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सुंदरी के पीछे त्यागना पड़ा होलकर सिंहासन

सुंदरी के पीछे त्यागना पड़ा होलकर सिंहासन - Holkar had to relinquish the throne after Sundari
बंबई का मेयर अपनी कार की सीट पर बगल में 22 वर्षीय एक अद्वितीय सुंदरी को बैठाकर बंबई की खूबसूरत चौपाटी पर चला जा रहा था। कार रोककर शायद वे दोनों सूर्यास्त को निहार रहे थे, तभी बच्चू भाई नामक एक व्यक्ति उस सुंदरी के पास पहुंचा, जिसका नाम मुमताज था। उसने मुमताज को एक ओर बुलाया और दबी जुबान से खबर दी 'तुम्हारे प्रेमी बावला की हत्या करने के लिए इंदौर से कुछ लोग आ गए हैं।'
 
अचानक इस अप्रत्याशित समाचार को पाकर मुमताज घबरा गई। उसका खूबसूरत चेहरा पसीने से नहा उठा। बिना कुछ कहे उसने अपने ड्राइवर मोहम्मद शफी को कहा कि शीघ्रता से वह उन दोनों को घर पहुंचा दे। कार तेजी के साथ चौपाटी से बावला के बंगले की ओर बढ़ रही थी। मार्ग में बावला को मुमताज ने सबकुछ बता दिया। हैंगिंग गार्डन के समीप अचानक पीछे से एक कार हॉर्न बजाती हुईआई और उसमें बैठे लोगों ने बावला की कार को रोकने का संकेत दिया। बावला की कार रुकते ही पिछली कार में से कुछ लोग फुर्ती से कूदे। उन्होंने मुमताज व बावला को अपशब्द कहे। उनमें से एक चीखा- 'तुम हमारी बाई को कहां लिए जा रहे हो? उसे नीचे उतारो।'
 
चारों लोगों ने अपनी गर्दनें बावला की कार के अंदर डाल दीं और गोलियों से बावला पर प्रहार किया। कुछ लोगों ने मुमताज को कार से बाहर खींचा। उसने वापस कार की ओर जाने की कोशिश की तभी उस पर भी चाकू से प्रहार हुआ और कुछ क्षणों में वह खून से लथपथ हो गई। उसने जैसे ही चिल्लाना शुरू किया उस पर दूसरी बार चाकू से प्रहार हो गया। वह वहीं गिर पड़ी। उसने फिर से गोली चलाने की आवाज सुनी। तभी ब्रिटिश फौज का एक सार्जेंट वहां आ पहुंचा, जिसे देखते ही हत्यारे भाग गए। सार्जेंट ने मुमताज को कार में डालकर चिकित्सालय पहुंचाया। मुमताज तो बच गई किंतु बावला की मृत्यु हो गई।
 
यह किसी फिल्मी या जासूसी कहानी का अंश नहीं है, अपितु उस सत्य घटना का विवरण है, जो मुमताज ने न्यायालय में न्यायाधीश के समक्ष अपने बयान में दिया था। 1925 में हुए इस हत्याकांड से इंदौर के महाराजा तुकोजीराव (तृतीय) का संबंध था। इस घटना के विषय में आज भी नगर के बड़े-बूढ़ों से तरह-तरह की किंवदंतियां सुनने को मिलती हैं। कहा जाता है कि इस हत्याकांड में महाराजा की लिप्तता को सिद्ध करने के लिए ब्रिटिश सरकार ने भरसक प्रयास किए और एक जासूस को संन्यासी के वेष में वर्षों तक बिजासन टेकरी पर रखा, लेकिन उन्हें अपने मकसद में सफलता नहीं मिली।
 
एक किंवदंती यह भी प्रचलित है कि बावला की हत्या करने वाले दल को जो कार बंबई से इंदौर लेकर आ रही थी, उसका मुस्लिम ड्राइवर गजब का साहसी व दक्ष था, जो 10 घंटे में कार को खलघाट के नर्मदा पुल तक ले आया। कहा जाता है उस कार को नर्मदा में गिराकर, दल के सदस्य सकुशल इंदौर पहुंच गए थे। लोगों का यह भी कहना है कि इस मामले में जिन लोगों को क्षति उठानी पड़ी थी, उनके परिवार के सदस्यों को महाराजा ने पर्याप्त आर्थिक संरक्षण प्रदान किया था। वास्तविकता चाहे जो रही हो, किंतु इतना सत्य है कि मुमताज से महाराजा को बेहद लगाव था और वह किसी गैर मर्द के साथ रहे यह उन्हें कदापि गंवारा न था।
 
मुमताज मूलत: हैदराबाद की निवासी थी। महाराजा के दरबार में जब वह एक गायिका के रूप में लाई गई तब उसकी आयु 10 वर्ष की थी। हैदराबाद से उसे महाराजा ने ही बुलवाया था। 10 वर्ष की वह सुंदर कन्या अपने माता-पिता, दादी और साजिंदों को भी अपने साथ लेकर इंदौर पहुंची थी। अनुपम सौंदर्य की धनी उस किशोरी को ईश्वर ने गजब की मधुर आवाज भी दी थी। वह इंदौर दो माह रही और फिर हैदराबाद चली गई। इन दो माह में उसने लालबाग में आयोजित महफिलों में महाराजा के समक्ष कई बार समां बांधा था। उस कोकिल कंठा की मधुर आवाज ने महाराजा पर जादू कर दिया था। दो माह बाद ही फिर से मुमताज इंदौर आ गई। एक वर्ष तक संगीत व गायन का सिलसिला चलता रहा। तभी एक दिन अचानक न जाने क्यों महाराजा मुमताज से खफा हो गए। मुमताज को जितनी संपत्ति इनाम-इकराम में दी थी, वह सारी जब्त कर ली गई और उन्होंने मुमताज को आदेश दिया कि वह जाकर अमृतसर रहे। आदेश पाकर मुमताज अमृतसर चली गई जहां से तीन माह बाद महाराजा के अनुरोध पर वह वापस इंदौर आ गई।
 
अमृतसर से लौटने के बाद इस कोकिल कंठी अनुपम युवती को महाराजा ने अपनी पत्नी के रूप में रख लिया। 19 वर्ष की आयु में मुमताज का नाम बदलकर कमलाबाईकर दिया गया। महाराजा जब इंग्लैंड गए तो कमला को भी अपने साथ ले गए। इस यात्रा से लौटने के बाद कमला ने एक पुत्री को जन्म दिया। मुमताज के बयान के अनुसार इस कन्या की हत्या कर दी गई। इसके बाद कमला महाराजा के साथ शिकार यात्रा पर भानपुरा गई। इस यात्रा में उसके सौतेले पिता, उसकी मां व दादी भी साथ थे। कमला को कठोर नियंत्रण में रखा जाता था और उसके निकट संबंधियों से भी कभी-कभार ही मिलने दिया जाता था।
 
भानपुरा से कमला मसूरी के लिए रवाना हुई। उसे सुले नामक व्यक्ति के संरक्षण में इस यात्रा की अनुमति दी गई थी। कमला के साथ उसके सौतेले पिता व मां भी थी। मार्ग में कमला ने मनमानी की और मसूरी जाने की बजाय वह दिल्ली रेलवे स्टेशन पर ही उतर गई। सुले ने कमला से मसूरी चलने का आग्रह किया। देखते ही देखते बात ने गर्मी पकड़ ली। प्लेटफॉर्म पर मौजूद पुलिस जवान उन्हें थाने ले गए। सारा मामला शांत हुआ और कमला मसूरी न जाते हुए अमृतसर की ओर चल दी।
 
इंदौर महाराजा को कमला का यह व्यवहार अच्छा न लगा। इंदौर के कई लोग कमला को बुलाने के लिए अमृतसर पहुंचे, जिनमें से एक जकाउल्लाह भी था। उसने कमला सेसाफ-साफ कह दिया कि महाराजा ने कहा है कि यदि वह सीधी तरह से इंदौर नहीं आएगी तो उसे लाने के लिए दूसरे तरह के साधनों का उपयोग किया जाएगा। कमला को यह भी आश्वासन दिया गया कि यदि वह सामान्य रूप से इंदौर पहुंच जाएगी तो उसे किसी प्रकार का कोई कष्ट नहीं दिया जाएगा। महाराजा का यह आश्वासन भी कमला को अपने पूर्व निर्णय से विचलित न कर पाया। कुछ दिन अमृतसर में रहने के बाद वह नागपुर चली गई।
 
नागपुर में भी इंदौर के लोग जा पहुंचे। बिहारीलाल नामक व्यक्ति तो कमला (मुमताज) के घर ही जा पहुंचा था। इंदौरी लोगों के पहुंचने पर वह नागपुर छोड़कर बंबई चली गई। उसका उद्देश्य बंबई के पुलिस कमिश्नर से संरक्षण प्राप्त करना था, क्योंकि अब वह अपना जीवन खतरे में महसूस कर रही थी। सबसे पहले वह अंधेरी में रही और वहां से उसे मदनपुरा ले जाया गया। उसके माता-पिता उसके साथ थे। मदनपुरा से वे लोग परेल में रंगारी की चाल में रहने को चले गए। यहीं पर पहली बार कमला की भेंट बावला से हुई। बावला से उसकी यह भेंट अलादिया व अलाबक्ष ने करवाई थी जो कमला के मामा थे। बावला कमला के रूप-लावण्य पर मोहित हो गया। उसने सारे दल कोस्लेटर रोड स्थित अपनी मां के बंगले पर ले जाकर शरण दी।
 
कमला को बावला अपने साथ ले गया और दोनों मारदेव क्लब में जाकर ठहरे। अब कमला, बावला के लिए पूरी तरह समर्पित हो गई थी। दोनों अमृतसर, अजमेर, आगरा, दिल्ली और शिमला की वादियों में खो गए। इस लंबी यात्रा में कमला अपना अतीत भूलने की कोशिश करती रही, जो साए की तरह उसका पीछा कर रहा था। उसके मन में छिपा अपराध बोध अकारण ही उसे खिन्न कर दिया करता था, क्योंकि वह महाराजा होलकर की पत्नी रह चुकी थी। महाराजा की पत्नी को कोई और अपनी प्रेमिका बना कर रखे, महाराजा इसे कदापि सहन नहीं कर सकते थे। उनके लिए यह एक चुनौती थी। कमला इस लंबी यात्रा में सदैव आशंकाओं से घिरी व घबराई रहती थी। इस यात्रा से लौटकर वह अब चौपाटी स्थित बावला के बंगले में ही उसके साथ रहने लगी। बावला की अनुपस्थिति में कमला को बाहर तक जाने की भी इजाजत नहीं थी, क्योंकि बावला भी अच्छी तरह जानता था कि इंदौर के लोग कमला को ले जाने के लिए मंडरा रहे हैं।
 
यह सच भी था। आखिर बावला उन्हीं लोगों द्वारा मौत के घाट उतार दिया गया। इस हत्या के आरोप में महाराजा को दोषी सिद्धकरने के लिए ब्रिटिश सरकार ने बहुतेरे जाल बिछाए किंतु वे सफलता न पा सके। फिर भी महाराजा के प्रति आशंका व्यक्त की गई। कहा जाता है, अंगरेजों ने महाराजा के सामने दो विकल्प रखे- या तो वे ब्रिटिश न्यायालय के समक्ष उपस्थित होकर इस मुकदमे को लड़ें अथवा होलकर राज्य का सिंहासन अपने पुत्र यशवंतराव होलकर के पक्ष में त्याग दें। महाराजा ने 26 फरवरी 1926 को अपने अल्पवयस्क पुत्र यशवंतराव के पक्ष में सिंहासन त्याग दिया।
 
सिंहासन किन परिस्थितियों में छोड़ा गया, यह होलकर इतिहास का एक रहस्यमय पन्ना ही बना रहेगा। विडंबना की बात है कि बावला हत्याकांड व गादी परित्याग से संबंधित दस्तावेज नई दिल्ली स्थित राष्ट्रीय अभिलेखागार में भी उपलब्ध नहीं हैं। यद्यपि अभिलेखागार के इन्डेक्स में इन दोनों फाइलों का हवाला दिया गया है किंतु खोजने पर दोनों फाइलें अनुपलब्ध थीं।