अकबर का पिता हुमायूँ अपने पुस्तकालय में था। हुमायूँ पुस्तकालय से उतर ही रहा था कि सीढ़ियों पर लड़खड़ाया और गिर पड़ा। उसे सख्त चोट आई। कई दिनों तक वह मृत्यु से जूझता रहा। अंत में उसके प्राण-पखेरू उड़ गए। हुमायूँ का वेश पहनकर एक व्यक्ति झरोखे पर बैठाया जाता था कि बादशाह की अकाल की मृत्यु की खबर फैलने से गड़बड़ी न फैल जाए।
अकबर अमृतसर के निकट कलानौर में था। जल्दी-जल्दी में वहीं 14 फरवरी 1556 को शुभचिंतकों ने अकबर की ताजपोशी की, फिर वह दिल्ली दौड़ा आया। इस प्रकार तेरह वर्ष से तनिक ही अधिक उम्र में अकबर पर मुगल साम्राज्य का भार आ पड़ा। वस्तुतः उस समय मुगल साम्राज्य नाममात्र को था। जितने क्षेत्र पर स्वयं अकबर का अधिकार था, वही उसके अधीन माना जा सकता है।
चारों ओर शत्रु ही शत्रु थे। हुमायूँ साम्राज्य को जमा नपाया था। अफगान अब भी प्रबल थे, राजपूत स्वतंत्र थे। दूसरी ओर मुगलों में न तो एका था, न किसी का अंकुश। ऐसे में अकबर की शक्ति का मुख्य स्रोत बैराम खाँ था। वह अत्यंत दूरदर्शी, कूटनीतिज्ञ और योद्धा था। हुमायूँ के समय से यह अकबर का संरक्षक था। जब अकबर युवराज के रूप में पंजाब में मुगल शासन को ठीक कर रहा था, उस समय भी वह बैराम खाँ की देखरेख में था। इस काल से ही अकबर को युद्धों में सफलता मिलने लगी थी। वह राजनीति और रणनीति में बराबर प्रशिक्षित हो रहा था।
परंतु किशोर अकबर पर बैराम खाँ का ही अधिकार न था। अकबर को बचपन में कई धायों ने दूध पिलाया था, उनमें जीजी अंगा और माहम अंगा प्रमुख थीं। मुगलकाल में दूध का बड़ा महत्व था। ऐसा माना जाता कि बच्चे को माँ या धाय के दूध के साथ अनेक अच्छे-बुरे संस्कार मिलते हैं। अतः उच्च वंश और गुणवाली धायों को राजकुमारों को दूध पिलाने के लिए नियुक्त किया जाता था। मुगलों में ऐसी धायों के प्रति विशेष स्नेह होता। फिर अकबर जैसे व्यक्ति का तो स्नेह असाधारण ही रहा होगा। इनमें जीजी अंगा के पति को हुमायूँ ने ही अतगाखाँ (धाय-पति जो पितृवत् हो) की उपाधि दी थी और इनके एक पुत्र को मिर्जा अजीज कोका (धाय भाई) की।
इस स्नेह का लाभ उठाकर ऐसे धाय भाई मनमानी किया करते। अकबर भी जहाँ तक संभव होता, इन्हें महत्व दे जाता। कभी-कभी ये धायें अकबर से कह-सुनकर क्षमादान प्राप्त कर लेतीं। इस प्रकार इनका वर्ग भी अकबर पर नियंत्रण करता। परंतु बैराम खाँ में योग्यता थी और इन धाय भाइयों में निरंकुशता। हुमायूँ-काल से इधर बीच में मुगल साम्राज्य का जो पुनः स्थापन हुआ उसका मुख्य श्रेय बैराम खाँ को ही था।
अकबर और हेमू बैराम खाँ की सहायता से अकबर ने शेरशाह के वंशजों को नियंत्रित करने का बीड़ा उठाया। उसके हाथ से दिल्ली और आगरा भी निकल गए थे। बैराम खाँ अकबर के साथ-साथ पंजाब में उलझा हुआ था कि अफगानों की एक शाखा का मंत्री हेमू (हेमचंद्र) चढ़ आया। हेमू राजवंशी न था और वह इतना प्रबल हो उठा था कि उसने विक्रमादित्य की उपाधि धारण कर ली।
हेमू ने शीघ्र ही ग्वालियर-आगरा पर अधिकार कर लिया। पूर्व में स्थित मुगल सेनापतिगण उसे रोकने में असमर्थ रहे। शीघ्र ही उसका दिल्ली पर अधिकार हो गया। निदान पश्चिम से बैराम खाँ के नेतृत्व में अकबर ने उसे रोका। पानीपत के प्रसिद्ध मैदान में हेमू की विशाल सेना के सामने मुगल सेना तुच्छ दिखती थी। स्वयं हेमू हवाई नामक एक विशाल हाथी पर सवार हो सैन्य संचालन कर रहा था।
मुगल सेना में दहशत थी। कुछ शुभचिंतकों ने सलाह दी, अकबर भारत छोड़ काबुल चला जाए। पर ऐसे खतरे मोललेना तो अकबर के स्वभाव में था। पहली ही लड़ाई में अकबर की सेना ने हेमू का बहुत-कुछ सामान छीन लिया। बैराम खाँ ने अकबर को तो सुरक्षित स्थान पर छोड़ा और वह स्वयं सेना लेकर आगे बढ़ा। ऐसा जान पड़ा कि मुगल दल पर हेमू की सेना छा जाएगी।
हेमू ने अपने 1500 हाथियों को मध्य भाग में बढ़ाया। इससे मुगल सेना में गड़बड़ी फैल गई और ऐसा जान पड़ा कि हेमू की सेना मुगलों को रौंद देगी, पर संयोगवश हेमू की एक आँख में तीर लगा जो उसके सिर को छेदकर दूसरी ओर निकल आया। फिर क्या था, हेमू के दल में भगदड़ मच गई।
हेमू का महावत हवाई (हाथी) को भगाकर ले जा रहा था, पर हेमू समेत पकड़ा गया। जब वह अकबर के सामने लाया गया तो बैराम खाँ ने प्रार्थना की कि हजरत इसे मारकर गाजी की उपाधि धारण करें, पर अकबर को यह स्वीकार न हुआ, हेमू को और लोगों ने मार डाला।
इस अवसर पर एक मनोरंजक घटना का पता चलता है- वस्तुतः अकबर बचपन में चित्रकारी किया करता था। एक बार उसने एक रुंड-मुंड का चित्रण किया था। उस समय किसी ने पूछा कि यह किसका चित्र है तो अकबर ने जवाब दिया- हेमू का। हेमू जब बंदी होकर आया तो अकबर को वही घटना याद आ गई। उसे सुनाते हुए उसने कहा- इसे तो मैं पहले ही मार चुका हूँ।
इस युद्ध से मुगल वंश का सिक्का जम गया। अकबर को दिल्ली-आगरा का क्षेत्र ही न मिला बल्कि अपार संपत्ति तथा हेमू के 1500 हाथी भी प्राप्त हुए। विद्रोहियों की हिम्मत पस्त हो गई। अब अकबर ने चारों ओर की अशांति दबाने का कार्य शुरू किया।
अकबर में उम्र के साथ-साथ अधिकार की भावना और परिपक्वता आ रही थी। अब वह एक ओर बैराम खाँ और दूसरी ओर धायों के प्रभाव से मुक्त होने के लिए छटपटा रहा था। बैराम खाँ साम्राज्य का सबसे प्रमुख स्तंभ था, पर वह उद्दंड था। धायों के परिवार वाले बादशाह के स्नेह-भाजन होने के नाते मनमानी करते, उनकी शिकायतें आतीं तो अकबर उन्हें तरह दे जाता।
किस्सों का शौक इस बीच बैराम खाँ ने अकबर की शिक्षा-दीक्षा का भी प्रबंध किया, पर अकबर का अक्षर-ज्ञान में उत्साह न हुआ पर वह बहुश्रुत था। अंत तक वह लोगों से ग्रंथ पर ग्रंथ पढ़वाकर सुनता गया। बैराम खाँ ने मीर अबुल लतीफ नामक जिस शिक्षक को नियुक्त किया था, वह बड़े ही उदार धार्मिक विचारों का था। अतः किशोर अकबर पर इन विचारों की छाप पड़ी, जो आगे चलकर उसके दीन-ए-इलाही में विकसित हुई।
धाय भाई का उपद्रव धायपुत्र अदहम खाँ ने अकबर की सहनशीलता का हमेशा गलत अर्थ लगाया। उसने समझा कि अकबर डरपोक है और उसकी माँ माहम अंगा से दबता है। 1562 की मई का महीना था। शाम का समय था। अकबर का नेक वजीर शम्शुद्दीन (अतगा खाँ) कुरान शरीफ का पाठ कर रहा था।
अदहम खाँ अपने कुछ साथियों के साथ शम्सुद्दीन के कमरे में घुस गया और उसे मार डाला। इतना ही नहीं, वह उसी उत्तेचित अवस्था में अकबर के कक्ष की ओर बढ़ा पर द्वार-रक्षक ने रास्ता रोक दिया। अकबर उस समय हरम में आराम कर रहा था। शोर सुनकर वह धोती-दुपट्टा पहने दूसरे द्वार से निकल आया तो उसने शम्सुद्दीन की लाश पड़ी देखी। इतने में अदहम ने बादशाह का हाथ पकड़ लिया। ऐसा जान पड़ा मानो वह अकबर का ही वध करेगा।
अकबर को क्रोध कम ही आता था। पर अब उसे क्रोध आ गया। अकबर ने अदहम खाँ को अटारी से फिंकवा दिया। एक बार में नहीं मरा तो दोबारा फिंकवाया, वह मर गया।
भैंगा बादशाह अकबर के बारे में अबुल फजल ने एक और भी मनोरंजक घटना लिखी है। अकबर को जनता का मन जानने की बड़ी इच्छा रहती थी। वह साधु-संतों का तो सत्संग करता ही, उनसे बराबर अपनी प्रजा के संबंध में पूछता रहता। कभी-कभी वह साधारण वेश में भीड़ में मिल जाता। एक बारवह इसी रूप में जमुना पार पहुँच गया। संयोगवश लोगों ने उसे पहचान लिया। अकेले, वहाँ से निकल आना कठिन था पर अकबर को एक तरकीब आती थी, वह अपनी आँख घुमाकर भैंगा बन जाता। उधर कानाफूसी हो रही थी कि एक ने कहा- भला यह भैंगा बादशाह हो सकता है! बस भीड़ का रुख दूसरी ओर हो गया और चुपके से अकबर चला आया।
आध्यात्मिक तेज योरपीय यात्रियों का कथन है कि अकबर की आँखें इस प्रकार दपती रहतीं मानो सागर पर सूर्य झिलमिला रहा हो। उसकी आवाज ऊँची थी, उसमें एक अनुगूँज होती थी। कोई भी उसे देखता तो जान जाता कि यही बादशाह है। जहाँगीर का कथन है कि लोग उसमें साक्षात ईश्वर का तेज पाते थे। वह अट्टहास करता था और उस समय उसका चेहरा हँसी के मारे थोड़ा विकृत हो जाता। उसे क्रोध बहुत ही कम आता। वह अत्यंत धीर था। योरपीय यात्री हैरान थे कि उसके मन की बात चेहरे के भाव से प्रकट ही न होती, पर क्रोध में उसकी आकृति असह्य हो जाती थी। उसके मूँछ के बाल खड़े हो जाते।
जजिया बंद संयोगवश अकबर शिकार खेलने मथुरा गया था। वहाँ उसे ज्ञात हुआ कि मथुरा आने पर हिन्दुओं को कर देना पड़ता है। उसने यात्री कर उठा दिया। अकबर ने कहा- यह कहाँ का न्याय है कि ईश्वर की आराधना पर कर लिया जाए! अगले ही वर्ष, अपने राज्याभिषेक की नौवीं वर्षगाँठ पर उसने मुस्लिम कानून के अनुसार गैर-मुस्लिमों पर लगने वाले कर- जजिया को भी उठा लिया।
यह एक अनोखी घटना थी। फिर तो दोनों पीढ़ियों तक जजिया कर नहीं लगा- औरंगजेब ने 1679 में जसवंतसिंह की मृत्यु के बाद जजिया कर पुनः लगाया। जजिया से प्रतिवर्ष साम्राज्य को लाखों की आय होती। फिर भी अकबर ने इसे अनुचित माना।
साधुओं में गुत्थम-गुत्था अकबर प्रसिद्ध तीर्थ, कुरुक्षेत्र पहुँचा। वहाँ सूर्यग्रहण पर आज भी बड़ा मेला होता है। लोग स्नान करते हैं। उस समय, कुछ साधु-वैरागी भी कुरुक्षेत्र के कुंड में स्नान करने आए थे, परंतु उनमें यह विवाद था कि कौन दल पहले स्नान करे।
आज भी पहले स्नान करने पर झगड़ा होता है। अतएव जब यह विवाद तय न हो सका तो दोनों दलों ने बादशाह से फरियाद की। दोनों के ही अपने-अपने दावे थे, पर बादशाह को कोई भी निश्चित प्रमाण न मिल सके। जान पड़ता है, युवक अकबर को कुछ मसखरी सूझी। उसने कहा- दोनों आपस में लड़ लें, जिस दल की जीत हो जाए वही पहले स्नान करे।
इस पर एक दल ने फरियाद की कि विपक्षियों के दल में अधिक व्यक्ति हैं। विनोदी अकबर ने कहा कि ठीक है, जिसके पास कम आदमी हों, वह उतने ही शाही सैनिक ले ले। फिर क्या था, किसी ने किसी की दाढ़ी पकड़ी, किसी ने किसी की जटा। इस घमासान का बड़ा मजेदार चित्रण अकबर-नामे की शाही प्रति में हुआ। अकबर के साथ गए चित्रकारों ने घटना का चित्र बनाया है। चित्र को देखने से ज्ञात होता है कि दूर पर खड़ा घुड़सवार अकबर भी इस तमाशे का मजा ले रहा था।
अकबर और जैन मुनि अकबर के दरबार में जैन भी थे, यह बदायूँनी और अबुल फजल दोनों ही कहते हैं। दो प्रमुख जैन मुनि हीर विजयजी तथा उनके शिष्य विजयसेन सूरी उसके दरबार में आए। ये दोनों श्वेबांतर जैन थे। इनमें हीर विजयजी सूरी को तो 1584 ई. में अकबर का फरमान प्राप्त हुआ किपर्युषण पर्व में जीव हिंसा न हो।
लोग जैनों के सम्मुख हिंसा न करें और मांस न खाएँ। हीर विजयजी के प्रति अकबर की बड़ी श्रद्धा रही होगी। अबुल फजल ने लिखा है कि वे उच्चतम कोटि के धार्मिक व्यक्ति थे। इनके प्रभाव से अकबर को जीव हिंसा के प्रति अरुचि हुई और उसने कई खास तिथियों पर अपने साम्राज्य में जीव हिंसा की मनाही कर दी। वह स्वयं मांस-भक्षण के विरुद्ध हो गया। उसने स्वयं प्रत्येक शुक्रवार शाकाहारी भोजन करने का व्रत ले लिया।
दीन-ए-इलाही की शुरुआत अकबर ने यह महसूस किया कि सभी धर्मों का एक ही उद्देश्य है। अतः उसने सर्वधर्म समन्वय अर्थात सब धर्मों की अच्छी बातें लेने का मार्ग पकड़ा। इसी को उसने 'सुलह कुल' कहा। इस तरह सब धर्मों की अच्छी बातों को लेकर उसने दीन-ए-इलाही चलाया।
इसमें इस्लाम का एकेश्वरवादथा, तो पारसी धर्म के अनुसार सूर्य और अग्नि उस ईश्वर के प्रकाश और तेज के रूप में पूजनीय थे। हिन्दू और जैन धर्मों के अहिंसावाद की इस धर्म पर गहरी छाप थी।
धार्मिक एकता की ओर झुकाव सम्राट होने के नाते अकबर धार्मिक तत्वों की तह में जाना अपना कर्तव्य समझता। एक बार वह फतेहपुर सीकरी में प्रातःकाल एकांत में शिला पर बैठा तो उसके मन में यह भावना आई कि अपनी प्रजा में भेदभाव नहीं रखना चाहिए। दूसरी ओर इस्लाम के मुल्ला गैर-मुसलमानों को सताने की सलाह देते।
इनके वाद-विवाद इतने उग्र होने लगे कि बादशाह के सामने भी वे दरबारी तहजीब का ध्यान न रखते। इस सबसे अकबर के मन में सच्चाई की खोज की प्रवृत्ति और अधिक बढ़ी। अकबर-नामा में अबुल फजल लिखता है कि इसके बाद दरबार में सभी धर्मों और संप्रदायों के विद्वान भर गए। सभी की धार्मिक मान्यताओं पर विचार होता। यदि उनमें कोई कमजोरी होती तो उसे प्रकट किया जाता। धार्मिक सहिष्णुता बरती जाती, इससे उलटी बुद्धि वाले और दुष्टों को जलन होती।
सभी धर्मों के कट्टरपंथियों का विरोध अकबर जब आंतरिक झगड़ों से मुक्त हुआ तो उसका धर्म-सुधार की ओर ध्यान गया। उसने एक नए धर्म की स्थापना की। इसमें उसने पवित्र कुरान, ब्राह्मणों के धर्मशास्त्र और ईसा मसीह के उपदेशों का समन्वय किया। इस हेतु उसने एक सभा की। इसमें सभी धर्मों के आचार्यों को बुलाया, साथ ही अपने मनसबदारों को भी बुलाया।
ध्यान देने की बात है कि सभी धर्मों के कट्टरपंथी अनुयायियों ने अकबर के उदारतापूर्ण दृष्टिकोण का विरोध किया। इस पर अकबर ने कहा- 'किसी भी साम्राज्य के अंतर्गत यह अनुचित है कि जनता अनेक धर्मों में विभाजित हो। इससे आपस में मतभेद उत्पन्न होता है। जितने धर्म उतने ही दल हैं। उनमें आपस में शत्रुता होती है अतएव सभी धर्मों में समन्वय अपेक्षित है। परंतु इसे ऐसे ढंग से करना चाहिए कि एक होते हुए भी उनकी विशेषता बनी रहे। इससे सभी धर्मों की अच्छाइयाँ बनी रहेंगी और दूसरे धर्मों की विशेषताएँ भी आ जाएँगी। इससे ईश्वर क प्रति आदर बढ़ेगा, लोगों में शांति होगी और साम्राज्य की सुरक्षा भी बढ़ेगी।'
सती प्रथा पर रोक इस बीच ऐसी घटना हुई, जिससे अकबर की दृढ़ मनोवृत्ति का पता चलता है। विंसेंट स्मिथ के अनुसार एक बहुत ऊँचे कुल की राजपूतनी विधवा हो गई। अकबर ने यह नियम बना दिया था कि कोई जबर्दस्ती सती न की जाए। एक दिन अकबर अपने अंतःपुर में बैठा था। वहाँ लोगों ने बताया कि उक्त राजपूतनी को उसके घर वाले जबर्दस्ती सती कर रहे हैं। अकबर ने आव देखा न ताव, वह अकेले ही एक तेज घोड़े पर सवार हो, उड़ चला। पीछे-पीछे उसके निजी सेवक घोड़ों पर दौड़ पड़े।
घटनास्थल पर पहुँचा तो जान पड़ा कि व अभी सती होने वाली ही है। बादशाह के पहुँचते ही सती संस्कार रुक गया।