- जगतराम आर्य
लाहौर के ब्रह्म-समाज के अध्यक्ष को जब यह पत्र मिला तो क्षण भर के लिए तो वह भौचक्का रह गया। ब्रह्म समाज के साधारण युवा सदस्य में इतना साहस कि वह अपना इस्तीफा खुद लाकर उनके हाथ में थमा दे और इस्तीफा भी ऐसा, जिसमें ब्रह्म-समाज की सरासर छीछालेदर की गई हो! उन्होंने युवक लाजपत राय से पूछा, जानते हो, इसका अर्थ क्या होता है?'
'जी हां, अच्छी तरह जानता हूं।'
निर्भीक भाव से लाजपत राय ने उत्तर दिया।
'यह विद्रोह है।'
'हो सकता है।'
'यह अनुचित भी है।'
आपकी दृष्टि में न? मेरी दृष्टि में मेरे लिए इससे उचित और कोई मार्ग नहीं। और अनुचित का बहिष्कार करने तथा उचित को डंके की चोट पर प्रकट करने से मुझे कोई नहीं रोक सकता।'
आजीवन विद्रोह का स्वर मुखरित करने वाले इस होनहार भारत-भक्त का जन्म 28 जनवरी, 1865 को फिरोजपुर जिले के ढुडिके ग्राम में हुआ था। छात्र जीवन से ही समाज सुधार की दिशा में संकल्पकृत लाजपत राय ने सर्वप्रथम ब्रह्म समाज की सदस्यता ग्रहण की, किंतु उसकी अकर्मण्यता देखकर कुछ काल बाद ही उससे इस्तीफा दे दिया। स्वामी दयानंद के हृदयस्पर्शी प्रवचनों को सुनकर उनके मन में नई आशा जागृत हुई। उन्होंने सोचा, स्वामी जी के बताए मार्ग पर चलकर ही मानव का कल्याण और राष्ट्र का उद्धार हो सकता है। बस, उसी दिन उन्होंने स्वामी जी द्वारा स्थापित आर्य समाज की न केवल सदस्यता ग्रहण की वरन तन-मन-धन से उसके विचारों तथा सिद्धांतों को जन-जन तक पहुंचाने में जुट गए।
पंजाब के हर कोने में वैदिक धर्म की अजस्र धारा प्रवाहित करने में सबसे बड़ा हाथ लाला जी, पंडित गुरुदत्त, महात्मा हंसराज तथा स्वामी श्रद्धानंद जी का था। महान देशभक्त लाला लाजपत राय स्वामी दयानंद जी महाराज को अपना गुरु मानते थे और आर्य समाज को अपनी मां मानते थे। स्वामी जी के देहावसान के बाद उनकी वाणी को राष्ट्र के हर कोने तक पहुँचाने में लाला जी ने अनथक परिश्रम किया। स्वामी जी के देहावसान पर उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए लाला जी ने लाहौर में एक सार्वजनिक सम्मेलन बुलाया और जनता के सामने आर्य समाज के सिद्धांत रखे।
स्वामी जी, जो स्वयं आजीवन राष्ट्र को सबसे बड़ा धर्म मानते थे, के प्रभाव में आने के बाद भला लाला जी राष्ट्र सेवा से किस तरह विमुख रह जाते! उनकी विद्रोही ओजस्विनी वाणी कुछ ही दिनों में देश के कोने-कोने में गूंज उठी। 'सब एक हो जाओ, अपना कर्तव्य जानो, अपने धर्म को पहचानो, तुम्हारे सबसे बड़ा धर्म तुम्हारा राष्ट्र है। राष्ट्र की मुक्ति के लिए, देश के उत्थान के लिए कमर कस लो, इसी में तुम्हारी भलाई है और इसी से समाज का उपकार हो सकता है।'
नर-केसरी की इस गर्जना से ब्रिटिश सरकार दहल उठी। उनकी वाणी ने राष्ट्र को चेतावनी दी। वे पीड़ितों के सहारे और दलितों के आश्वासन बने। हर मनुष्य के कष्ट को वे अपना कष्ट समझते थे और उसके निवारण में प्राणपण से जुट जाते थे। लोगों में जागृति पैदा करने के लिए उन्होंने स्थान-स्थान पर स्कूल व कॉलेजों की स्थापना के लिए सर्वाधिक योगदान दिया। इनके प्रयत्नों से ही लाहौर में 'दयानंद एंग्लो वैदिक कॉलेज' की स्थापना हुई। हंसराज जी कॉलेज के प्रिंसिपल बने और लाला जी संचालन समिति के मंत्री। 25 वर्ष तक लालाजी इस पद पर अवैतनिक रूप से कार्य करते रहे। शिक्षा के क्षेत्र में ऐसा अभूतपूर्व योगदान क्या आज कहीं दिखाई देगा?
1899 ई. में उत्तरी भारत में भीषण अकाल पड़ा। बंगाल, राजस्थान और मध्यप्रदेश भी इस अकाल की चपेट में आ गए। इस विकट परिस्थिति से जूझने के लिए लाला जी अपने कुछ सहयोगियों के साथ आगे आए। अंगरेज सरकार ने दिखावे के लिए थोड़ी-बहुत सहायता दी। भूख की धधकती ज्वाला में सब भस्म होने लगे। एक बार कॉलेज की स्थापना के लिए घर-घर जाकर लाला जी ने धन संग्रह किया था, इस बार लोगों के जीवन-मरण के प्रश्न को लेकर वे फिर भिक्षु बने। किसी तरह से यह समस्या निपटी तो एक और समस्या सामने आ गई। ईसाई पादरी लोग अनाथ हिंदू बच्चों को ईसाई बना रहे थे। भारत और भारतीयों के हितों के महान रक्षक लाला जी को भला यह कैसे बरदाश्त होता! लोगों से हाथ जोड़कर निवेदन किया, अपील की, झोली फैलाई और कुछ ही समय में कई हिंदू अनाथाश्रमों की स्थापना की।
कांगड़ा जिले में एक बार भूकंप आया। लाला जी ने कुदाली संभाली और मिट्टी के ढेरों में दबे हुए लोगों को बाहर निकाला। किसी की चिकित्सा करवाई तो मृत व्यक्तियों के कफन-दफन का इंतजाम किया। रानी विक्टोरिया के राज्य की हीरक जयंती की स्मृति में सन् 1897 में अंगरेज सरकार ने लाहौर में रानी विक्टोरिया की एक मूर्ति की स्थापना का निश्चय किया, पर लाला जी ने जब खुल्लमखुल्ला इसका जोरदार विरोध किया तो अंगरेज सरकार की भी हिम्मत पस्त पड़ गई।
आर्यसमाज का एक महत्वपूर्ण पहलू था- हरिजनोद्धार। लाला जी ने न केवल इस दिशा में उत्साहपूर्वक कार्य किया वरन् इसके लिए 40 हजार रुपए भी दिए। कालांतर में गुरुकुल कांगड़ी में जब अछूत कॉन्फ्रेंस हुई तो लाला जी ही उसके सभापति बने। 1888 में लाला जी राजनीति में सक्रिय होकर कूद पड़े। इस वर्ष प्रयाग में हुए कांग्रेस के अखिल भारतीय अधिवेशन में लाला जी भी सम्मिलित हुए और प्रथम बार एक सार्वजनिक राजनीतिक मंच पर खड़े होकर आपने ऐसा ओजपूर्ण भाषण दिया कि लोग आश्चर्यचकित रह गए। 1889 में कांग्रेस का अधिवेशन लाहौर में होना निश्चित हुआ। पंजाब में कांग्रेस का यह प्रथम अधिवेशन था और सभी को संदेह था कि यह सफल न होगा। इसके लिए लाला जी से विशेष रूप से अनुरोध किया गया।
बस, फिर क्या था। लाला जी के एक आह्वान पर आर्य समाज के हजारों कार्यकर्ता आ जुटे और अधिवेशन निर्विघ्न समाप्त हुआ। रानी विक्टोरिया के राज्य की हीरक जयंती की स्मृति में सन् 1897 में अंगरेज सरकार ने लाहौर में रानी विक्टोरिया की एक मूर्ति की स्थापना का निश्चय किया, पर लाला जी ने जब खुल्लमखुल्ला इसका जोरदार विरोध किया तो अँगरेज सरकार की भी हिम्मत पस्त पड़ गई और उन्हें अपना इरादा त्याग देना पड़ा। इसी विरोध में लोकमान्य तिलक डेढ़ वर्ष की सजा काट चुके थे।
लाला जी सही मायने में क्रांतिकारी थे। वे क्रांति के द्वारा भारत की स्वतंत्रता चाहते थे, भिक्षु बनकर नहीं। इसलिए उदारवादी कांग्रेसियों से उनकी न पटी। उन्होंने स्पष्ट कहा, 'जो वस्तु हमारी है उसके ही लिए हम दूसरों के आगे हाथ क्यों पसारें?'
1905 में लार्ड कर्जन ने बंगाल के दो टुकड़े कर दिए। सारे देश में इसके खिलाफ आंदोलन उमड़ पड़ा। अंगरेजों ने भारत में सुधार की योजना एक कमीशन से बनवाई, जिसका एक सदस्य था सर साइमन। जिसके विरोध में देशव्यापी प्रदर्शन हुए। 30 अक्टूबर, 1928 को यह कमीशन लाहौर पहुंचा। लाला जी के नेतृत्व में इसे कमीशन के खिलाफ प्रदर्शन किया। साइमन कमीशन वापस जाओ, साइमन कमीशन गो बैक के नारे लगे। पुलिस ने लाठियां संभालीं और टूट पड़ी जुलूस पर। लाला जी को तो उन्होंने पहले ही ताक में रखा था। उन्हें गिराकर वे निर्ममतापूर्वक उन पर लाठियां बरसाने लगे।
लाला जी का सारा शरीर क्षत-विक्षत हो गया। लहूलुहान होने के बावजूद जुलूस के सम्मुख खड़े होकर काफी देर तक भाषण दिया। इस निर्मम पिटाई के बाद लाला जी अधिक दिनों तक जीवित न रह सके और 17 नवंबर, 1928 को उनका देहावसान हो गया। पर जाते-जाते वे कह गए, मेरे शरीर पर पड़ी प्रत्येक लाठी अंगरेज सरकार के कफन पर कील का काम करेगी।'