेप के आरोपी या दोषी खुद को बदलना नहीं चाहेंगे, तब तक यह काम मुश्किल होगा। अभी तो इस बारे में 1 फीसदी काम भी नहीं हो रहा, काम होना बहुत जरूरी है। एक मामला होता, उसी में न्याय होने में सालों निकल जाते हैं। लोगों के मन में न्यायपालिका का डर होना जरूरी है। जब एक केस में न्याय नहीं मिलता तो ऐसे अपराधियों की भी हिम्मत बढ़ जाती है।
समाज की क्या भूमिका होनी चाहिए। क्या समाज अपना कर्तव्य पूरा कर रहा है?
सभी को अपने अधिकार मालूम हैं, लेकिन कर्तव्य का पालन किसी की लिस्ट में नहीं है। बच्चों को तुरंत सिखाना होगा कि लड़की और लड़का एक समान हैं। दोनों का आत्मसम्मान बराबर है। पति-पत्नी आपस में कैसे बात करते हैं, अपने से बड़ों से कैसे बात करते हैं, अपने बच्चों से कैसे बात करते हैं, अपने घर में काम करने वाले कर्मचारियों से कैसे बात करते हैं- ये सभी बातें जरूरी होती हैं। बेहतर समाज की शुरुआत भी यहीं से होती है।
रिपोर्ट श्रेया बहुगुणा