बच्चों को फिल्में नहीं दिखाकर हम गुनाह कर रहे हैं
स्व. श्रीराम ताम्रकर की स्मृति में सिनेमा और समाज पर सार्थक चर्चा
इंदौर। वरिष्ठ फिल्म समीक्षक और फिल्म संस्थान पुणे में शिक्षक रहे मनमोहन चड्ढा ने कहा कि हम बच्चों को तैरना तो सिखाते हैं, लेकिन फिल्मों के समुद्र में ऐसे ही फेंक देते हैं। हम बच्चों को फिल्में नहीं दिखाकर गुनाह कर रहे हैं।
फिल्म विश्लेषक और संपादक स्व. श्रीराम ताम्रकर की स्मृति में आयोजित कार्यक्रम में चड्ढा ने कहा कि सिनेमा देश को जोड़ने का सबसे बड़ा माध्यम है। विभिन्न फिल्मों का उदाहरण देते हुए चड्ढा ने कहा कि सुनी-सुनाई बातों से सिनेमा ज्यादा बदनाम हुआ है। दरअसल, परिवार में फिल्मों पर बात होनी चाहिए साथ ही पुरानी फिल्में बच्चों को दिखाई जाने चाहिए, इससे उन्हें सिनेमा की भाषा समझने में मदद मिलेगी।
उन्होंने कहा कि हमने बच्चों को सिनेमा की शिक्षा नहीं दी। यदि ऐसा होता तो बच्चे स्वस्थ परंपरा लेकर विकसित होते। हिन्दी सिनेमा का इतिहास पुस्तक के लिए राष्ट्रपति का स्वर्ण कमल पुरस्कार जीत चुके चड्ढा ने जोर देकर कहा कि सिनेमा की शिक्षा पाठ्यक्रम का हिस्सा होना चाहिए। समाजशास्त्र और राजनीति शास्त्र की तरह सिनेमा भी पढ़ाया जाता तो इससे लाभ ही होता। उन्होंने सलाह दी 100 से ज्यादा अच्छी फिल्में हैं, उन्हें बच्चों को जरूर दिखाना चाहिए।
प्रो. अनिल चौबे ने कहा कि सिनेमा में एक सम्राट और तानाशाह से भी ज्यादा ताकत होती। वह तीन घंटे तक लोगों को सिनेमा हॉल में कैद करके रखता है। उन्होंने कहा कि सिनेमा के लिए साक्षरता की जरूरत नहीं होती। चौथी पास चार्ली चैपलिन और तीसरी क्लास तक पढ़े के. आसिफ को सिनेमा के कारण ही वैश्विक पहचान मिली। चौबे ने कहा कि अच्छी कहानियां हमेशा नहीं आतीं, लेकिन कालजयी सिनेमा की हमेशा बात होती है। उन्होंने उम्मीद जताई कि आने वाले समय में लोगों को अच्छा सिनेमा देखने को मिलेगा।
वेबदुनिया के संपादक जयदीप कर्णिक ने नईदुनिया में श्रीराम ताम्रकर के साथ बिताए वक्त को स्मरण करते हुए कहा कि श्रीराम जी इंदौर में रहकर फिल्म समीक्षक के रूप में पूरे देश में चर्चित रहे। वे जितने अच्छे इंसान थे, उतने ही बेहतर शिक्षक भी थे। वंचित वर्ग के बच्चों की उन्होंने काफी मदद की।
उन्होंने कहा, मदर इंडिया, सलीम लंगड़े पर मत रो, चक दे इंडिया, भाग मिल्खा भाग जैसी फिल्में समाज पर सीधा असर डालती हैं। फिल्मों का समाज से गहरा संबंध है। हालांकि 'फायर' जैसी फिल्मों को स्वीकारने में समाज हिचक भी दिखाता है, इनकी आलोचना भी होती है, लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि फिल्में समाज में बदलाव लाती हैं। कर्णिक ने सवाल उठाया कि हमें यह देखना होगा कि समाज में जो प्रतीक ढह रहे हैं, क्या उनका स्थान फिल्में ले सकती हैं? साथ ही कहा कि फिल्में समाज में उपदेशक की भूमिका भी निभा सकती हैं।