सोमवार, 23 दिसंबर 2024
  • Webdunia Deals
  1. सामयिक
  2. डॉयचे वेले
  3. डॉयचे वेले समाचार
  4. विश्व स्वास्थ्य संगठन पर चीन का कितना दबदबा है?
Written By
Last Updated : सोमवार, 20 अप्रैल 2020 (11:38 IST)

विश्व स्वास्थ्य संगठन पर चीन का कितना दबदबा है?

corona virus | विश्व स्वास्थ्य संगठन पर चीन का कितना दबदबा है?
रिपोर्ट : श्रीनिवासन मजूमदार
 
डॉनाल्ड ट्रंप ने विश्व स्वास्थ्य संगठन को दी जाने वाली फंडिंग को काट दिया है। उनका आरोप है कि डब्ल्यूएचओ धन अमेरिका से लेता है लेकिन काम चीन के लिए करता है। संयुक्त राष्ट्र की इस एजेंसी में चीन की क्या भूमिका है?
पिछले कुछ महीनों से विश्व स्वास्थ्य संगठन लगातार सुर्खियों में है। दुनियाभर की सरकारें कोरोना महामारी से निपटने के लिए डब्ल्यूएचओ से मदद ले रही हैं। संयुक्त राष्ट्र की यह एजेंसी वायरस के संक्रमण को रोकने के लिए सुझाव दे रही है, वैज्ञानिकों का डाटा जमा कर रही है और जहां विशेषज्ञों की जरूरत है, उन्हें मुहैया करा रही है। लेकिन इस महामारी से निपटने के तरीके को लेकर डब्ल्यूएचओ की कई जगह कड़ी निंदा भी हुई है।
 
अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनाल्ड ट्रंप ने तो यहां तक कह दिया कि वॉशिंगटन अब डब्ल्यूएचओ को दी जाने वाली मदद राशि को रोक देगा। ट्रंप के इस फैसले ने दुनियाभर को हैरान कर दिया। उन्होंने कहा कि डब्ल्यूएचओ ने नोवेल कोरोना वायरस को वक्त रहते समझने में चूक कर दी। उन्होंने डब्ल्यूएचओ पर चीन का पक्ष लेने और महामारी को बेहद बुरी तरह से संभालने का आरोप भी लगाया।
चीन से डरता है डब्ल्यूएचओ?
 
ट्रंप अकेले नहीं हैं, जो इस तरह के आरोप लगा रहे हैं। कई राजनीतिक जानकार और वैज्ञानिक भी डब्ल्यूएचओ पर चीन का साथ देने का आरोप लगा रहे हैं। जनवरी के अंत में डब्ल्यूएचओ के महानिदेशक टेड्रोस एधानोम घेब्रेयसस ने बीजिंग में चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग से मुलाकात की और संक्रमण को रोकने के लिए चीन के प्रयासों की सराहना की।
 
उन्होंने संक्रमण के फैलाव को लेकर खुलकर जानकारी साझा करने पर कम्युनिस्ट पार्टी की तारीफ भी की। ऐसा तब था जब वुहान में चीनी अधिकारी कोरोना के बारे में जानकारी देने वालों पर अफवाहें फैलाने के आरोप में कार्रवाई कर रहे थे। यहां तक कि शुरुआत में तो डब्ल्यूएचओ ने विदेशों से चीन की यात्राएं जारी रखने की पैरवी की और देशों से अपनी सीमाएं भी खुली रखने को कहा।
जानकारों का मानना है कि डब्ल्यूएचओ को शायद डर था कि अगर वह चीन को किसी भी रूप में चुनौती देता है तो चीन की प्रतिक्रया संकट को और बढ़ा सकती है। बर्लिन स्थिति मेर्केटर इंस्टीट्यूट फॉर चाइना स्टडीज (मेरिक्स) के थोमास देस गैरेट्स गेडेस ने डॉयचे वेले से कहा कि ऐसा हो सकता था कि फिर चीन अंतरराष्ट्रीय समुदाय से जरूरी जानकारी साझा करना बंद कर देता या फिर डब्ल्यूएचओ के रिसर्चरों को देश में ही नहीं आने देता। लेकिन इससे यह बात साफ नहीं होती कि डब्ल्यूएचओ ने चीन की इतनी तारीफ क्यों की? इस तरह से बढ़-चढ़कर और कई बार तो गलत तरीके से तारीफ करना अनावश्यक था और गलत भी।
 
 
कोरोना संक्रमण के चलते जर्मनी की कम मृत्युदर दुनिया भर में चर्चा का विषय बनी हुई है। इस संकट से निपटने के लिए चांसलर मर्केल की रणनीति की चारों तरफ तारीफ हो रही है। मर्केल ने शुरुआती दौर में ही चेतावनी दे दी थी कि देश की 60 फीसदी आबादी कोरोना से संक्रमित हो सकती है। औपचारिक रूप से उन्होंने 'लॉकडाउन' शब्द का इस्तेमाल भी नहीं किया और लोगों से कहा कि वे समझती हैं कि आजादी कितनी जरूरी है।
कहां से आता है पैसा?
 
डब्ल्यूएचओ की शुरुआत 1948 में हुई। इसे 2 तरह से धन मिलता है। पहला, एजेंसी का हिस्सा बनने के लिए हर सदस्य को एक रकम चुकानी पड़ती है। इसे असेस्ड कॉन्ट्रीब्यूशन कहते हैं। यह रकम सदस्य देश की आबादी और उसकी विकास दर पर निर्भर करती है। दूसरा है वॉलंट्री कॉन्ट्रीब्यूशन यानी चंदे की राशि। यह धन सरकारें भी देती हैं और चैरिटी संस्थान भी। राशि किसी न किसी प्रोजेक्ट के लिए दी जाती है। बजट हर 2 साल पर निर्धारित किया जाता है। 2020 और 2021 का बजट 4.8 अरब डॉलर है।
 
डब्ल्यूएचओ की जब शुरुआत हुई थी तब उसके बजट की करीब आधी रकम सदस्य देशों से असेस्ड कॉन्ट्रीब्यूशन के रूप में आती थी। इस बीच यह सिर्फ 20 प्रतिशत ही रह गई है यानी एजेंसी को ज्यादातर धन अब वॉलंट्री कॉन्ट्रीब्यूशन के रूप में मिल रहा है। जानकारों का मानना है कि ऐसे में एजेंसी उन देशों और संस्थाओं पर निर्भर होने लगी है, जो उसे ज्यादा पैसा दे रहे हैं।
 
पिछले सालों में चीन का योगदान 52 फीसदी तक बढ़ गया है। अब वह 8.6 करोड़ डॉलर दे रहा है। वैसे तो बड़ी आबादी के कारण चीन का असेस्ड कॉन्ट्रीब्यूशन भी ज्यादा है लेकिन उसने वॉलंट्री कॉन्ट्रीब्यूशन भी बढ़ाया है। हालांकि अमेरिका के सामने चीन का योगदान कुछ भी नहीं है। 2018-19 में अमेरिका ने कुल 89.3 करोड़ डॉलर दिए। दुनियाभर से आए वॉलंट्री कॉन्ट्रीब्यूशन का 14.6 फीसदी अमेरिका से ही आता है। दूसरे नंबर पर कुल 43.5 करोड़ डॉलर के साथ है ब्रिटेन। इसके बाद जर्मनी और जापान का नंबर आता है।
चीन भले ही इस सूची में बहुत पीछे हो लेकिन जानकार मानते हैं कि उसकी अहमियत बढ़ रही है, वहीं अमेरिका अंतरराष्ट्रीय संस्थानों से दूर होता चला जा रहा है और वैश्विक स्वास्थ्य फंडिंग में भी कटौती की बात कर चुका है। गैरेट्स गेडेस के अनुसार डब्ल्यूएचओ में चीन का योगदान बढ़ने की संभावना यकीनन संयुक्त राष्ट्र की इस एजेंसी के लिए आकर्षक रही होगी।
2030 तक पूरी दुनिया के लोगों को स्वास्थ्य सेवाएं पहुंचाने का डब्ल्यूएचओ का लक्ष्य हो या फिर चीन की हेल्थ सिल्क रोड पहल, चीन सब जगह निवेश कर रहा है। गेडेस कहते हैं कि ये ऐसे प्रोजेक्ट हैं, जो टेड्रोस और डब्ल्यूएचओ के लिए मायने रखते हैं। वे कहते हैं कि चीन जिस गति से आर्थिक विकास कर रहा है, डब्ल्यूएचओ के लिए उसे अपने पक्ष में रखना बहुत जरूरी है। 
 
ताईवान का चक्कर
 
दुनिया के 194 देश विश्व स्वास्थ्य संगठन के सदस्य हैं। ताईवान इसका हिस्सा नहीं है। जानकार इसे भी चीन के प्रभाव का ही असर बताते हैं। 1971 में संयुक्त राष्ट्र का सदस्य बनने के बाद से ही चीन, ताईवान को अंतरराष्ट्रीय संगठनों का सदस्य बनने से रोकता रहा है। चीन का दावा है कि ताईवान उसी का हिस्सा है और इसलिए उसे अलग से सदस्य बनाने की कोई जरूरत नहीं है।
 
ताईवान के सेंट्रल एपिडेमिक कमांड सेंटर का कहना है कि उसने 31 दिसंबर 2019 को ही डब्ल्यूएचओ को वायरस के इंसान से इंसान में संक्रमण के खतरे की चेतावनी दे दी थी। इस सेंटर ने डॉयचे वेले को बताया कि जानकारी मिलने पर डब्ल्यूएचओ ने केवल इतनी प्रतिक्रिया दी कि उसे उचित विभाग को सौंप दिया गया है। 
डॉयचे वेले को दिए लिखित बयान में कमांड सेंटर ने लिखा है कि डब्ल्यूएचओ ने ताईवान द्वारा दी गई जानकारी को संजीदगी से नहीं लिया और हमारे ख्याल से यह कोरोना महामारी को लेकर दुनियाभर में देर से आई प्रतिक्रया के लिए जिम्मेदार है।
 
गेडेस का कहना है कि ताईवान, चीन के लिए एक बेहद संवेदनशील मामला है, क्योंकि डब्ल्यूएचओ और उसके महानिदेशक टेड्रोस भी यह भली-भांति जानते होंगे कि ताईवान को लेकर चीन को क्रोधित करने का मतलब होगा बीजिंग के साथ साझेदारी का अंत। जिस तरह से डब्ल्यूएचओ ताईवान को नजरअंदाज कर रहा है और ऐसे पेश आ रहा है, जैसे वह चीन का ही अंग हो, यह साफतौर से उस डर का ही नतीजा लग रहा है।
ये भी पढ़ें
संकट ‘लॉकडाउन’ नहीं ‘नागरिक’ को चुनने का है?