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Written By DW
Last Modified: रविवार, 5 नवंबर 2023 (09:35 IST)

जर्मनीः कामयाब होगी अर्थव्यवस्था की रीढ़ बचाने की कोशिश?

जर्मनीः कामयाब होगी अर्थव्यवस्था की रीढ़ बचाने की कोशिश? - Germany: Will efforts to save the backbone of the economy succeed?
सबीने किंकार्त्स
यूरोप की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाला जर्मनी मंदी की चपेट में है, क्योंकि महंगी ऊर्जा देश के औद्योगिक क्षेत्र पर बोझ डाल रही है। सवाल यह है कि क्या बिजली की कीमतों में छूट उद्योगों का भला कर सकती है।
 
जर्मनी में बिजनेस का माहौल गमगीन है। 2023 के पहले छह महीनों में यूरोप की इस सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था का प्रदर्शन मायूसी भरा है। जहां अमेरिका और फ्रांस जैसे देशों ने कोविड के बाद रफ्तार पकड़ ली है, वहीं जर्मनी की अर्थव्यवस्था इस साल 0।4 फीसदी सिकुड़ गई।
 
जर्मनी की फेडरल असोसिएशन ऑफ जर्मन एंप्लॉयर्स के एक सर्वे के मुताबिक, 82 बिजनेस मालिक जर्मनी के आर्थिक हालात से काफी चिंतित हैं। करीब 88 फीसदी को लगता है कि इस संकट से निपटने के लिए सरकार के पास कोई योजना नहीं है।
 
आर्थिक मामलों के मंत्री रॉबर्ट हाबेक के सामने पहले से दिक्कतों का अंबार लगा है। वह यूक्रेन युद्ध से उपजी चुनौतियों, मध्य-पूर्व के हालात और एशिया में चीन की बढ़ती ताकत का सामना कर रहे हैं। जर्मनी में कार्बन-न्यूट्रल अर्थव्यवस्था के लिए परंपरागत ऊर्जा से अक्षय ऊर्जाकी तरफ बदलाव की प्रक्रिया, बुनियादी ढांचे की कमी, डिजिटाइजेशन की धीमी रफ्तार, कुशल कामगारों की कमी और नौकरशाही उनकी दिक्कतों में इजाफा कर रही हैं।
 
छोटे और मध्यम आकार के व्यवसायों के साथ-साथ एक सशक्त औद्योगिक क्षेत्र कई दशकों से जर्मनी की अर्थव्यवस्था के लिए रीढ़ की हड्डी जैसा रहा है। देश के कुल सकल घरेलू उत्पाद में इसकी हिस्सेदारी 23 फीसदी है।
 
उद्योगों को बचाने की जुगत
अक्टूबर में हाबेक ने अपनी औद्योगित रणनीतिपेश करके जर्मनी को चौंकाया। आगामी वर्षों में 60 पन्नों की यह रणनीति लागू करने के लिए आपात कदमों और सरकारी सब्सिडी की जरूरत होगी।
 
इस योजना के जरिए हाबेक अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन के नक्शेकदम पर चलने की कोशिश कर रहे हैं, जो अमेरिका को हरित अर्थव्यवस्था बनाने के लिए सरकारी खजाने से 740 खरब डॉलर खर्च कर रहे हैं। इन्फ्लेशन रिडक्शन एक्ट के तहत जो बाइडन की इस योजना में टैक्स में इन्सेटिव और सीधी छूट जैसे उपाय शामिल हैं।
 
जर्मनी में उद्योग जगत समेत ट्रेड यूनियन लीडरों ने भी हाबेक की रणनीति का स्वागत किया है। ये सभी संस्थान इस मुश्किल वक्त में सरकारी मदद की दुहाई देते रहे हैं। लेकिन, इस योजना से गठबंधन सरकार में सभी खुश नहीं है।
 
तीन पार्टियों की इस मिलीजुली सरकार में सबकी आर्थिक नीतियां भिन्न है। हाबेक की ग्रीन पार्टी जहां सरकारी दखल की पक्षधर है, वहीं लिबरल फ्री डेमोक्रेट आमतौर पर बिजनेस में सरकारी दखल के विरोधी हैं। तीसरी पार्टी सोशल डेमोक्रेट ऐसे किसी भी कदम के खिलाफ है, जो उसके कामगार वोटर वर्ग के हितों को नुकसान पहुंचाए। लेकिन इस पूरे मामले में जो बात साझेदार पार्टियों के गले नहीं उतरी, वह है इस योजना को बनाने का वक्त और इसे सार्वजनिक करने से पहले चर्चा ना करना।
 
बिजली की कीमतों पर कैप
कुछ उद्योगों को बिजली की कीमतों में भारी सब्सिडी देना इस नई औद्योगिक रणनीति का एक अहम बिंदु है। ये ऐसे उद्योग हैं, जो यूक्रेन युद्ध के चलते ऊर्जा की बढ़ती कीमतों से बहुत प्रभावित हुए हैं।
 
जर्मनी का बीते दो दशकों का जबरदस्त आर्थिक विकास रूस से आयात होने वाली सस्ती ऊर्जा पर निर्भर रहा है। इसी के बूते कंपनियां अपना माल प्रतियोगी लागत में बनाकर दुनियाभर में भेज पाईं। पिछले कई सालों से जर्मनी निर्यात में दुनिया का सिरमौर रहा है। यही वजह है कि 'मेड इन जर्मनी' का ठप्पा दुनियाभर में गुणवत्ता की निशानी बन गया।
 
अब सस्ती रूसी गैस से महरूम उद्योगों को ज्यादा महंगी तरल प्राकृतिक गैस पर निर्भर रहना होगा। नतीजतन जर्मनी में ऊर्जा कीमतें उछलकर दुनिया में सबसे ज्यादा हो गई हैं, क्योंकि जर्मनी के सामने ऊर्जा के लिए महंगी गैस के अलावा फिलहाल कोई विकल्प नहीं है।
 
अहम उद्योगों पर संकट
हल निकालने में सरकार की अक्षमता देखते हुए उद्योग और ट्रेड यूनियन, दोनों ही चेतावनी दे चुके हैं कि अगर उद्योगों को सब्सिडी नहीं मिली, तो भारी ऊर्जा खपत वाले उद्योग ठप हो सकते हैं।
 
एक हालिया बिजनेस कॉन्फ्रेंस में रॉबर्ट हाबेक खुद स्वीकार कर चुके हैं कि जर्मनी की सप्लाई चेन, बुनियादी माल से लेकर उत्पादन तक, काफी सुगठित है। उनका कहना था कि हाथ से उत्पादन की ओर लौटना तो यकीनन हमेशा मुमकिन है, लेकिन इससे जर्मनी एक औद्योगिक देश के तौर पर कमजोर हो जाएगा।
 
फेडरेशन ऑफ जर्मन इंडस्ट्रीज ने भी लगातार इसी तरह की चेतावनी दी है कि अगर हालात नहीं बदले, तो ज्यादा ऊर्जा खपत वाले कारोबार दूसरे देशों में जा सकते हैं। फेडरेशन के अध्यक्ष जीगफ्रीड रुसवुर्म ने कहा, "अगर जर्मनी में केमिकल उद्योग नहीं बचे, तो यह सोचना भ्रम ही होगा कि जर्मनी में केमिकल संयंत्रों में बदलाव होता रहेगा।"
 
इसी तरह धातु उद्योग की ट्रेड यूनियन ईगे मेटाल के उपाध्यक्ष युर्गेन केर्नेर का कहना है कि परिवारिक स्वामित्व वाले मध्यम-आकार के बिजनेस को चलाने की "फिलहाल कोई सूरत दिखाई नहीं दे रही है।"
 
योजना के लिए कहां से आएगा पैसा
तमाम संकटों के बीच सरकारी खजाने की तंगी देखते हुए यह कहना मुश्किल है कि हाबेक की योजना के लिए पैसा कहां से जुटाया जाएगा। अर्थमंत्री इसके लिए कर्ज लेने को तैयार हैं, लेकिन उनका यह भी कहना है कि ऐसा 2025 के चुनावों के बाद ही मुमकिन है।
 
जर्मन उद्योगों पर दबाव के बावजूद ट्रेड यूनियन लीडर देश पर कर्ज का बोझ बढ़ाने के खिलाफ हैं। जैसे जीगफ्रीड रुसवुर्म कहते हैं, "मेरे ख्याल से हमें सरकारी बजट में प्राथमिकताएं तय करनी होंगी। हमें यह मतभेद दूर करना होगा कि हम क्या करने में समर्थ हैं और क्या चाहते हैं, लेकिन उसे करने में असमर्थ हैं।"
 
हाबेक को अब भी उम्मीद है कि जर्मनी की औद्योगिक रीढ़ को बचाने के लिए वह सरकारी मदद के बूते गठबंधन में शामिल लिबरलों और सोशल डेमोक्रेट को मना लेंगे। मुश्किल वक्त नवंबर 2024 में बजट पर बातचीत से शुरु होगा। उन्हें उम्मीद है कि उद्योगों के लिए बिजली की कीमतों पर सहमति बनने की संभावना 50-50 है।
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