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Written By WD

ये जिंदगी गोलगप्पे जितनी मजेदार है

विनय पाठक
तो दोस्तो, क्या चल रहा है, मस्ती और मजा। ये हमेशा चलते रहना चाहिए। गंभीर होना जरूरी है पर हँसने वाले दूसरों की तकलीफ कम कर देते हैं तो हँसना अच्छा ही है समझो। हँसते हुए भी कुछ अच्छी बात कही जा सकती है। यह तरीका है जिसमें दूसरों को समझाना ज्यादा आसान है। मेरी फिल्म 'भेजा फ्राय' देखोगे तो आखिर में जाकर समझ जाओगे कि किस तरह एक अच्छा आदमी अपनी बात अच्छी तरह से कह सकता है। अब एक नई फिल्म 'दसवीदानिया' भी आ रही है। मौका मिले तो जरूर देखना।

  फिल्मों से तो मुझे बचपन से ही प्यार था। बचपन से फिल्में देखने का चस्का था। फिल्मों के कारण ही कई दोस्तों से दोस्ती पक्की से पक्की हो गई। हम लोग साथ में फिल्म देखकर आते और फिर हीरो की कॉपी करने की कोशिश करते।      
दोस्तो, कभी मैं बिजनेस स्कूल में पढ़ाई कर रहा था। मैं टॉप-5 स्टूडेंट्स में से एक था फिर एक दिन मैंने पीटर शीफेर का एक प्ले 'इक्वस' देखा। इस प्ले को देखने के बाद मेरा ध्यान बिजनेस स्कूल की पढ़ाई की बजाय ड्रामे की ओर चला गया और मैंने ड्रामा स्कूल ज्वाइन कर लिया। यहीं से समझो मैं खराब हो गया। इसके बाद यह ड्रामा करने का शौक ऐसा लगा कि लोगों के सामने ड्रामा करने में मजा आने लगा। थिएटर किया और फिर फिल्मों में छोटे-मोटे रोल के साथ काम करना शुरू किया।

फिल्मों से तो मुझे बचपन से ही प्यार था। बचपन से फिल्में देखने का चस्का था। फिल्मों के कारण ही कई दोस्तों से दोस्ती पक्की से पक्की हो गई। हम लोग साथ में फिल्म देखकर आते और फिर हीरो की कॉपी करने की कोशिश करते। मुझे याद है कि एक बार मैं डॉन देखकर आया था और फिर हमने अमिताभ की कॉपी की थी। अमर अकबर एंथोनी फिल्म में अमिताभ जब पिटकर आता है और खुद को मरहम-पट्टी करता है वह सीन दिमाग में हमेशा घूमता रहा।

तो फिल्में देखकर हमें भी फिल्म लाइन में ही आना था। अब देखो, कोई न कोई काम तो करना ही था। यह नहीं करते तो कुछ और करते पर अब जो कर रहे हैं उसमें मन लगता है और मजा आता है। यह सबसे अच्छी बात है। यह तो फिल्म में जब काम मिल गया तबकी बात है पर काम मिल जाए इसके लिए बहुत चक्कर खाए। इन चक्करों के बाद भी कुछ अलग करने की धुन सवार रही। तभी तो दूसरों से अलग फिल्म 'भेजा फ्राय' बना सके और लोगों को पसंद आई।

दोस्तो, बिलकुल साधारण बनकर जीना बहुत अच्छा है। मैं आज भी भोजपुर (बिहार) में जिस तरह था उसी तरह बर्ताव करता हूँ। सफलता के साथ थोड़ा बदलो पर ज्यादा मत नहीं, वरना जिंदगी का मजा चला जाएगा। मेरी माँ हमेशा आज भी मेरे फिल्म एक्टर बनने से बहुत ज्यादा खुश नहीं है। वह चाहती थी कि मैं बैंक में नौकरी करूँ और शाम को घर पर आकर परिवार के साथ मजे से रहूँ।

मैं नहीं कहता कि इस तरह के जीवन में कुछ अच्छा नहीं है फिल्म में काम करने का मुझे जुनून था। माँ कहती है कि फिल्म में काम करना शौक होना चाहिए। माँ की इस बात से मुझे हमेशा अच्छा लगता है। वह मेरे बारे में कितना सोचती है। माँ सबसे अच्छी होती है ना इसलिए। उसे खूब प्यार करना चाहिए। तो अच्छी रही यह मुलाकात अब मुझे जाकर गोलगप्पे खाने हैं। तो दसवीदानिया, अरे भाई मेरी नई फिल्म का नाम है, मतलब होता है अलविदा। फिर मिलेंगे ट्रक के पीछे लिखे की तरह।

तुम्हारा
विनय पाठक