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Written By DW
Last Updated : बुधवार, 26 अप्रैल 2023 (09:25 IST)

भारत में समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता की क्या जरूरत है?

भारत में समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता की क्या जरूरत है? - gay marriage law case in india
-कोमिका माथुर
 
gay marriage: भारत में समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता देने वाली याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) में सुनवाई चल रही है। भारत के सामाजिक और कानूनी परिवेश में समलैंगिक नागरिकों के लिए यह क्यों जरूरी है? उत्तरप्रदेश में हाथरस के पास एक छोटे-से कस्बे में पली-बढ़ीं डिम्पल चौधरी कहती हैं कि मैं एक गलत जिस्म में कैद हूं।
 
एक प्रोफेशनल मोटरसाइक्लिस्ट और फ्रीलांसर डिम्पल फिलहाल दिल्ली में रहती हैं और स्पोर्ट्स इंडस्ट्री में ऑपरेशन और मैनेजमेंट का काम देख रही हैं। वे दुनिया के लिए एक लड़की हैं। लड़कियों की तरह दिखती भी हैं लेकिन वे खुद को लड़का मानती हैं।
 
डिम्पल 10वीं कक्षा के दौरान अपनी सेक्सुअलिटी को लेकर जागरूक हुईं। डिम्पल चाहती हैं कि उनके साथ लड़के जैसा बर्ताव किया जाए। वे कहती हैं कि मेरी पहचान को लेकर जब सवाल पूछे जाते हैं तो बहुत कोफ्त होती है। क्या हम इंसान होने से कम या ज्यादा भी कुछ हैं? क्या इंसान होना इतना नाकाफी है कि आपको LGBTQ कम्युनिटी या इस तरह के नामों से बुलाया जाए?
 
इंसान होने से ज्यादा जरूरी दूसरी चीजें
 
डिम्पल चौधरी ने पढ़ाई खत्म कर दिल्ली में मीडिया में नौकरी करने का फैसला किया। शुरू के 4-5 साल उनके लिए बहुत दर्दनाक थे। डिम्पल के शब्दों में कि ऑफिस में लोगों का रवैया मेरे लिए अजीब था। मैं कैंटीन में बड़ी-सी मेज पर बैठकर अकेले लंच करता और बाकी सब एक-दूसरे के साथ।
 
लोग कहते थे कि यह लेस्बियन है। तुम्हें भी अपनी तरह बना देगी इसलिए इससे बात नहीं करनी है। मैंने कैंटीन जाना छोड़ दिया। कई-कई दिनों तक खाना नहीं खाता था। बहुत तकलीफ होती थी। मेरे लिए नौकरी करना मुश्किल हो गया था। पता नहीं क्यों, पर हमारे समाज में इंसान होने से ज्यादा जरूरी धर्म, आस्था और आपकी सेक्सुअलिटी है।
 
क्या समलैंगिक विवाह को मान्यता मिलने या इस पर बात होने से कोई बदलाव आएगा? इस पर डिम्पल का कहना है कि यह इतना आसान नहीं है कि हमारे यहां अलग-अलग धर्मों, आस्थाओं और मान्यताओं से जुड़े लोग रहते हैं जिनकी मानसिकता बदलना इतना आसान नहीं होगा।
 
हां, सुप्रीम कोर्ट के समलैंगिक विवाह के पक्ष में फैसला देने से यह जरूर होगा कि हमारे समुदाय से ताल्लुक रखने वाले लोगों को एक मानसिक संतुष्टि मिलेगी। किसी से कुछ कहने की जरूरत नहीं रहेगी। इस समुदाय से ताल्लुक रखने वालों की मानसिक स्थिति शायद तब थोड़ी स्थिर हो पाएगी। डिप्रेशन और सुसाइड करने के मामलों में भी कमी आ सकती है।
 
लड़का या लड़की?
 
दिल्ली के किशनगंज में रहने वाले कबीर मान ट्रांसमैन हैं। कॉर्पोरेट एम्प्लॉयी और सेक्स एजुकेटर मान जन्म से लड़की हैं। इन्हें नर्सरी क्लास में ही अपने अलग होने का पता चल गया था। कबीर का परिवार निम्न वर्ग से ताल्लुक रखता है। कबीर बताते हैं कि मेरे पिता कोई काम नहीं करते थे। मां 12वीं पास थीं। घर वही चलाती थीं। मैंने मां को अपने पिता से रोज पिटते देखा है। जिस इलाके में मैं रहता था, वहां इसी तरह के ज्यादातर परिवार रहते थे। ऐसे परिवार और ऐसे लोगों के बीच रहते हुए मैं अपने बारे में किसी को कैसे बता सकता था?
 
कबीर मान को लड़कियों की तरह रहना, उनकी तरह पुकारा जाना बिलकुल पसंद नहीं था इसलिए स्कूल जाने का भी मन नहीं करता था। वे कहते हैं कि लेकिन किसे समझाता? मैं होशियार था लेकिन अपने जिस्म और अपनी असली पहचान के बीच मानसिक तौर पर इतना पिस गया कि ठीक से पढ़ नहीं पाया।
 
नौकरी की सोची तो कोई भी काम ऐसा नहीं मिला, जो जेंडर बायस्ड न हो। जर्नलिज्म करने का मन बनाया और जामिया मिल्लिया इस्लामिया में एडमिशन लिया, पर वहां भी सबकी नजरों से डर गया। आखिरी साल में वह भी छोड़ दिया। आखिरकार एक एनजीओ में सेक्स एजुकेटर के तौर पर काम मिला। वहां लोगों ने मेरी असल पहचान जानने के बाद भी बांहें फैलाकर मुझे अपनाया, तब जाकर मेरे भीतर थोड़ा आत्मविश्वास जागा।
 
अपने शरीर और अपनी सेक्सुअलिटी को एक करने की जद्दोजहद में कबीर पिछले 3-4 साल से हारमोन थैरेपी ले रहे हैं। वे कहते हैं कि 'समलैंगिक विवाह' नाम से मुझे आपत्ति है। LGBTQ का मतलब सिर्फ यह नहीं कि लड़का, लड़के के प्रति आकर्षित हो और लड़की, लड़की के प्रति। यहां क्वीयर भी हैं, ट्रांसमैन और ट्रांसवुमैन भी। ऐसे में विवाह करने के इनके अधिकारों का क्या?
 
कबीर मान कहते हैं कि हम उस देश में रहते हैं, जहां 'कामसूत्र' की रचना हुई। खजुराहो के मंदिर बने। हमें फिर से अपने इतिहास को देखने की जरूरत है और यह समझने की जरूरत है कि हर इंसान अलग है। 2 वयस्क लोग फिर चाहे वे किसी भी जेंडर के हों, किसी भी सेक्सुअल ओरिएंटेशन के हो, उन्हें एकसाथ रहने का अधिकार होना चाहिए। प्रेम करने का अधिकार होना चाहिए।
 
भारत में धारा 377: कब क्या हुआ?
 
भारत में ब्रिटिश शासन के दौरान 1860-62 में आईपीसी की धारा 377 के तहत समलैंगिकता को अपराध घोषित किया गया था। साल 2001 में पहली बार एक गैरसरकारी संस्था 'नाज फाउंडेशन' ने धारा 377 के खिलाफ दिल्ली हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया और कहा कि समलैंगिक वयस्कों के बीच यौन संबंध को अपराध की श्रेणी से बाहर किया जाए। 2009 में दिल्ली हाईकोर्ट ने इसे अपराध के दायरे से हटाया।
 
सुप्रीम कोर्ट ने 2013 में धारा 377 के खिलाफ दिए गए हाईकोर्ट के फैसले को 'कानूनी तौर से लागू' नहीं होने वाला फैसला बताया और इसे दोबारा अपराध की श्रेणी में ला खड़ा किया और कहा कि सरकार चाहे तो इस धारा को खत्म करने या बदलने के लिए संसद में कोई कानून बना सकती है। 2017 में सुप्रीम कोर्ट में सेक्सुअलिटी को निजता का अधिकार माना और यह भी कहा कि 'किसी भी व्यक्ति के सेक्स संबंधी झुकाव उसके राइट टू प्राइवेसी का मूलभूत अंग' हैं।
 
चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा ने 2018 में धारा 377 पर समलैंगिकों के हक में फैसला सुनाते हुए कहा कि समलैंगिकता अपराध नहीं है। समलैंगिकों को भी वे ही मूल अधिकार हैं, जो किसी सामान्य नागरिक के हैं। सबको सम्मान से जीने का हक है। इसके बाद से भारत में समलैंगिक विवाह को कानूनी आधार देने की मांग उठाई जा रही है। दुनिया के 34 देशों में समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता प्राप्त है।
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